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यह आंदोलन कई दृष्टि से इतिहास में जगह बनायेगा

खरी-खरी            Dec 18, 2021


श्रीकांत सक्सेना।
एक वर्ष से अधिक चले किसान आंदोलन का अब अवसान हो रहा है। यह आंदोलन अनेक दृष्टि से भारत के इतिहास में अपनी जगह बनाएगा। सबसे पहले तो यह कि इससे पहले इतनी बड़ी संख्या में और इतने दिनों तक कोई किसान आंदोलन नहीं चला।

दूसरा यह कि किसानों ने रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण सरकारी प्रचार-कुप्रचार का बेहद सफलतापूर्वक सामना किया और अपने आंदोलन को सरकारी प्रोपेगेंडा का शिकार नहीं होने दिया।

(सोशल मीडिया,नये मीडिया प्लेटफार्म्स ने आंदोलनकारियों की आवाज़ को निरंतर स्थान दिया अन्यथा सरकारी प्रचार के थपेड़ों को झेलना मुश्किल हो सकता था।)

तीसरे इस आंदोलन ने समाज में विशेषकर कृषि से संबंधित सभी संस्तरों में व्यापक राजनीतिक चेतना व पूँजी पर केन्द्रित नई विश्व व्यवस्था के विरुद्ध अभूतपूर्व जाग्रति पैदा की है,जो लोकतंत्र की बुनियादी प्रस्थापना के अनुरूप तथा अनिवार्य है।

चौथा सफल सामूहिक नेतृत्व की दृष्टि से भी इस आंदोलन को याद रखा जाएगा। पाँचवाँ और अंतिम यह कि इस आंदोलन के गर्भ से अब बड़ी संख्या में जुझारू कार्यकर्ता, संगठनकर्ता व युवा निकलेंगे जिनके पास अभूतपूर्व चेतना होगी और जिन्हें आसानी से सरकारी प्रताड़ना से भयभीत नहीं किया जा सकेगा।

आंदोलन के नेतृत्व ने लंबी अवधि तक चले संघर्ष के दौरान तुरंत निर्णय लेकर सत्तारूढ़ दल पर दबाव बनाने के लिए अनेक तदर्थ यानि झटपट क़दम भी उठाए, जिनके परिणाम आंदोलनकर्मियों के पक्ष में गए तथा सत्तारूढ़ दल को कमजोर करने वाले रहे।

कुछ राज्यों के चुनावों के निर्णयों में किसान आंदोलनकर्मियों की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही।

धैर्यपूर्वक और दूरदर्शिता के साथ चला यह आंदोलन संभवत: कुछ अन्य देशों के लिए भी एक मिसाल बनकर उभरेगा। क्योंकि नई विश्व व्यवस्था अभी शक्ल ले रही है।

जिसमें इस ग्रह के संपूर्ण संसाधनों का संकेंद्रण कुछेक हाथों तक ही सीमित रह जाने के स्पष्ट संकेत हैं। लगभग सभी देशों की सरकारें उनके लिए ही काम करती नज़र आएँगी। अधिसंख्य आबादी मनुष्य से निचले स्तर पर जीते रहने के लिए बाध्य होगी।

हमेशा की तरह इस संपूर्ण क्रम को बनाए रखने के लिए एक दलाल वर्ग या मिडिल क्लास भी भले ही रहे लेकिन वह भी मानवीय गरिमा से वंचित रहेगा। इस वर्ग का इस्तेमाल आधुनिकतम तकनीक के ज़रिए लोगों को शक्तिहीन व राजनीतिक रूप से निष्प्रभावी बनाए रखने में किया जाएगा।

आंदोलन की इन उपलब्धियों के अतिरिक्त मेरी दृष्टि में आंदोलनकारियों के पास 'जीत' जैसा कहने के लिए कुछ भी ठोस नहीं है। जिन तीन क़ानूनों को वापस लिए जाने को किसानों की 'जीत' और सरकार का 'घुटनों पर आना' कहा जा रहा है,उनके वैसे ही परिणाम सरकार द्वारा इन क़ानूनों के बिना भी हासिल किए जा सकते हैं।

कृषि मूलत: राज्यों का विषय है और अनेक राज्यों में सत्तारूढ़ दल की सरकारें हैं। जोतों के आकार तथा कृषि विकास की दृष्टि से भी विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक असमानताएँ हैं। सरकार जब चाहे इन स्थितियों का लाभ उठाकर अपने स्वामियों का विश्वास बनाए रख सकती है।

याद रहे आज भी मंडी व्यवस्था में उत्पादक किसान की भूमिका हाशिए पर ही है। न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर सरकार की ओर से कोई आश्वासन नहीं दिया गया है। सरकार ने कृषि विशेषज्ञों,सरकार,तथा किसानों के प्रतिनिधियों को लेकर जिस कमेटी की बात कही है उसमें उल्लिखित किसान प्रतिनिधियों में कुछ लोग संयुक्त किसान मोर्चे के भी लिए जाने की बात कही है।स्पष्ट है संयुक्त किसान मोर्चे की इसमें कोई प्रभावी भागीदारी नहीं होगी।

आंदोलन के दौरान किसानों पर लगे मुक़दमों को वापस लिया जाना राज्यों के हाथ में है। केंद्र सरकार ने जो मुक़दमे अपनी ओर से लगाए उन्हें भी वापस लेने का आश्वासन है। माना जा सकता है कि इन मुक़दमों को वापस लेने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।

किसी भी आंदोलन की समझौते के बाद हुई समाप्ति पर पहला समझौता यही होता है।

हालाँकि आंदोलन के स्वरूप व विस्तार को देखते हुए यदि राज्य सरकार या केंद्र सरकार चाहे तो यह कहकर अड़ सकती है कि फ़लाँ व्यक्ति पर लगा मुक़दमा आंदोलन के दौरान या आंदोलन के कारण नहीं है। आंदोलन की अवधि के दौरान लगभग सात सौ किसानों की शहादत की बात आंदोलनकारियों ने की है।

सरकार तर्क दे सकती है कि सरकार ने आंदोलनकारियों पर बल प्रयोग किया ही नहीं इसलिए तथा जो लोग मौसम या अन्य कारणों से मारे गए उन्हें मुआवज़ा नहीं दिया जा सकता।

वैसे भी इस मामले में सहमति सैद्धांतिक है और इसे सशर्त सहमति भी कहा जा सकता है।

बिजली बिल को लेकर भी मात्र इतना आश्वासन है कि सभी पक्षों से बातचीत करके जिसमें किसानों और संयुक्त मोर्चे के प्रतिनिधि भी होंगे,सरकार कोई बिल संसद में पेश कर सकती है। इसमें किसानों को किसी प्रकार के तदर्थ लाभ की बात नहीं है।

पराली जलाने को आपराधिक कृत्य मानकर किसानों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं की जाएगी। इसे जो लोग 'जीत'मानना चाहें,वे इसे जीत मान सकते हैं।

लखीमपुर खीरी कांड के बाद गृहराज्य मंत्री के इस्तीफ़े आदि की माँग का कहीं ज़िक्र किया ही नहीं गया है। इसका कुछ अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि समझौते का मसौदा तैयार  किए जाने के दौरान संयुक्त मोर्चे के किसी भी प्रतिनिधि की सरकार के किसी मंत्री या अधिकारी की सीधे मुलाक़ात तक नहीं हुई।

जन आंदोलनों के स्पष्ट लाभ प्राय: दिखाई नहीं देते। लेकिन प्रत्येक आंदोलन बहुत बड़ी संख्या में ऐसे जुझारू नौजवान दे जाता है जिनके ऊपर भविष्य में सरकार के शक्ति प्रयोग का भय नहीं रहता।

आज के अनेक राजनेता किसी न किसी आंदोलन के गर्भ से ही उत्पन्न हुए हैं।

लोकतंत्र की सफलता इस बुनियादी प्रस्थापना पर टिकी होती है कि लोगों में शासन में सक्रिय भागीदारी की क्षमता व सामर्थ्य है। आम जन अपनी समझदारी,सामर्थ्य और क्षमता प्रदर्शन आंदोलनों के ज़रिए ही करते हैं। इस सरकार ने पहली बार आंदोलनकारियों के समक्ष स्पष्ट रूप से क्षमायाचना की है।

इसके कारण भले ही उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में होने वाले चुनाव हों लेकिन इससे यह संदेश तो जन-जन तक पहुँचा ही है कि संगठित प्रतिरोध का सामना करना मज़बूत से मज़बूत सरकार के लिए भी मुश्किल होता है।

उम्मीद करें कि भारतीय लोकतंत्र संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र ही नहीं होगा बल्कि संसार का सबसे शानदार लोकतंत्र भी होगा।

जिस नई विश्व व्यवस्था पर चढ़कर कुछ लोग विश्व विजय पर निकले हैं,उनके विजयरथ की गति ऐसे आंदोलनों से मंद अवश्य होगी। शुभमस्तु।

 



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