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फिल्म समीक्षा : मेट्रो इन दिनों टॉक्सिक प्यार में फंसे अनुराग बसु के मेट्रो कपल्स

पेज-थ्री            Jul 05, 2025


डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।

इस फिल्म का सूत्र वाक्य है - फॉलिंग आउट ऑफ लव इज़ नॉर्मल !... लेकिन इसमें प्रेम कहानियां हैं।   मेट्रो के उच्च मध्यवर्गीय परिवारों  में जो सबसे बड़ी समस्या है वह यह  है कि सभी जोड़ियां टॉक्सिक प्यार के लफड़े में  हैं। न उम्र की सीमा, न धर्म का बंधन !  प्यार मैन कोर्स जैसा और बाकी सब डेज़र्ट ! बुढ़ापा बेसहारा होता है और जवानी अकेली ! हर व्यक्ति का एक ही लक्ष्य है - प्यार, शादी, बच्चे और रिप्रोडक्शन!  सबको खुश रहने का हक है और इसके लिए सब कुछ जायज है, अगर किसी को कष्ट नहीं हो तो !  जहां किसी का किसी पर हक नहीं होता, वहां मोहब्बत होती है शक नहीं होता ! फिल्म में और एक और सूत्र वाक्य है - शादी कुछ सिखाये या न सिखाये,  एक्टिंग जरूर सिखा देती है !

मेरी बात लगी न कॉम्प्लिकेटेड! फिल्म ऐसी ही है! इमोशनल, रिलेशनशिप बेस्ड म्यूजिकल ड्रामा ! चार जोड़ियां हैं। सबकी सेम प्रॉब्लम !फॉलिंग आउट ऑफ़ लव ! आदित्य रॉय कपूर और सारा अली खान  एक युवा जोड़े की कहानी, जो आधुनिक रिश्तों में सोशल मीडिया और कमिटमेंट की जटिलताओं से जूझ रहा है। पंकज त्रिपाठी और कोंकणा सेन शर्मा एक मिडिल-एज शादीशुदा जोड़ा, जिनके रिश्ते में बोरियत और बेवफाई की समस्याएं उभरती हैं। 

अली फजल और फातिमा सना शेख लॉन्ग-डिस्टेंस रिलेशनशिप में फंसे एक जोड़े की कहानी, जहां करियर, प्यार और बच्चे के बीच संतुलन की जंग है। अनुपम खेर और नीना गुप्ता: बुजुर्ग जोड़े की कहानी, जो यह दर्शाती है कि उम्र के किसी भी पड़ाव पर प्रेम संभव है। ये सभी लोग मेट्रो शहरों के शानदार घरों में रहते हैं, बढ़िया खाते-पहनते हैं।  आम आदमी जैसी कोई चिरकुट समस्या उनको नहीं है।

इतने पात्र हैं तो इतनी कहानियां  भी  हैं।  इन सभी चरित्रों को इंट्रोड्यूज़ कराने में ही काफी वक्त निकल जाता है।  इंटरवल के बाद फिल्म धीमी लगती है, मगर फिर क्लाइमेक्स राहत देता है। फिल्म में गानों की भरमार है।  हॉलीवुड म्यूजिकल की तरह प्रीतम, पापोन और चैतन्य राघव के गीत-संगीत को सूत्रधार के रूप में इस्तेमाल किया है, तो ये ही फिल्म में छाए रहते हैं।  हर कहीं, हर कभी गाना शुरू हो जाता है, जो थका देता है। 

फिल्म रिश्तों की सच्चाई या झूठाई, मेट्रो लाइफ की तन्हाई और जज्बातों को सादगी और भावुकता के साथ बयान करती है। यह अलग-अलग उम्र के लोगों के रिश्तों की जटिलताओं को दिखाती है. अनुराग बसु ने अपनी खास शैली में रिश्तों की जटिलताओं को सादगी के साथ पेश किया है। उनकी कहानी कहने की कला किरदारों को मानवीय और रिलेटेबल बनाती है। 

अगर आपको  शहरी जीवन और रिश्तो की गहराई को समझना चाहते हैं तो यह फिल्म आपको पसंद आएगी लेकिन एक्शन पसंद करने वालों को यह फिल्म धीमी लगेगी।  फिल्म में परदे पर इरफ़ान खान और केके मेनन को भी याद किया गया। अगर इरफ़ान होते तो मोंटी का  रोल  उनका होता, जिसे पंकज त्रिपाठी ने निभाया है। केवल कोंकणा सेन हैं, जो  2007 में बनी  इसकी पहली सीक्वल लाइफ इन मेट्रो में थी। फिल्म लम्बी है, करीब पौने तीन घंटे की, फिर भी कुछ किरदार अधूरे लगते हैं। 

देखनीय  (लेकिन कुछ शर्तों और नियमों के साथ !)

 


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