माता सहज साँवरी माटी बाबुल बिरछ लगाये वीरन ममता पानी सीचें रस अगवा गहराये अब फल भार बने टहनी के बाबुल-वीरन जागे ललचे सुआ दूर से ताके गोफन देखे,भागे पीले व्रत,कदली की पूजा सपनों हल्दी बरसे टहनी तरसे,ले ले कोई अब ये फल आदर से ।
पापा की यह कविता साकार रुप धरती है उनकी बेटियों की शादियों के समय,उन्होंने अपने और अपनी बेटियों के सम्मान को कभी गिरने नही दिया। वे बेटियों का लड़के वालों के सामने बेहूदा प्रदर्शन के खिलाफ थे,दहेज के खिलाफ थे। उन्होंने सिर्फ अपनी बेटियों के ही लिये ही नहीं बल्कि बेटे के लिये भी यही सोच कायम रखी। अपनी पुत्र-वधू को मीता नाम दिया सच में वह उनकी मीत थी। वे कहते यह मेरा कोहेनूर है मैंने घर से छः हीरों को विदा किया और एक कोहेनूर को पाया है। वे हम बहनों को अपने हाथों से अपनी थाली में से छोटे-छोटे कौर बना कर खिलाते और गर्व से कहते लोग साल में एक दो बार कन्या जिमाते हैं मैं तो रोज कन्या जिमाता हूँ।हमें बेटी होने का एहसास अपनी विदाई के वक्त हुआ कि हम बेटी हैं।जिसकी छः बेटियां हों और पिता उन्हें अपनी अनमोल धरोहर मानता हो। उन बेटियों से बड़भागी दुनिया में कोई दूसरा ना होगा। जब भी कोई हम बहनों की शादी की बात करता तो वे शान से कहते मैं किसी के दरवाजे नहीं जाने वाला जिसे सम्मान से मेरी बेटी ले जाना हो वो स्वयं आये। मान सम्मान में कमी नहीं होगी पर दहेज के नाम पर ठेंगा। हल्दी का टीका और श्रीफल ही मिलेगा मेरे पास।जैसा वे कहते थे वैसा ही हुआ । एक किस्सा आदरणीय कैलाश पंत अंकल सुनाते हैं। शाम होने को थी और अनुरागी जी किसी मित्र के साथ हिन्दी भवन आ पहुँचे आत्मिक भेंट के बाद मैने उनसे कहा मैं तो आपके ही घर जा रहा था वो भाभी का फोन आया था,कह रहीं थी शाम सात बजे बिटिया का फलदान करना है। अनुरागी जी ताली बजाते हुये बोले यार तूने मुझे पिटने से बचा लिया।तेरी भाभी ने सुबह मुझे कुछ सामान की लिस्ट दी थी और कहा था जल्दी लेते आना,मैं भूल ही गया इसके बेटे का काम था सो इसके साथ चल दिया,इसका काम तो हो गया पर लौटते में प्यारे भाई शिवभानू सिंह सोलंकी ने अपनी गाड़ी में जबरन बैठा लिया बस सामने उन्हीं के बंगले से तुम्हारे पास आ गया चलो अच्छा हुआ जो तुमने याद दिला दिया। मैने भाभी को फोन लगाया,कहा भाभी मैं आ रहा था कुछ लाना तो नहीं हैं? से हैरान-परेशान भाभी बोलीं भैया हो सके तो इन्हें ढूंढ लाना। सुबह से निकले हैं सब जगह फोन लगा लिया कुछ पता नहीं कहाँ है।फोन रख अनुरागी जी को ले मैं घर पहुंचा तब तक मेहमान आ चुके थे।आलोक और ऋचा की मित्र मंडली ने भाभी के साथ मिलकर सब काम संभाल लिया था और इन महाशय का स्वागत जबलपुर से बेटी प्रज्ञा के लिये रिश्ता लेकर आये उसके सासुराल वाले कर रहे थे । बड़ी बेटी की शादी का भी नजारा कुछ ऐसा ही था। एक दिन सुबह की पौ फटने को थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई माँ ने दरवाजा खोला तो एक महानुभाव सफेद धोती-कुर्ते में,हाथ में एक सन्दूक लिये खड़े थे। माँ ने औपचारिकता निभाते हुये परिचय पूछा तो माँ सकपका गई,क्योकि यह तो वही सज्जन थे जिनके बारे में दो दिन पहले ही अनुरागी जी के चाचा ससुर और छोटे भाई ने बताया था कि उनके बेटे के साथ बड़ी बेटी की रिश्ते की बात हुई है। पापा को जगाया गया।चाय के कप खाली हो गये,नाश्ता शुरु हो गया पर पापा ने उनसे ना आने का कारण ही पूछा ना कोई काम की बात। वे जनसंघ के पुराने व्यक्ति थे और बस वही सब बातें चल रहीं थी। माँ बार-बार इशारे कर रही थींं पर पापा को ये सब कहाँ समझ में आने वाला था। कुछ देर बाद आये हुए सज्जन ने सन्दूक से एक कपड़े का बैग निकाला और पापा को देते हुए बोले-अनुरागी जी जब हमारी जम गई तो बच्चों की तो जम ही जायेगी। मेरी ओर से रिश्ता पक्का। यह कुछ पुराने जेवर हैं बेटी की पसंद के बनवा दीजिये शादी के दिन दरवाजे पर बरात थी,माँ और दुष्यंत कुमार त्यागी अंकल पापा को बारात के स्वागत के लिये खोज रहे थे जब दुष्यंत अंकल स्टेज के पास पहुंचे तो देखा कि पापा और तरूण भादुड़ी अंकल सब तामझाम से निश्चित हो संगीत का आनंद ले रहे थे। एक दिन रोडवेज की बस से एक खत मेरे पास आया जिसे शुरू तो पापा ने किया था और समाप्त लम्बे विस्तार के साथ राम प्रकाश अंकल ने किया था । (सन् 1984 की बात है नसरुल्लागंज जैसी जगह तक टेलीफोन नहीं होते थे पत्रों के लिये सबसे अच्छा साधन रोडवेज की बसें होती थीं। अगर आप की जान-पहचान हो तो,वरना पत्र भी पन्द्रह-बीस दिन में मिल जाये तो भगवान का शुक्रिया कहो)यह पत्र क्यों लिखा गया था मैं आपको वह पूरी घटना बताने जा रही हूँ। सबसे मजेदार घटना तो छोटी बहन श्यामू (ऋता) की शादी तय होने का है। पापा के बगीचे में अनार,आम बेर सीताफल और ढेर सारे फलदार वृक्ष,फलों से लदे होते थे और इन वृक्षों के नीचे ही कुर्सियां लगी रहती थीं। यहाँ-वहाँ खाट भी बिछी होती शानदार गाव तकियों के साथ।गाँव घर का आनंद। उस दिन स्वतंत्रता सेनानी माननीय महेन्द्र कुमार मानव और उनके स्वतंत्रता सेनानी साहित्यकार भाई सुरेन्द्र कुमार अपने पूरे परिवार के साथ पापा से मिलने आये थे और सब आँगन में बैठे बतिया रहे थे। तभी सुरेन्द्र जी की पत्नी सरोज जी रसोई घर में पहुँची,श्यामू और साशा माँ के साथ भोजन बना रही थीं। उन्होंने पूछा तुममें से बड़ी कौन है? श्यामू ने झट हाथ ऊंचा किया थोड़ी देर में वे बाहर आईं और पापा से मुखातिब हो बोलीं,आपकी बेटी ऋता अब हेमंत-ऋतु हो जाये तो कैसा रहेगा? ठहाकों-तालियों से हेमंत-ऋतु का जोरदार स्वागत हुआ। फिर हेमंत के आने पर पापा उसे हाथ पकड़ कर रसोईघर में ले गये जहाँ श्यामू और साशा घूम-घूमकर मस्ती करते हुये रोटी को गोल बनाने में लगी थीं हेमंत को श्यामू से मिलवाते हुये पूछा तुम इससे दोस्ती करोगे? बस पक्की दोस्ती हो गई। जैसे ही सरोज जी ने फलदान की तारीख पूछी पापा ने दो अनार के फल डाल से तोड़कर उन्हें सम्मान से सौपते हुये बोले यह लीजिये हो गया फलदान और इस तरह हमारी ऋता-हेमंत हेमंत—ऋतु हो गई। रामायण की घटना जो मुझे विशेष रुप से पंसद है कि जब महाराज दशरथ बड़ी भारी बारात लेकर राजा जनक के द्वार पहुँचते हैं और जनक सम्मान से बारातियों का स्वागत करते हैं,तभी महाराज दशरथ हाथ जोड़कर राजा जनक के सामने नतमस्तक हो जाते हैं और राजा जनक उन्हें अपनी भुजाओं में थाम लेते हैं और कहते हैं,महाराज आप बड़े हैं,वरपक्ष वाले हैं आप हमारे अतिथि हैं,यह उल्टी रीत? तब महाराज दशरथ विनम्रता से कहते हैं-हे राजन आप दाता हैं मैं याचक हूँ, आपकी कन्या मांग रहा हूँ ,आपकी कन्या लेने आपके द्वार पर खड़ा हूँ अब आप ही बताएं कि दाता और याचक में कौन बड़ा है? यह सुन जनक के नेत्रों से अश्रु धारा बह निकली। पापा का जनक रुपी रुप ही हर बेटी के ब्याह में सामने आया परमपिता परमेश्वर ने उन्हें महाराज दशरथ से समधी दिए जिन्होंने सम्मान से उनकी बेटियों को अपनी बेटियों के रुप में स्वीकारा। भारत के हर घर में रामायण मिल जाएगी,उसे सुनने वाले और सुनाने वाले अनंत हैं पर आज भी दहेज की बलि बेदी पर हर साल हजारों बेटियां बलि चढ़ती हैं आज भी बेटियों को भार समझा जाता। जिस देश में रामायण से ग्रंथ हों नव देवी पूजित हो वहाँ नारी अभी भी दोयम स्थान रखती है यह शर्मनाक बात है। आज हर माता-पिता को अपनी सोच में बदलाव लाना होगा कि बेटी भार नहीं मान है,सम्मान है।
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