
हेमंत कुमार झा।
प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत दुनिया में 140 वें स्थान पर है, बांग्लादेश का स्थान भारत से थोड़ा नीचे है जबकि पाकिस्तान तो और बहुत नीचे 161 वें स्थान पर है।
यानी, दुनिया में लोग जिस तरह कमा खा रहे हैं, एक अच्छे लेवल का जीवन जी रहे हैं, उससे बेहद खराब हालत में, निहायत ही गरीबी में इन तीनों देशों की बहुसंख्यक आबादी अपना जीवन जी नहीं रही, बल्कि ढो रही है।
दुनिया के 100 सबसे अच्छे शैक्षणिक संस्थानों की लिस्ट में इन तीनों देशों के किसी एक भी संस्थान का नामों निशां नहीं है। बल्कि 200-300 की लिस्ट में भी कोई नाम ढूंढिए तो अक्सर ढूंढते ही रह जाएंगे।
बिना सही इलाज के मरने वालों की लिस्ट में इन तीनों देशों के लोग दुनिया की लिस्ट में खूब खूब ऊपर हैं।
सार्वजनिक परिवहन में फजीहतों की बात करें तो इन तीनों देशों की आम आबादी और जानवरों में अंतर करना मुश्किल हो जाए। इस मामले में इन तीनों देशों की सरकारों में अपने गरीब नागरिकों, जिनकी ही बहुतायत है, के प्रति न कोई जिम्मेदारी की भावना है, न लाज है, न शर्म है, न दया है। भारतीय रेल की जेनरल बोगी में लोग कैसे मनुष्यता की न्यूनतम गरिमा खो कर बाकायदा ढोर बकरी की तरह सैकड़ों मील की यात्रा करते हैं यह रोजाना का दृश्य है।
तब, जबकि रेल विभाग उनसे कहीं आने जाने का बाकायदा निर्धारित किराया वसूलता है। लेकिन, सीट देने की कोई जिम्मेदारी नहीं। न कोई उपभोक्ता कानून यहां काम करता है, मनुष्यता के नैसर्गिक कानूनों की तो बात ही छोड़िए। पाकिस्तान की जेनरल बोगियां भी अपने बड़े भाई का अनुकरण करती है जबकि बांग्लादेश की ट्रेनों के भयानक दृश्य यूट्यूब वीडियोज में देख कर तो कलेजा कांप जाता है।
उपभोक्ता प्रधान इस उत्तर औद्योगिक युग में जो ऊंचे,बल्कि बहुत ऊंचे मूल्य नहीं चुका सकता वह मनुष्य की तरह जीने की नहीं सोच सकता। सरकारें मनुष्य के बारे में सोचने की जहमत से दूर होती जा रही हैं। वे या तो कॉर्पोरेट घरानों के लिए सोच रही हैं या या उपभोक्ताओं के बारे में सोच रही हैं। जो उपभोक्ता नहीं वह मनुष्य नहीं।
तो...भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश की बहुसंख्यक जनता क्वालिटी इलाज और क्वालिटी शिक्षा से महरूम तो है ही, मनुष्य होने की न्यूनतम गरिमा से भी महरूम है।
कहीं से कोई संकेत नहीं मिलता कि इन तीनों देशों में अपनी जिंदगी और अपनी तकदीर बदलने की कोई छटपटाहट हो। इन देशों के इलीट लोग अब यह मान कर चलते हैं कि अगर इन गरीबों के न्यूनतम अधिकारों की बातें होंगी तो इसकी एक कीमत उन्हें भी चुकानी होगी। मसलन, सर्द शाम, तीखी धूप और धुंआधार बारिश में भी अलर्ट मोड में इलीटों के ड्राइंग रूम तक बिरयानी, चीनी चायपत्ती से लेकर तमाम उपभोक्ता वस्तुएं पहुंचाने वाले जोमैटो, स्विगी, ब्लिंकिट, फ्लिपकार्ट, अमेजन आदि के डिलीवरी पर्सन के पारिश्रमिक का बढ़ना इन इलीटों के हितों के साथ सीधा टकराव है।
जाहिर है,कंपनियां उपभोक्ताओं के साथ हैं क्योंकि उपभोक्ता हैं तो कंपनी है। मजदूरों का क्या है, भूख गरीबी से जूझती बड़ी आबादी के इन देशों में वे तो एक बुलाओ, तेरह आएंगे की मुद्रा में खड़े हैं।
बाजार की ग़लाकाट स्पर्द्धा में कंपनियां लाभ को उपभोक्ताओं के साथ बांटना चाहती हैं ताकि अधिक से अधिक उपभोक्ता उनसे जुड़े। इस प्रक्रिया में वे श्रम अधिकारों का उल्लंघन तो करती ही हैं, मनुष्यता की न्यूनतम गरिमा का उल्लंघन करने में भी उन्हें अधिक परहेज नहीं।
कंपनियां उपभोक्ताओं के साथ हैं और सरकारें कंपनियों के साथ हैं। दो तिहाई आबादी के साथ तो खुद यह आबादी भी नहीं।
रिपोर्ट में देख रहा था कि बांग्लादेश में जिस दीपू दास की उन्मत्त अराजक भीड़ ने हत्या की उनमें अधिकतर उनकी ही फैक्ट्री के सहकर्मी कर्मचारी थे। दीपू दास कपड़ा फैक्ट्री में क्वालिटी सुपरवाइजर था और भारतीय रुपयों में उसे साढ़े नौ हजार की मासिक सैलरी मिलती थी। रोजाना 12 घंटे की ड्यूटी। कोई ओवरटाइम भत्ता नहीं, कुछ नहीं। जब सुपरवाइजर का इतना कम वेतन तो उसके साथ काम करने वाले कपड़ा श्रमिकों का तो और भी कम होगा। उनके काम के घंटे तो और भी सख्त होंगे। कैसे इतने कम पैसों में वे जी पाते होंगे? जबकि रोज 12 घंटे का अथक श्रम।
पता नहीं, वे अपने लिए, अपने बाल बच्चों के भविष्य के लिए, मनुष्य होने के अपने न्यूनतम अधिकार के लिए कभी चिंतित होते होंगे या नहीं...लेकिन, देखिए कि "ईश" के लिए वे कितने चिंतित हो गए कि "ईश निंदा" के नाम पर एक नौजवान को उनकी उन्मत्त भीड़ ने हिंसक जंगली पशुओं की तरह व्यवहार करते हुए अत्यंत निर्ममता से मार डाला।
उन्होंने साबित किया कि इक्कीसवीं सदी में पहुंच चुकी इस दुनिया में अभी भी वे मध्यकालीन माइंडसेट में ही जी रहे हैं और इस कारण, जो ज़हालत भरी जिंदगी वे जी रहे हैं वे इसी लायक हैं। राजनीति और कॉरपोरेट का गठजोड़ उन्हें मनुष्यता के अधिकारों से वंचित कर बाजार में नंगा खड़ा किए है और वे कभी भारत में धर्म बचाने के लिए हिंसक पशु बन रहे हैं, कभी पाकिस्तान में तो कभी बांग्लादेश में। भारत में देखिए माथे पर पट्टे बांधे, हाथों में तलवार, भाले लेकर माहौल को भयाक्रांत करते धार्मिक नारे लगाते, धार्मिक झंडा थामे मोटरसाइकिलों पर जुलूस निकालते नौजवानों को और उनका वर्गीय विश्लेषण करिए। जिन्हें अपनी शिक्षा, अपने रोजगार, अपने श्रम के वाजिब मूल्य और मनुष्य होने की अपनी न्यूनतम गरिमा के लिए जुलूस निकालना चाहिए वे धर्म बचाने को निकल पड़े हैं, वह भी काल्पनिक और प्रायोजित शत्रुओं के खिलाफ
इन तीनों देशों में धर्म पॉलिटिक्स-कॉरपोरेट नेक्सस का हथियार है और इलीट क्लास के ड्राइंग रूम का फलसफा है जबकि अनपढ़, अधपढ़ और कुपढ लोगों की इस विशाल आबादी का दिमाग खराब कर देने वाला रसायन है। आस्था, नैतिकता, मनुष्यता की बात करने वाले धर्म के नाम पर हिंसक जानवर बन जा रहा आदमी आज की सभ्यता के लिए सबसे बड़ा अभिशाप भी है और सबसे बड़ा चैलेंज भी है। इतने जाहिल लोगों को अगर पूंजी परस्त सरकारें, शोषक कंपनियां और निर्दय उपभोक्ता इंसान मानने को तैयार नहीं तो उन्हें इस बात का कोई डर भी नहीं कि इतनी बड़ी आबादी कभी इस खून चूसने वाले सिस्टम के खिलाफ खड़ी भी हो सकती है।
जानवरों की तरह रेल के शौचालय में लद कर लोग बिहार आए, कुछ बख्शीश ली, दारू चखना का स्वाद लिया और अपने कुनबे के वोट का सौदा कर लिया। मैडम लोगों की बाँछें तो दस हजार की धमक से पहले ही खिल चुकी थीं।
भारत में तो खैर चुनाव भी होते हैं और वोटों को अपनी ओर खींचने के लिए राजनीतिक दलों को न जाने कितने प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष जतन करने पड़ते हैं, कानूनी जतन भी, गैर कानूनी जतन भी, लेकिन, उधर पाकिस्तान में तो चुनाव और लोकतंत्र बाकायदा उनकी जेब में हैं जो देश की पूरी राजनीति को ही अपनी जेब में रखते हैं। बांग्लादेश में भी लोकतंत्र अक्सर एक प्रहसन में ही तब्दील होता दिखता रहता है।
इन तीनों देशों के लोग धनी खाड़ी मुल्कों, अन्य धनी देशों में रईसों की चाकरी करने, उनकी प्रताड़ना सहने जाते हैं, वे बड़ी मात्रा में अपनी सरकारों को विदेशी मुद्रा भेजते हैं। इन सरकारों में इतना नैतिक और राजनीतिक बल नहीं कि धनी देशों में कामगार के रूप में गए अपने नौजवानों की दुर्दशा पर वहां की सरकारों की आंख से आंख मिला कर बात कर सकें। सरकारें अक्सर इसकी जरूरत भी नहीं समझती। जिन्हें सिस्टम मनुष्य मानने से इन्कार कर दे, उनकी दुर्दशा देश में हो या विदेश में, अधिक फर्क नहीं पड़ता।
ये तीनों देश आपस में भी लड़ते रहते हैं और इन तीनों का राष्ट्रवाद एक दूसरे में शत्रुता तलाशते और एक दूसरे को नीचा दिखाते ही परवान चढ़ता है। भारत में प्रोपेगेंडा फिल्मों का हीरो जोर से, चिंघाड़ते हुए आवाहन करता है, " इतनी जोर से नारे लगाओ कि आवाज लाहौर तक पहुंचे।" उसे बीजिंग और शंघाई का नाम लेने में डर लगता है। और, निर्माता निर्देशकों को लगता है कि चीन के प्रतिरोध में खड़े राष्ट्रवाद में धर्म का तड़का कैसे लगाएं, और जब तक तड़का न लगे तो ज़ाहिलों को मजा कैसे आए?
लेखक पटना यूनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर हैं।
Comments