रिचा अनुरागी
वो मेरे पापा हैं,इसलिए नही कह रही पर अक्सर लगता है वे और इंसानों से अलग हैं। इसीलिए लोगों के बीच वे अलग अलग नामों से जाने जाते है ,कोई उन्हें संत कवि कहता तो कोई सूफी मस्त कहता है। कई साहित्यकारों को कहते सुना है कि अनुरागी के वेश में लगता है सम्पूर्ण कविता ही चली आ रही हो। पर वो तो हैं यारो दा यार और यह यार पापा ,अक्सर हम बच्चे भी कहते ।
पापा का जादू कुछ ऐसा ही कि जो उन से मिल लेता बस उनका ही हो जाता।वो उनसे उम्र में बड़ा हो या बहुत छोटा,हर शख्स उनका दोस्ता हो जाता। यह दोस्ता भी पापा का प्रिय शब्द है और इस शब्द की भी एक कहानी है ,दरअसल मुझ से छोटा आलोक भाई था,जब वह ढाई साल का रहा होगा तो पापा के साथ खादी मंदिर गया और वहाँ शोकेश में एक शेर रखा दिखा उसने पापा से कहा मुझे यह दोस्ता चाहिये, तब पापा की जेब से दोस्ता की कीमत अधिक थी पापा उसे ले घर आ गये पर रात भर उन्हें निद नही आई दुसरे दिन पापा ऑफिस से जल्दी घर आ गये और भाई से बोले चलो आपके दोस्ता को घर ले आते हैं बस फिर क्या दोस्ता घर आ गया और एक नया शब्द दोस्ता भी मिल गया।
ऐसा ही अमृता प्रीतम से भी उनका अनुरागी वाला रिश्ता था, पापा जब भी उन से मिलकर आते ,ढ़ेर सारी बातें हम सबको सुनाते उनके हाथों से बनी चाय या कविताओं के दौर में घंटों कप में घुटी हुई कॉफी का जिक्र ,घन्टों गपशप कविताओं के दौर में समय का पता ही नही चलता।
फिर तो आलम यह हुआ कि पापा अकेले नहीं अपनी मित्र मंडली भी लेकर पहुँच जाते अमृता जी के पास अमृता जी का स्वास्थ्य खराब चल रहा था पापा उन्हें देखने दिल्ली जा रहे थे इस बार छोटी ब हन पिंकी (आस्था) ने जिद्द कर ली इस बार मैं भी चलूगी ,दरअसल उसे अमृता जी से कम इमरोज़ जी से ज्यादा मिलना था उसके बाल मन में इमरोज़ जी की एक खूबसूरत तस्वीर बनी थी। पापा उसे अपने साथ दिल्ली ले गये।
बकौल पिंकी ....मैं तो इमरोज़ जी के साथ नीचे ही उनकी पेंटिंग देखने में और इमरोज़ जी के साथ बतियाने में लगी रही पापा ऊपर की मंजिल पर बने अमृता जी के पास उनके हाल चाल जानने चले गये। कुछ देर बाद इमरोज जी ने चाय नाश्ते का इंतजाम किया तब अमृता जी और पापा नीचे ही आ गये। तब मै उनसे मिली वे बहुत प्यारी थीं उतनी ही सहज भी। स्वास्थ्य ठीक नहीं था फिर भी अपनत्व झलक रहा था और पापा की मुस्कुराहट के पीछे अमृता जी का दर्द भी दिख रहा था। लौटते समय का दृश्य कुछ सहज नहीं था शायद दोनों जान रहे थे यह मुलाकात अंतिम है ।
अमृता जी ने अपनी किताब ... अंनत नाम जिज्ञासा में अनुरागी जी के लिये लिखा भी है ।
ओशो का दरवेश
भोपाल के अनुरागी जी को देख कर लगता है ,जैसे प्राचीन स़ूफी दरवेशों या जैन फ़क़ीरों की कहानियों का कोई पन्ना किताबों से निकल कर इंसानी सूरत में आ गया हो ....
अनुरागी जी ओशो के बचपन के मित्र हैं ,कालेज के सहपाठी भी रहे, इसलिए बेतकल्लफ़ी आज भी ओशो की बात करते हुए उनकी आवाज़ में है.....
पिछली बार आए ,तो मैंने उन्हें एक ख़त की बात सुनाई, जो किसी पाठक ने लिखा था ,ओशो को ,और मुझे भेज दिया था, जिसके लिफ़ाफे पर लिखा हुआ था -ओशो ,मार्फ़त अमृता.......
और इस ख़त की बात करते मैं अनुरागी जी को बता रही थी -कि जब ख़त आया ,लिफाफे का पता देखकर मैं ओशो से मुखातिब हुई-"देखो,मेरे पते से अब खलक़ को तेरा घर मिलने लगा ....."अनुरागी जी यह पंक्ति सुनते ही दीवाने हो गये ,और अब जब आए, तो उनके हाथ में बास के टुकड़ों से बनाया एक फूल दान था, जिसमें लंबी टहनियों वाले फूल खिले हुए थे और वह सीढ़ियों से ही गाते -गाते आ रहे थे --"मेरे पते से खलक़ को अब तेरा घर मिलने लगा ।
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