फैजाबाद से कुंवर समीर शाही
पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा नेताजी से जुडीं 64 फाईलें उजागर करने के बाद कई चर्चायें फिर गर्म है। इन फाईलों से खुलासा हुआ कि कांग्रेस सरकार ने तकरीबन 20 साल तक नेता जी के परिवार की जासूसी करवाई थी। यह दावा खुफिया दस्तावेजों के हवाले से किया गया है। इसके बाद मांग उठी कि नेताजी के जीवन और उनकी मृत्यु से जुड़े दस्तावेज सार्वजनिक किए जाएं। इन सबके बीच सरकार ने बीते बुधवार को तीन मेंबरों वाली एक कमेटी बना दी है, जो नेताजी से जुड़े मसलों को जनता के सामने लाएगी। इस बहाने एक बार फिर नजर डालिये उत्तरप्रदेश के फैजाबाद स्थित लखनउवा अहाता और गुमनामी बाबा के जीवित रहते उनकी गतिविधियों पर
नेताजी नहीं, तो कौन थे गुमनामी बाबा
नेताजी के जीवन और उनके निधन से जुड़े अनगिनत रहस्य हैं। एक दिलचस्प किस्सा अयोध्या और इसके जुड़वां शहर फैजाबाद से भी जुड़ा है। कहते हैं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस गुमनामी बाबा के नाम से यहां रहते थे।
कहां रहते थे गुमनामी बाबा
अयोध्या के लखनउवा हाता मोहल्ले में स्थित लखनउवा मंदिर। गुमनामी बाबा यहां 70 के दशक में आए। अयोध्या में वह गोलाघाट की लालकोठी और ब्रह्मकुंड गुरुद्वारे में रहते थे। इसके बाद उन्होंने अपना ठिकाना फैजाबाद शहर में बनाया। यहां वे रोडवेज बस स्टेशन के पास रामभवन कोठी में रहते थे। यह कोठी रिटायर्ड परिवहन अफसर गुरु बसंत सिंह की है। रामभवन में वह इतने गोपनीय तरीके से रहते थे कि खुद मकान मालिक गुरुबसंत सिंह भी दो साल तक उनका चेहरा नहीं देख सके थे।
कई अहम सबूत
रामभवन कोठी के मालिक गुरुबसंत सिंह के बेटे शक्ति सिंह बताते हैं कि 17 सितंबर 1985 को गुमनामी बाबा का देहांत हो गया। इसके बाद इस खबर ने जोर पकड़ा कि वह सुभाष चंद्र बोस थे। बताया जाता है कि नेताजी के कुछ रिश्तेदार, कुछ शुभचिंतक, कुछ स्वतंत्रता सेनानी उनसे गुपचुप तरीके से मिलते रहते थे। 23 जनवरी और दुर्गापूजा पर मिलने-जुलने वालों की तादाद बढ़ जाती थी। बकौल शक्ति सिंह, कम से कम 4 मौकों पर गुमनामी बाबा ने खुद को सुभाष चंद्र बोस कहा था। कोर्ट के ऑर्डर पर गुमनामी बाबा के सामान को 24 बक्सों में भरकर सील करके फैजाबाद की ट्रेजरी में रखा गया है। कोलकाता हाई कोर्ट के आदेश पर गठित जस्टिस मुखर्जी आयोग के सामने 26 नवंबर 2001 को इन बक्सों को खोला गया। इनमें बंद 2600 से भी ज्यादा चीजों की जांच की गई। किताबों, मैगजीन के अलावा इन चीजों में कई शख्सियतों की चिट्ठियां, नेताजी से जुड़ी खबरों और आर्टिकल्स की कतरनें, रोलेक्स और ओमेगा की दो कलाई-घड़ियां (कहा जाता है कि ऐसी ही घड़ियां नेताजी पहनते थे), कुछ पारिवारिक फोटो हैं। नेताजी के बड़े भाई सुरेश बोस को खोसला आयोग की ओर से भेजे गए समन की मूल कॉपी भी है।
जस्टिस मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट में क्या ?
जस्टिस मुखर्जी आयोग ने गुमनामी बाबा को तो सुभाष चंद्र बोस नहीं घोषित किया, लेकिन इतना कहा कि उनकी मौत 1945 के ताइवान प्लेन हादसे में नहीं हुई थी। ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान में कोई प्लैन क्रैश हुआ ही नहीं था। मुखर्जी आयोग तीन वजहों से गुमनामी बाबा को नेता जी करार नहीं देता। पहला उन्हें करीब से जानने वाले अब जीवित नहीं रहे। दूसरा यह कि उनका कोई फोटोग्राफ उपलब्ध नहीं है और तीसरा कि सरकारी फरेंसिक लैब ने उनकी हैंडराइटिंग और दांतों की डीएनए जांच की नेगेटिव रिपोर्ट दी।
1956 और 1977 में दो बार आयोग गठित किया। दोनों बार नतीजा निकला कि नेताजी प्लेन क्रैश में मारे गए। ताइवान, जहां यह हादसा हुआ, उस देश की सरकार से इन दोनों आयोगों ने कोई बात ही नहीं की। 1999 में मनोज कुमार मुखर्जी की अगुआई में तीसरा आयोग बना। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की, लेकिन भारत सरकार ने रिपोर्ट को नामंजूर कर दिया।
क्या कहते हैं रामभवन के मालिक
गुरुबसंत सिंह के बेटे शक्ति सिंह कहते हैं कि सरकार कम से कम इसी रहस्य से पर्दा उठाए कि मेरे मकान में रहने वाले गुमनामी बाबा नेताजी नहीं तो और कौन थे। फैजाबाद ट्रेजरी में गुमनामी बाबा से जुड़े जो सामान रखे गए हैं, उन्हें संरक्षित किया जाए। फैजाबाद में नेताजी सुभाष चंद्र बोस सेवा समिति के अध्यक्ष आशुतोष त्रिपाठी कहते हैं कि सबूत चीख-चीख कर कह रहे हैं कि गुमनामी बाबा ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे।
पुस्तकों से अभिन्नता
गुमनामी बाबा से नेताजी की अभिन्नता अनेक पुस्तकों में भी प्रतिपादित है। पहली पुस्तक ‘गुमनामी सुभाष’ के नाम से राम भवन में 17 सितंबर 1985 को गुमनामी बाबा के निधन के कुछ ही दिनों बाद प्रकाशित हुई। पुस्तक के लेखक अशोक टंडन हैं। स्थानीय पत्रकार के तौर पर टंडन की इस प्रकरण पर निकट की नजर थी। उन्होंने अपने समाचार पत्र के लिए गुमनामी बाबा से जुड़े सवालों को खूब खंगाला ही, बाद में समाचार पत्र के स्पेस को सीमित पाकर उन्होंने पुस्तक लिखी। इसमें बाबा के पास से बरामद दो हजार 760 नग सामान की बारीक पड़ताल है और इस आधार पर उनके नेताजी सुभाषचंद्र बोस होने की उम्मीद जताई गई है।
गुमनामी बाबा पर पड़े रहस्य के आवरण से दिल्ली निवासी पत्रकार अनुज धर इतने रोमांचित हुए कि उन्होंने न केवल मामले की विस्तार से रिपोर्टिग की बल्कि नेताजी और गुमनामी बाबा से जुड़े सारे सूत्रों और स्थलों का औचित्य निरूपित कर किताब लिख दी। किताब का नाम है ‘बैक फ्रॉम डेथ’। अनुज धर गुमनामी बाबा की हकीकत उजागर करने वाले अभियान से भी जुड़े हैं। सन् 2005 के आसपास एक और पुस्तक प्रकाशित हुई ‘भगवन जी से नेता जी तक’। पुस्तक का प्रकाशन सुभाषचंद्र बोस राष्ट्रीय विचार केंद्र के अध्यक्ष और रामभवन के उत्तराधिकारी शक्ति सिंह ने कराया। पुस्तक में राम भवन में गुमनामी बाबा के प्रवास के माध्यम से नेताजी की जीवनयात्र को परिभाषित करने की कोशिश हुई है। कई जानकारियों को आधार बनाकर बताया गया है कि नेताजी की विमान दुर्घटना में मौत की कहानी कल्पित थी और मित्र राष्ट्रों की सेना के आगे संयुक्त देशों के गुट की पराजय से नेताजी को निश्चित रूप से प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था।
जापान, ताइवान, साइबेरिया होते हुए नेताजी दुर्गम सफर तय करते हुए भारत आने में कामयाब रहे, पर यहां भी उन्हें राहत नसीब नहीं हुई। यह संभवत: छठे दशक का मध्य था। उस फोटोग्राफ को संयोजित किया गया है, जिसमें पं. नेहरू की चिता के निकट नेताजी जैसे चेहरे वाला शख्स नजर आ रहा है। नेहरू की मौत 1965 में हुई थी। पुस्तक में कश्मीर के शालमारी आश्रम से लेकर मप्र के नागदा आश्रम में नेताजी के होने की जानकारियों की भी समीक्षा कर्ी है, तो इटावा, लखनऊ, नैमिषारण्य, बस्ती, अयोध्या एवं फैजाबाद में प्रवास की पड़ताल की है। बाबा के पास से बरामद वस्तुओं की पड़ताल करते हुए यह सिद्ध करने की चेष्टा हुई है कि गुमनामी बाबा ही नेताजी सुभाषचंद्र बोस थे।
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