ध्रुव शुक्ल।
जिन बोलियों से मिलकर हिन्दी बनी, उनमें एक बुन्देली बोली भी है। इस बोली में ही कवि ईसुरी की कविता बसी हुई है। उनकी रची फागें बुन्देली अंचल में आज भी गायीं जाती हैं--- 'नई गोरी नए बालमा, नई होरी की झॉंक, ऐंसी होरी दागिओ तोरे कुल खौं नें आबे आंच'। ईसुरी की कविता में श्रृंगार, अध्यात्म और नीति की त्रिवेणी काव्य रसिकों को तृप्त करती आ रही है। प्रेम में डूबे ईसुरी अपनी प्रिया की हेरन-हॅंसन नहीं भुला पाते। वे मन को हरने वाली हरन मुनइयां खोजते फिरते हैं
मोरे मन की हरन मुनइयां आज दिखानी नइयां।
कै कऊॅं हुएं लाल के संगे, पकरी पिंजरा मइयां।
पत्तन-पत्तन ढूंढत फिरें हम, छिप गईं कौन डरइयां।
'ईसुर' उनके लानें हमने टोरीं सरग तरइयां।
हरन मुनइयां मन को मोहित करने वाली चिरैया को कहते हैं। प्रेयसी के प्रति ईसुरी यह उपमा देते हुए उसे पत्तों की ओट में खोजते हैं और आशंकित हैं कि कहीं किसी ने उसे अपने पिंजरे में बंद तो नहीं कर लिया। पता नहीं, वह किस वृक्ष की घनी शाखा में छिपी बैठी है। वे प्रिया के लिए आकाश से तारे तोड़कर ले आना चाहते हैं। ईसुरी के लिए यह वृक्ष उनका प्रेमपगा शरीर ही है जिसमें उनकी हरयाती कामना का प्रेम-देश बसा है।
कौन जाने कि उस प्राण-प्यारी का दरस-परस होगा कि नहीं! एक दिन इसके सारे पत्ते झर जायेंगे और उड़ जायेगा हंस अकेला। प्राण को निर्गुण साधक हंस कहते हैं। अपनी कवि-व्यथा का भार उठाते ईसुरी गाते हैं ---
हंसा फिरें बिपत के मारे, अपने देस बिना रे।
अब का बैठे ताल-तलइयाॅं, छोड़े समुद किनारे।
चुन-चुन मोती उगले उनने, ककरा चुनते बिचारे।
'ईसुर' कात कुटुम अपनें सें, मिलबी कौन दिना रे।
कवि ईसुरी को ये बखरी-रैयत में फंसी ज़िन्दगी ऐसी लगती है जैसे वे कुछ दिनों के किरायेदार की तरह इसमें रहने आ गये हैं। किसी दिन ये पिंजरा छोड़ यह मन का पंछी उड़कर न जाने कहाॅं चला जायेगा! दस दरवाजे के इस घर के न जाने किस द्वार से प्राण निकल जायेंगे। बस यह कहने को रह जायेगा कि --- ऐसा था ईसुरी ---
जिदना मन पंछी उड़ जानें, उरौ पींजरा रानैं।
भाई नें जैहै, बन्दु नें जैहै, हंस अकेलौ जानैं।
ई तन भीतर दस दरवाजे, कॉं होकैं कड़ जानैं।
कैबेखौं हो जैहै 'ईसुर' ऐंसे हते फलाने।
कवि ईसुरी उस वाणी को पाना चाहते हैं जो किसी रहस्यमय नाद में बसी है और अब तक किसी ने जानी नहीं है। जो इस वाणी के शब्द और अर्थ का सही जोड़ मिला सके वही तो ज्ञानी कवि है ऐंसी बोलो कौंनऊॅं बानी, ना काऊ की जानी।
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