अमन आकाश।
आज विश्व साईकल दिवस पर खूब सारी तस्वीरें दिखी, रंग-बिरंगी साईकिलें, खूब महंगी वाली।
किसी में गियर दिखा तो किसी का पहिया मोटरबाइक जित्ता मोटा।
यह फैशन परेड वाली सायकिलें हैं, पूंजीवादी व्यवस्था की साईकिलें, इनकी सीट पर बैठो तो विशेष एंगल पर सामने झुके रहो।
इनपर 50-100 किलो चावल लाद दो तो करमजली भरभराकर बैठ जाए। कभी किसी दिन कीचड़ में यह फंस जाए तो विदेशी मैम वाले नखरे दिखाएंगी।
यह वही साईकिलें हैं जिसपर फोटो खिंचाकर सोशल मीडिया पर साईकल दिवस की बधाई दी जा सके।
असली साईकल तो था हमारा एटलस। हैंडल के मुठिया में ऑडियो कैसेट का रील बांधकर आशिक जब अपनी महबूबा की गली से घण्टी टुनटुनाता निकलता, तो घर में फेयर कॉपी बना रही महबूबा झट से खिड़की पर आ जाती।
आंखें लड़तीं और आशिक इसी साईकल के आगे वाले पाइप पर महबूबा को बिठाकर घुमाने के सपने देखने लगता।
किसी ने कह दिया कि भाभीजी की हंसी जूही चावला की तरह लगती है, आशिक दो रुपए में जूही चावला की फोटो आगे-पीछे दोनों मडगार्ड पर चिपका लेता।
किसी ने कहा लड़कियां मॉडर्न नाम वालों को ज्यादा पसंद करती हैं तो आशिक़ ने चेन कवर पर अपना नाम राजकुमार 'राज' लिखवा लिया।
जबकि पूरे महल्ले ने आजतक उसको 'रे रजकुमरा' के अलावा कुछ कहा नहीं होगा।
महबूबा की गलियों में जाने से पहले वो साईकल के स्पोक से लेकर रीम तक को सरेस से रगड़कर छुड़ाता।
हैंडल पर लगे छोटे से आईने में बार-बार मुंह देखकर अपने बाल संवारता, अपने सवारी को तनकर बिठाने वाली मैं उस साईकल दिवस की शुभकामनाएं देना चाहता हूँ।
यह वो साईकल हुआ करता था जिसपर बच्चे कैंची मारकर चलाना सीखा करते थे. यह वह
साईकल हुआ करता था जिसपर दादाजी आधा कुंटल आम तो 20-20 किमी से हंसकर ले आते थे।
यह वह साईकल था जिसकी हैंडल में लटके झोले में हमारे मिडिल स्कूल के हेडमास्टर साहब 400 बच्चों का भविष्य लेकर चलते थे।
यह वही साईकल था जिसके पीछे छुपकर मिथुन दा सैंकड़ो गोलियों से बच जाते, वो भी उस दौर में जब वो खोतरनाक कोबरा नहीं हुआ करते थे।
क्या अब भी वह साईकल बचा हुआ है, जिसपर एक छोटा परिवार आराम से बैठकर मेला घूमने जाया करता था।
माँ मूढ़ी-कचड़ी का पन्नी लेकर पीछे बैठी होती, पिता ज़ोर लगाकर पैडल खींचते और आगे पाइप पर बैठी बिटिया रानी घंटी बजाकर खिलखिलाकर हंस पड़ती थी।
लेखक हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय में पत्रकारिता में पीएचडी रिसर्चर हैं।
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