नवीन पुरोहित।
कुछ नारियों ने अपनी जिम्मेदारियों को आनंदउत्सव की तरह क्या लिया, हड़कंप मच गया, तस्वीरें वायरल होने लगी, बौराया मीडिया उनकी तलाश करने लगा, किस्सागोई होने लगी, द्विअर्थी संवाद चलने लगे।
ज्यादातर आंखे कर्तव्यपरायणता की जीवंत प्रतिकृतियों को देखकर सिर्फ फैशन और ग्लैमर तक सीमित रह गई।
आकर्षक देहयष्टि, कपड़ों के रंग, साज श्रृंगार से ज्यादा उनकी और उनके कैमरों की कृतिम आंखें उन जीवंत मूर्तियों के काम में राम या आंनद की खोज, या हंसते मुस्कुराते काम करने के मूल मनोभाव तक पहुंच ही नहीं पाई, फिर इस माँ के वात्सल्य और कर्तव्य के अद्भुत सन्तुलन तक तो उनका पहुंचना नामुमकिन ही था।
चूंकि कर्तव्यपरायणता, हंसते मुसकुराते हुए काम के आनंदउत्सव वे आंखें देख ही नहीं सकती थी, वह दृगदृष्टि उनके पास थी ही नहीं तो क्या उम्मीद करें।
बहरहाल सिर्फ सदी इक्कीसवीं है बाकी आज भी औरत हमारे समाज में या तो देवी है या भोग्या है लेकिन एक इंसान और एक एकल व्यक्तित्व के रूप में उसकी मौलिक उपस्थिति हमें आज भी अस्वीकार है।
चाहे हो अग्नि परीक्षा या हो चौसर की बिसात,
हर तरफ दांव लगी है नारियों की जिंदगी।।
तो आप भी दांव लगाइए, कीजिये हंसी ठिठोली, लेकिन इस बात को अपने दिमाग में अच्छे से बैठा लीजिये कि ऐसे ही दृष्टिदोष की शिकार कई आंखें आपके घरों की ओर, प्रियजनों और परिजनों की तरफ भी घात लगाए बैठी हैं।
जय हो मंगल हो
लेखक डिजियाना मीडिया ग्रुप में ग्रुप चैनल हेड एवं डायरेक्टर हैं।
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