विष्णु नागर।
हर कोई कहता है,इस पर राजनीति करना ठीक नहीं, उस पर राजनीति करना उचित नहीं।कोई कहता है, कुर्सी पर राजनीति मत करो, कोई कहता है, मुझे सोफे और एयरकंडीशंड पर राजनीति कतई बर्दाश्त नहीं।
कोई कहता है क्या राजनीति का स्तर इतना गिर गया है कि अब मुझे फलां बंगला न मिले, इस पर राजनीति होगी? कोई कहता है मैं विदेशी व्हिस्की के अपने ब्रांड पर राजनीति पसंद नहीं करता, कोई कहता है, सोडे, बर्फ और काजू पर भी अब राजनीति होने लगी है,हद है!
राजनीति में नहीं-नहीं इतना अधिक है कि हाँ-हाँ तो जैसे है ही नहीं।
अरे भाई गरीबी-बेरोजगारी-महंगाई जैसे 'फालतू' मसले छोड़ो, अगर तुम्हें विदेशी व्हिस्की और बर्फ पर राजनीति करना तक पसंद नहीं तो फिर क्योंं हो राजनीति में छोड़ो इसे!
अगर राजनीति इतनी ही 'टुच्ची' और 'गंदी' चीज है कि इसे कुर्सी, सोफे और व्हिस्की और काजू पर करना तक 'अपराध' हो चुका है, तो राजनीति के लफड़े में तुम खुद क्यों पड़ते हो और हमें क्यों पड़वाते हो?
छोड़ो राजनीति करना और भजन करो और मान लो मेरी तरह तुम भजन नहीं कर सकते तो टीवी देखो,हालांकि राजनीति करोगे नहीं तो राजनीति होगी भी नहीं तो फिर देखोगे क्या-अपना सिर,जो वैैसे भी गोबरभरा है,जो इतनी बदबू देता है कि उससे कंडे भी थापे नहीं जा सकते!
और जो राजनीति तुम कल तक किया करते थे,मान लो तुम्हारे अभाव में दूसरा खिलाड़ी तुमसे बढ़िया निकला तो तुम्हीं बताओ,तुम पर क्या-क्या और कहाँ-कहाँ नहीं बीतेगी?
तुम्हारा तो सारा राजनीतिक करियर चौपट हो जाएगा और उसे अगर चौपट करना ही है तो आराम से सास-बहू टाइप सीरियल देखो मगर वहाँ पति-पत्नी के बीच राजनीति शुरू हो जाएगी।
पत्नी को जो सीरियल पसंद होगा,वह तुम नहीं देखोगे क्योंकि वह पत्नी को पसंद है। वह भी वह सीरियल क्यों देखना छोड़ेगी, जो वह पिछले चार साल से नित्यप्रति देख रही है और जिसके हर पात्र को वह तुम से ज्यादा अपने घर का सदस्य मानती है?
वह उस सीरियल के लिए पति को छोड़ सकती है मगर सीरियल को नहीं और तुम उस सीरियल को देखने की बजाय पत्नी को छोड़ना पसंद करोगे क्योंंकि उसे और तुम्हें कोई वजह तो चाहिए एकदूसरे को छोड़ने की! वहाँ भी वही समस्या रहेगी,जो राजनीति में रहती है।
लेकिन राजनीति में रहकर, राजनीति करने का फायदा यह है कि घर के फ्रंट पर स्थाई शांति बनी रहती है।
वह अपने पारिवारिक- से सीरियल में मस्त रहती है,तुम अपने राजनीतिक-से सीरियल में लथपथ।
दोनों के अपने-अपने अलग-अलग टीवी हैं और अपने-अपने दूर-दूर कमरे भी और अपने-अपने सीरियल भी और उन्हें देखने के अलग-अलग टाइम भी। कोई किसी से दूर-दूर तक नहीं टकराता।
वैसे भी राजनीति के फ्रंट पर शांंति, राजनीति के हित में तो होती ही नहीं, स्वहित में भी नहीं होती लेकिन घर के फ्रंट पर शांति का लाभ पति-पत्नी को परस्पर मिलता है। दोनों एकदूसरे को समृद्ध और पुष्ट करते हैंं। इससे यह फिल्म इयर आफ्टर इयर चलती रहती है।
मुुुनाफे पर मुनाफा होता रहता है, राजनीति पारिवारिक बिजनेस बन जाती है,जो बिजनेसों का बिजनेस है,जहाँ बिजनेस- सम्राट बनने के पूरे चांस हैं!
और वैसे भी राजनीति आखिर होती किसलिए है, करने के लिए ही तो!
इसके एक से एक सूरमा आज उपलब्ध हैं, उन्हें तीन का पहाड़ा नहीं आता मगर राजनीति ऐसी 'बढ़िया' आती है कि गाँधी जी -नेहरू जी- पटेल जी की राजनीति इनके आगे प्राइमरी स्कूल की राजनीति लगने लगती है।
ये बालू का ऐसा ताजमहल खड़ा करते हैं कि जिसने भी उसमें कदम धरा कि वह जिंदगी से भी गया।
यही हाल आज भक्तों और गैरभक्तों दोनों का एकसाथ हो रहा है।
फर्क यह है कि यह स्वीकार करने के लिए भक्त उपयुक्त समय का इंतजार कर रहे हैं और गैरभक्त जितना इंतजार करना था,कर चुके हैं!
लेखक देश के जानेमाने पत्रकार हैं।
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