भारतीय थरूर ने दिखाया ब्रितानियों को आईना,बोले कोहीनूर लौटा दो,नाइंसाफी की भरपाई मुश्किल

वीथिका            Jul 23, 2015


मल्हार मीडिया डेस्क कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर ने ब्रिटेन में इस साल मई के अंत में ऑक्सफ़ोर्ड यूनियन में आयोजित एक वाद-विवाद में हिस्सा लिया। इसका विषय था 'इस सदन का यह मानना है कि ब्रिटेन को अपने पूर्व की कॉलोनियों को हर्जाना देना चाहिए। इस वाद—विवाद में जब थरूर की बोलने की बारी आई तो उन्होंने ब्रितानियों से आजादी के पहले के अत्याचारों का हर्जाना तो मांगा ही साथ ही यह भी कहा कि ब्रिटेन कम से कम कोहीनूर हीरा तो भारत को वापस कर ही सकता है। बहस में भारतीय सांसद और लेखक शशि थरूर के अलावा कंज़रवेटिव पार्टी के पूर्व सांसद सर रिचर्ड ओट्टावे, और ब्रितानी इतिहासकार जॉन मैकेंजी ने हिस्सा लिया। शशि थरूर ने प्रस्ताव के पक्ष में अपनी बात रखी और इसे अपने निजी ट्विटर अकाउंट से साझा किया। उनका भाषण सोशल मीडिया पर वायरल हो गया। क्या कहा शशि थरूर ने पढिये 18वीं शताब्दी की शुरुआत में विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी 23 फ़ीसदी थी। यह पूरे यूरोप की हिस्सेदारी से अधिक थी। लेकिन जब ब्रितानी भारत छोड़कर गए तो यह घटकर चार फ़ीसदी से भी कम रह गई थी। इसका कारण बहुत सीधा था। भारत पर ब्रिटेन के फ़ायदे के लिए शासन किया जा रहा था। दो सौ साल तक ब्रिटेन के उभार के लिए पैसे भारत में की गई लूटपाट से मिले। 19वीं सदी के अंत तक भारत ब्रिटेन के लिए सबसे अधिक पैसे देने वाला देश था। वह ब्रिटेन के निर्यात का सबसे बड़ा ख़रीददार और ब्रिटेन के बड़े से बड़ा वेतन पाने वाले नौकरशाहों के वेतन का स्रोत था। यह सब भारत के अपने ख़र्चे पर हो रहा था। वास्तव में हमने अपना दमन करवाने के लिए भुगतान किया। ब्रिटेन का औद्योगिकरण भारत के उद्योगों को मिटाकर हुआ। भारतीय कपड़ा उद्योग कोे तबाह कर दिया गया। वहीं ब्रिटेन में उद्योग लगाए गए, उनमें भारत का कच्चा माल इस्तेमाल हुआ और जब माल तैयार जाता, उसे भारत और दुनिया के अन्य देशों को निर्यात कर दिया जाता। बंगाल के बुनकर दुनिया में सबसे बढ़िया कपड़े बनाते थे, निर्यात करते थे। बेहतरीन किस्म के इस मलमल में कुछ तो इतना हल्का होता था जैसे हवा को गूंथ दिया हो। इसके जवाब में बंगाली बुनकरों के अंगूठे काट लिए गए, उनके करघों को तोड़ दिया और भारतीय कपड़ों पर कर और सीमा शुल्क लगा दिए। इसके अलावा भारत और दुनिया को भाप से चलने वाली शैतानी ब्रितानी मिलों में बने सस्ते कपड़ों से पाट दिया गया। बुनकर भिखारी बन गए। उत्पादन ठप हो गया। ढाका मलमल निर्माण का एक बड़ा केंद्र था, उसकी आबादी 90 फ़ीसदी तक कम हो गई। ऐसे में, भारत तैयार माल का एक बड़ा निर्यातक होने की जगह ब्रिटेन के माल का आयातक बन कर रह गया। वहीं दुनिया के निर्यात में इसका हिस्सा 27 फ़ीसदी से घटकर दो फ़ीसदी रह गया। ब्रितानियों ने बहुत ही बेरहमी से भारत का शोषण किया। डेढ़ करोड़ से दो करोड़ 90 लाख भारतीयों की भूख की वजह से मौत हो गई। भारत में अंतिम बार सबसे बड़े पैमाने पर भूख से मौतें ब्रितानी शासन में हुईं। उसके बाद इतने बड़े पैमाने पर भूख से मौतें नहीं हुईं। स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश अपने लोगों को भूख से मरने के लिए नहीं छोड़ते। बंगाल में 1943 में पड़े अकाल में क़रीब 40 लाख लोगों की मौत हुई। विंस्टन चर्चिल ने जानबूझकर खाद्यान को भूख से मर रहे भारतीयों की जगह संपन्न ब्रितानी सैनिकों के लिए और यूरोपीय भंडारों में रखने का आदेश दिया। जब कुछ समझदार अधिकारियों ने एक टेलीग्राम भेजकर जब प्रधानमंत्री चर्चिल का ध्यान इस ओर दिलाया कि उनके फ़ैसले से कितनी बड़ी त्रासदी हुई है तो चर्चिल ने बहुत ही चिड़चिड़े भाव से कहा, ''गांधी की मौत अब तक क्यों नहीं हुई है?'' ब्रितानी साम्राज्य बहुत दिनों तक यह कहकर ख़ुद को जायज़ ठहराता रहा कि यह बुद्धिमानी से किया गया प्रजा का उत्पीड़न था, जो शासन के हित में था। लेकिन चर्चिल के 1943 में किए गए इस अमानवीय कृत्य ने इस मिथक को झूठ में बदल दिया। लेकिन इसे दो सदी तक के लिए पहले ही ध्वस्त कर दिया गया था: ब्रितानी साम्राज्य न केवल छल-कपट से देशों को जीतकर अभिभूत था, बल्कि तोपों से विद्रोहियों को उड़ाकर और जलियांवाला बाग में निहत्थे प्रदर्शनकारियों का संहार कर और नस्लवाद को आधिकारिक रूप से मान्यता देकर भी। औपनिवेशिक काल में किसी भी भारतीय को ख़ुद को ब्रितानी मानने की इजाज़त नहीं दी गई। वह हमेशा एक विषय थे, नागरिक नहीं। भारतीय रेल के निर्माण को कई बार ब्रितानी शासन के फ़ायदे के रूप में पेश किया जाता है। लेकिन इस तथ्य की अनदेखी कर दी जाती है कि कई देशों ने उपनिवेश बने बिना भी अपने यहां रेलवे का निर्माण किया। रेलवे का निर्माण भारतीय लोगों की सेवा के लिए नहीं किया गया था। उसे हर तरफ़ से ब्रितानियों की मदद के लिए ही बनाया गया था। इससे भी बड़ी बात यह थी कि इसके ज़रिए वो भारतीय कच्चे माल को ब्रिटेन भेजने के लिए बंदरगाहों तक पहुंचाते थे। रेलगाड़ियों से लोगों की आवाजाही संयोगवश ही हो रही थी। रेल के निर्माण में यातायात के लिए लोगों की ज़रूरतों पर कभी ध्यान नहीं दिया गया। दरअसल भारतीय रेल ब्रितानी उपनिवेश के सबसे बड़े घोटालों में से एक थी। सरकार ने भारतीय करों पर भुगतान के लिए पूंजी पर अच्छी कमाई की गारंटी दी। इससे ब्रितानी निवेशकों ने रेलवे में निवेश कर बेतहाशा कमाई की। ब्रितानी लालच की वजह से एक किमी रेलवे पर आने वाला ख़र्च ऑस्ट्रेलिया और कनाडा में आने वाले ख़र्च का दो गुना था। यह ब्रिटेन का एक शानदान रैकेट था, जिसने खूब मुनाफ़ा कमाया, उपकरणों की आपूर्ति और प्रौद्योगिकी पर नियंत्रण रखा। इसका मतलब यह हुआ कि मुनाफ़ा एक बार फिर भारत से बाहर चला गया।उस समय इस योजना का नाम था, 'जनता के जोखिम पर निजी उद्यम। निजी ब्रितानी उद्यम, भारत के लोगों का जोखिम। हाल के वर्षों में जब हर्जाने की बात तेज़ होती गई है, ब्रितानी नेता इस बात पर आश्चर्य जताते रहे हैं कि क्या भारत जैसे देश को ब्रितानी करदाताओं के ख़र्चे पर आर्थिक सहायता लेनी चाहिए। शुरू में जो सहायता मिली वह 0.4 फ़ीसदी थी, जो भारत के जीडीपी के एक फ़ीसदी का भी आधा थी। यह ब्रितानी सहायता, उस रकम से काफी कम थी जितने हर्जाने के लिए बहस में मांग की जा रही थी। यह भारतीय किसानों को खाद पर मिल रही सब्सिडी के एक हिस्से के बराबर थी। हो सकता है कि यह इस बहस के लिए एक उपयुक्त रूपक हो। ब्रितानियों को क्रिकेट या अंग्रेज़ी भाषा या संसदीय लोकतंत्र के प्रति हमारे प्यार को देखना चाहिए। बहुत से भारतीयों के लिए हालांकि यह लूटपाट, नरसंहार, ख़ूनखराबा और भारत के अंतिम मुग़ल शासक को एक बैलगाड़ी में बैठाकर बर्मा भेजा जाना, सब इतिहास है। पहले और दूसरे विश्व युद्ध में भारत ने ब्रितानी सेना के लिए ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, न्यूज़ीलैंड और दक्षिण अफ़्रीका की तुलना में अधिक सैनिक दिए। आर्थिक मंदी, ग़रीबी और इंफ्लुएंजा की महामारी के बावज़ूद भी रुपए और सामान के रूप में भारत का योगदान क़रीब आठ अरब पौंड था, जो आज के क़रीब 12 अरब पौंड के बराबर है। विश्व युद्ध और भारत दूसरे विश्व युद्ध में क़रीब 25 लाख भारतीय ब्रितानी फौजों की ओर से लड़े। युद्ध के अंत तक ब्रिटेन के कुल तीन अरब पौंड के युद्ध कर्ज का सवा अरब पौंड भारत पर बक़ाया था, जो औपनिवेशिक शोषण का एक छोटा सा हिस्सा है। इसका भुगतान अभी तक नहीं किया गया है। यहां यह महत्वपूर्ण नहीं है कि ब्रिटेन को कितना हर्जाना भरना चाहिए, बल्कि प्रायश्चित का सिद्धांत महत्वपूर्ण है। दौ सौ साल की नाइंसाफ़ी की भरपाई कितना भी अधिक पैसा देकर नहीं की जा सकती है। मैं अगले दौ सौ साल तक एक पौंड प्रतिवर्ष की दर से प्रतीकात्मक हर्जाना पाकर ख़ुश रहूंगा। ब्रिटेन भारत से ले जाए गए कोहिनूर हीरे को भी लौटा सकता है। साभार बीबीसी


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