 संजय जोशी सजग।
संजय जोशी सजग।                          
एक बार एक शिष्य ने अपने गुरु से पूछा कि  जश्न किसे कहते हैं? गुरूजी बोले -अपने  वादे और सपने पूरे होने  के उपरांत ख़ुशी मनाने के लिए आयोजित  कार्यक्रम  को जश्न   कहा  जाता है   शिष्य ने  फिर प्रश्न  दागा कि  अगर राजा खुश है और प्रजा दुखी,  ऐसे  में जश्न मनाया जाता है उसे क्या कहेंगे? गुरूजी बोले  इसे तो ख़ुशी का ढिंढोरा पीटकर प्रजा के दुःख से मुंह मोड़ना कहेंगे ऐसे में प्रजा पर दुखों  का बोझ और बड़ जाता है ,असंतोष  की भावना का विकास होता है ,गुरूजी कहने लगे जश्न तो युगों युगों   से मनाते आ रहे है राजा ,प्रजा का धन पानी  की तरह  बहाते  हैं ,चमचों और चापलूसों  को उपहार और सम्मान  मिलता है और प्रजा यह सब नौटंकी मूक दर्शक बनकर देखती रहती है,  जश्न अपने परवान पर चढ़ता रहता है।  
गुरूजी ने जश्न को कुछ इस तरह बताया  कि सामाजिक व पारिवारिक  जश्न  हमें  सुकून देते है वहीँ  राजनीतिक  जश्न   का मतलब ,सजीवता का अहसास है समस्याओं का उपहास है अपने वादों का परिहास है। जश्न से जलवा बिखरता है और झूठ और निखरता है जश्न को नाकामियों का सौंदर्य शास्त्र  कहें , तो भी अतिश्योक्ति नहीं होगी।  
शिष्य ने पूछा कि  गुरूजी ऐसे जश्न का क्या लाभ? गुरूजी कहने लगे बेटा राजा अपनी खोती  चमक  को इससे पॉलिश करने की कोशिश करता है। शिष्य बोला देश में पानी की त्राहि -त्राहि मची हो ,कर्ज से पीड़ित किसान अपनी जीवन लीला समाप्त  कर  रहे हो  ,गुणवत्ता शिक्षा के अभाव में  छात्र अपनी जान  दे रहे है ,  महिलाये  कदम कदम असुरक्षित महसूस करती है ,खेती  चौपट,छोटे उद्योग आक्सीजन पर ,बड़े उद्योगों को भारी  छूट ,   बेरोजगारी , बड़ते अपराध ,पिटते पत्रकार ,नैतिक मूल्यों की गिरावट का जोर यह सब होते हुए भी जश्न जरूरी  होता है क्या?
गुरूजी भी शिष्य की प्यास नहीं बुझा  पा रहे थे  कहने लगे वत्स राजतन्त्र से प्रजातंत्र हुआ पर 
बाकि कुछ नहीं बदला ,राजा रजवाड़े भी अपनी इच्छा पूर्ति हेतु सब कुछ करते थे ,और प्रजातंत्र में भी वहीं  सब कुछ हो रहा है , और होता रहेगा ,जश्न पहले भी होते थे अब भी हो रहे है और होते रहेंगे जश्न ही तो हमारे विकास का आईना होता है ,अगर जश्न नहीं होगे तो प्रजा में सुखानुभूति का संचार कैसे होगा? अत: जश्न  हमे  संदेश देते हैं कि  जश्न ही तरक्की है ,जश्न ही सेवा , जश्न ही हमारा  फर्ज है। 
शिष्य गुरु जी को आँखें फ़ाड़ कर  देख रहा था,गुरु जी उसकी जिज्ञासा को शांत न कर पाने से विचलित थे कहने लगे वत्स समय का प्रवाह तुम्हे सब कुछ सिखा  देगा कि  जश्न का कितना महत्व है जब तुम पैदा हुए  थे  तुम्हारे   माता -पिता ने भी जश्न मनाया होगा ,सब मनाते हैं और बाद में कई पुत्र तो पिता के लिए दुःख का कारण बन जाते हैं। जश्न अपनी   जगह है ,जश्न और विकास में कोई संबंध नहीं है।जश्न हमे। वर्तमान में अत्यंत प्रसन्नता देता है, भविष्य में क्या होगा कोई नहीं जानता है। एक लोकोक्ति  के अनुसार  पूत के पांव पालने में ही दिख जाते है।
 
गुरूजी कहने लगे कि -राज और जश्न एक दूसरे के पूरक है जहां राजा है वहां जश्न है और जहां प्रजा है वहां प्रश्न हीं प्रश्न है। इन सब के उत्तर  काल  के गर्त में  समाये हुए है।  हमारा देश जश्न प्रधान देश बनता जा  रहा है ,हम छोटी -छोटी ख़ुशी में जश्न मनाकर यह सिद्ध करना चाहते है कि  हम बहुत खुश है और इसी  में कई गमों  को छुपाने का एक असफल प्रयास करते है ,सुना हुआ सच प्रतीत होता  है --सच्चाई छुप  नहीं सकती बनावट के उसूलों  से और खुशबु आ नहीं सकती कागज के फूलों से। जश्न  पर कई प्रश्न खड़े होते हैं और यक्ष प्रश्न की भांति रह जाते हैं। किसी ने कहा  है कि --
 चलिए जिंदगी का जश्न
कुछ इस तरह मनायें
अच्छा-अच्छा सब याद रखें
बुरा जो है सब भूल जायें !!    
आओ अच्छे के लिए नहीं  बुरा  भुलाने का  ही जश्न मनाएं।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                         " 
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