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केजरीवाल: सपने जगाती राजनीति का एक बरस

खरी-खरी            Feb 13, 2016


punya-prasoon-vajpaiपुण्य प्रसून बाजपेयी मई 2014 में विकास का मंत्र नरेन्द्र मोदी ने फूंका तो पीएम बन गये। नौ महीने बाद स्वराज का मंत्र अरविन्द केजरीवाल के फूंका तो फरवरी 2015 में दिल्ली के सीएम बन गये और नवंबर 2015 में सामाजिक न्याय का मंत्र लेकर नीतीश कुमार निकले तो बिहार की गद्दी से उन्हें कोई उखाड़ ना सका। तो देश के सामने तीनों मंत्र फेल हैं या फिर देश अब भी राजनीतिक विकल्प के लिये भटक रहा है। जाहिर है यह सवाल तब कहीं ज्यादा मौजूं हो चला है जब केजरीवाल की सत्ता के एक बरस पूरे हो रहे है। तो आंदोलन से संसदीय राजनीति को हिलाने वाले केजरीवाल की राजनीतिक सत्ता के एक बरस पूरे होने पर कई सवाल हर जहन में उठेंगे। जहन में उठेगा ठीक एक बरस पहले। इतिहास रचते हुये इतिहास बदलने की आहट समेटे जनादेश। जहन में उठेगा ताज उछालने और तख्त गिराने का जनादेश। भारत की राजनीति में विकल्प की आहट समेटे दिल्ली का जनादेश जिसने संकेत यही उभारे कि आने वाले वक्त में सत्ता सेवक होगी। सेवक सरोकार की सत्ता को महत्ता देंगे और सरोकार उस स्वराज से उपजेगा जिसमें सत्ता और सडक के बीच वाकई जनपथ होगा, जिसपर चलते हुये आम आदमी आजादी की दूसरी लडाई को अंजाम देगा। पूंजी की सत्ता पर टिकी राजनीति बदलेगी, चुनाव लड़ने के तौर तरीके बदलेंगे, यह सपने दिल्ली ने जगाये। arvind-kejariwal-anna-hazare इन सपनों को अन्ना हजारे ने पंख दिये, तो अरविन्द केजरीवाल ने जनादेश के आसरे सत्ता की उड़ान भरी। लेकिन बरस भर पहले की यह आहट बरस भर में कहां कैसे और क्यों थम गई? बरस भर पहले का एहसास इंडिया की हथेली पर रेंगती राजनीति के तौर तरीकों को बदलने वाला था और बरस भर बाद का एहसास दिल्ली में सिमटे भारत की न्यूनतम जरुरतों को पूरा करने की ही जद्दोजहद में जा फंसा। बरस भर पहले का सियासी पाठ पूंजी में कैद नागरिकों के अधिकारो को दिलाने का था। तब नारा स्वाराज का था और बरस भर बाद पूंजी ही सत्ता की जमीन बन गई। lalu-yadav-and-arvind-kejariwallalu-mamta-arvind-nitish-gandhi-maidan तो नारा एक साल बेमिसाल पर आ टिका और बेमिसाल बनने की यात्रा में जिन फैसलों ने कंधा दिया उनमें योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को पार्टी से निकालकर अपने चेहरे को बदलना भी था। पार्टी कैडर को प्रशासन चलाने में रोजगार देना भी था। खुद भ्रष्ट ना होने की एवज में अपना ही वेतन बढ़ाना भी था। वोट बैंक को सत्ता तले महफूज कराना भी था और -ईमानदार होने की अपनी परिभाषा तले गढ़ना भी था। जिससे अपने भ्रष्ट मंत्री ही कभी शहीद नजर आयें तो कभी खुद के फैसले को ही ईमानदार करार देने पर फख्र महसूस किया जा सके और बरस भर में कहीं किसान, तो कहीं सिपाही ,तो कहीं मुस्लिम तो कहीं दलित के मुद्दों की ताप तले खुद को खड़ा कर विकल्प की राजनीति को वोट बैंक तले दफन करने की सोच भी जागी। जिसने कभी ममता बनर्जी, तो कभी नीतिश कुमार का हाथ थामा तो कभी लालू यादव से गले मिलकर हाथों में हाथ थामने को झटका भी नहीं और परहेज से इंकार भी किया। add-aam-admi-party यानी बरस भर बाद आज आम आदमी पार्टी उसी कतार में खड़ी नजर आ रही है जिसे बरस पूरा होने पर विज्ञापन बांटने है। इंटरव्यू से अपनी सफलता बतानी है, संपादकों को भोज देकर खुश करना है, तो क्या 10 फरवरी 2015 के जनादेश का फैसला अब सत्ता के रंग में रंग चुका है। या फिर केजरीवाल के कई निर्णयों ने उस संसदीय राजनीति को आईना दिखा दिया जो आवारा पूंजी के आसरे ही देश को चलाना महत्वपूर्ण मानती रही। क्योंकि मोहल्ला क्लीनिक का निर्माण सस्ते में पुल बनाकर उससे बचे धन से मुफ्त दवाईयां बांटना, 700 लीटर पानी मुफ्त देना ,400 यूनिट बिजली पर आधा बिल लेना, न्यूनतम मजदूरी दुगुना कर देना, लेबर लॉ का उल्लंघन की सजा बढ़ाकर पांच बरस जेल और 50 हजार तक कर देना, जनता की मांग पर बीआरटी कारिडोर तोड़ देना, पर्यावरण के लिये ग्रीन टैक्स लेना, स्कूल में एडमिशन पारदर्शी बनाने के लिये स्कूल प्रबंधन के रैकेट को तोड़ना। यानी पहले बरस के यह ऐसे निर्णय हैं जो वेलफेयर स्टेट की सोच को पुनर्जीवित करते हैं। यानी निजीकरण के दौर में जब यह सवाल बड़ा हो रहा है कि शिक्षा से लेकर हास्पिटल तक और पीने के पानी से लेकर रोजगार तक तो निजी हाथो में है, तब कोई भी सरकार सिवाय पूंजी पर टिके सिस्टम को सुरक्षा देने या नीतिगत फैसलों से पूंजी लगाने वालो को मुनाफा कमाने के लिये माहौल तैयार कराने के अलावे और क्या कर क्या सकती है। सीधे समझे तो उपभोक्ताओं के लिये बेहतरीन बाजार के अलावे आर्थिक सुधार के अलावे दूसरी कोई सोच भी नहीं है। इसीलिये विकास शब्द भी पूंजी पर जा टिका है और दिल्ली में भी जब किसी योजना को लेकर सवाल पूंजी का आया तो केजरीवाल फेल हो गये। क्योंकि वादे के बावजूद 20 कालेज खोलना और पूरे शहर में सीसीटीवी लगाने के लिये पूंजी चाहिये और केजरीवाल पूंजी के जरीये विकास के मोर्चे पर फेल हैं तो सालभर बाद भी ना कॉलेज खुल पाये ना सीसीटीवी लग पाये। लेकिन न्यूनतम जरुरतों को पूरा करने के लिये विकास शब्द या उसके नाम पर पूंजी नहीं बल्कि सामाजिक जागरुकता चाहिये और देश की राजनीतिक सत्ता अगर इसी मोर्चे पर फेल हो रही है, तो केजरीवाल इसी मोर्चे पर कांग्रेस या बीजेपी पर भारी लगते हैं। लेकिन समझना यह भी होगा कि दिल्ली सामाजिक सरोकार पर कम और रोजगार पाने वाले शहर की सोच पर ज्यादा टिकी है। यानी यहां किसी भी दूसरे राज्य सरीखा सामाजिक सरोकार नहीं है। जिसकी गांठों में फंसकर बीजेपी बिहार चुनाव गंवा देती है और दिल्ली में विकास की उस लकीर पर चलना चाहती है जो न्यूनमत का संघर्ष करने वालो के ऊपर खिंचा जाता हो। इसलिये बरस भर में भी कई केजरीवाल ने खुद को छोटा-आम आदमी ही बताया। लेकिन केजरीवाल के बरस भर की सियासत देश के लिये वैसी ही सोच है जैसे गुजरात माडल देश का मॉडल नहीं हो पाया। तो केजरीवाल की दिल्ली की समझ भी राष्ट्रीय नेता नहीं बना सकती। नेता के ईमानदारी को लेकर बोल हर किसी को जंचते हैं, इसीलिये केजरीवाल बरस भर में दर्जनों बार यह कहने से नहीं हिचकते कि दिल्ली में भ्रष्टाचार नहीं होगा। लेकिन भ्रष्टाचार के आरोप लगने पर उसे कैसे अपने पल्ले से झाड़ना चाहिये यह हुनर जरुर बीते एक बरस में नजर भी आया। क्योंकि केजरीवाल के मंत्री तोमर फर्जी मार्कर्शीट में फंसे तो दूसरे मंत्री असीम अहमद पैसे के लेनदेन के स्टिंग में फंसे और केजरीवाल ने दोनो मामलों में बड़े हुनर के साथ पल्ला झाड़ा। लेकिन इसी एक बरस में दो दाग ने बडी तीखी सियासत भी जगायी और सियासत को मरता हुआ भी देखा। former-gazendra-arvind-kejariwal मसलन बीते साल 22 अप्रैल को दौसा के किसान गजेन्द्र ने जंतर मंतर पर आम आदमी पार्टी की रैली के दौरान खुदकुशी की तो सवाल आम आदमी पार्टी के नेताओँ की संवेदनहीनता पर भी उठे और 15 दिसंबर को अरविंद केजरीवाल के प्रधान सचिव राजेन्द्र कुमार के दफ्तर पर छापा पड़ा तो सवाल सीएम की साख पर भी उठे। तोता बन चुके सीबीआई कैसे राजनीतिक सत्ता का हथियार है इसे भी सियासी ढाल बनाया गय। गजेन्द्र किसान को नहीं बचाया जा सका और फिर दिल्ली पुलिस और आम आदमी पार्टी के नेताओं के बीच जमकर आरोप-प्रत्यारोप का खेल हुआ। अब दिल्ली पुलिस आप नेता संजय सिंह, कुमार विश्वास, भगवंत मान और आशीष खेतान को जांच में हिस्सा लेने के लिए ठीक साल पूरा होने के वक्त ही तलब कर रही है। उधर, दिल्ली हाईकोर्ट ने सीबीआई को इस बात का अधिकार दे दिया है कि वह मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के प्रधान सचिव राजेंद्र कुमार के दफ्तर पर मारे गए छापे के दौरान जब्त दस्तावेजों को अपने पास रख सके। यानी हर मुद्दे का सियाकरण और हंगामा बरस भर दिल्ली को एक ऐसी पहचान भी दे गया, जहां दिल्ली सियासत के आगे देश की सियासत भी छोटी दिखायी दी। इसीलिये 70 सीटों में 67 जीत जीतने वाले केजरीवाल के 70 वादो की फेरहिस्त में कितने पूरे हुये कितने नहीं यह सवाल छोटा पड गया और यह सवाल बड़ा होता चला गया कि दिल्ली देश की सियासत में वाकई विकल्प है या हुडदंग। क्योंकि बरस भर में आम आदमी पार्टी या कहे केजरीवाल वहीं चूके जिस जमीन पर खडे होकर वह राजनीतिक सत्ता के लिये कूदे। क्योंकि सत्ता पाने के बरस भर बाद भी स्वराज बिल पास हुआ नहीं और लोकपाल बिल पास होकर भी अटका हुआ है।


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