पुण्य प्रसून बाजपेयी।
दिल्ली देश की राजधानी। सड़क कम गाड़ियां ज्यादा। बारिश कम लोग ज्यादा। अगर आप इस हुजूम में फंस गये तो क्या रात क्या दिन। बसर सड़क पर ही हो जायेगी। लाखों की गाड़ी हो या करोड़ों का बैंक बैलेंस। सडक पर इस तरह फंसे तो सबकुछ धरा का धरा रह जायेगा। क्योंकि यहां सिस्टम नहीं पैसा काम करता है और पैसा इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं सुविधा देखती है। तो जनता के लिये 20 मेट्रो, 10 हजार बस टेम्पो टैक्सी पर अस्सी लाख कार इस कदर हावी हैं कि आधी उम्र तो सडक पर गाड़ी में बैठे—बैठे बीत जाती है क्योंकि ये दिल्ली है। लेकिन झांकी अगर देश की देखनी हो तो फिर नजर आयेगा सिर्फ पानी, पानी और सिर्फ पानी।
जी ये हाल उत्तराखंड, यूपी, बिहार, बंगाल, असम समेत आधे भारत का है इस पानी तले खेती की दो करोड़ हेक्टेयर से ज्यादा जमीन डूबी हुई है। यानी देश में खेती की कुल 15 करोड 96 लाख हेक्टेयर जमीन में से 2 करोड़ 30 लाख हेक्टेयर जमीन डूबी हुई है। खेती की जमीन पर निर्भर साढे तीन करोड किसान-मजदूरो के परिवारों को कोई पूछने वाला नहीं।
215 से ज्यादा जान बीते हफ्ते भर में पानी की वजह से जा चुकी हैं और ये वही देश है, जहां बीते साल भर में सूखे के वजह से 1800 से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी कर ली तो सूखे से जूझना और बरसात में पानी में डूबना देश का ऐसा अनूठा सच है जहां 21 वीं सदी में विकास का हर नारा झूठा लगता है और बच्चों को कौन सा पाठ पढायें ये सवाल बन जाता है। क्योंकि मुश्किल कल की नहीं मुश्किल तो आज की है।
दिल्ली से सटे गाजियाबाद में स्कूल की फीस ना चुका पाने के हालत एक लड़की को खुदकुशी करने पर मजबूर कर देते हैं। क्योंकि मां बाप से ही स्कूल के शिक्षक मारपीट करने लगते हैं। और बेरोजगारी की त्रासदी हर दिन दो सौ से ज्यादा बच्चों को घर छोडने पर मजबूर करने लगे।
तो आने वाले वक्त में कौन सी पौध देश संभालेगी ये सवाल इसलिये क्योंकि संविधान के तहत दिया गया शिक्षा का अधिकार भी कटघरे में दिखायी देता है। खासकर तब जब देश का सच ये हो कि 22 फीसदी बच्चे तो अब भी स्कूल नहीं जा पाते। 8 वी तक 37 फीसदी बच्चे मजदूर बनने के लिये स्कूल छोड़ देते हैं। 10 वीं पास करने वाले महज 21 फीसदी बच्चे होते हैं। सिर्फ दो फीसदी उच्च शिक्षा ले पाते हैं और उसमें से भी 70 फीसदी देश में पढाई के बाद काम नहीं करते सभी विदेश रवाना हो जाते हैं।
इसी देश में शिक्षा के नाम पर कमाई करने वाले हर बरस साढ़े चार लाख करोड़ का कारोबार करते हैं। सरकार के शिक्षा के बजट से तीन गुना ज्यादा रईस परिवार अपने बच्चों को विदेश में पढ़ाने के लिये हर बरस खर्च कर देते हैं। ऐसे में देश कहां जा रहा है कौन सोचेगा? ये भी तो नहीं कह सकते ये सब कल की बाते हैं इन्हें छोड दें। क्योंकि जो कल बन रहा है उसका सच यही है कि देश की इकानामी ही चंद हथेलियों पर सिमट रही है।
हालात किस दिशा में जा रहे हैं ये इससे समझा जा सकता है कि देश की कुल इकानामी 65,20,000 करोड की है। जिसमें 10,00,000 करोड का कर्ज सिर्फ 12 कारपोरेट ने लिया है। सीबीआई बैक फ्राड के 150 मामलों की जांच कर रही है जिसकी रकम महज 20,000 करोड है। तो देश की मजबूती किन हाथों में सौंपें खासकर तब जब देश में सबसे ज्यादा व्यवस्था मोबाईल पर आ टिकी है। क्योंकि हाथों में मोबाईल से पानी के खौफ को भी सेल्फी में उतारने का जुनून है तो लातूर जैसे सूखे इलाके में पानी लाने की जगह सूखे को ही सेल्फी में उतारने की सोच मंत्री की है।
क्या विदेशी पूंजी,विदेशी तकनालाजी से रास्ता निकल सकता है। क्योंकि स्वदेशी की सोच विदेशी पूंजी तले कैसे काफूर हो गई और मान लिया गया कि एफडीआई के जरीये देश विकास के रास्ते चल सकता है। उद्योग धंधों में रफ्तार आ सकती है। रोजगार बढ सकता है। तक्नालाजी का आधुनिकरण हो सकता है। जबकि उद्योग धंधों की रफ्तार रुकी हुई है।
रोजगार पैदा हो नहीं पा रहे। नई इंडस्ट्री लग नहीं रही। खेती-उद्योग का योगदान जीडीपी में घटते—घटते 1950 के 86 फीसदी से घटते—घटते 34 फीसदी पर आ गया है और स्वदेश का पाठ वाकई पीछे छूट गया। जो हुनर को रोजगार देता। जो रोजगार से सरोकार बनाता। जो सरोकार से देश बनाता और जो देश को एक धागे में पिरोता है।
इस अक्स में जरा स्मार्ट सिटी के सच को समझ लें, क्योकि जिस वक्त दिल्ली में स्मार्ट सिटी पर राष्ट्रीय सम्मेलन हो रहा था। उसी वक्त दिल्ली से सटे मिलेनियम सिटी यानी गुडगांव में सबकुछ ठप पडा था और पीएमओ में राज्य मंत्री जीतेन्द्र सिंह ये समझा ही नहीं पा रहे थे कि आखिर स्मार्ट सिटी होगी कैसी? क्योकि अभी तो हम जिन शहरों को हम साइबर सिटी से लेकर स्मार्ट शहरों के रुप में जानते-पहचानते आए हैं-उनका हाल कैसे हर किसी को बेहाल कर देता है ये हर बरसात में सामने आ जाता है तो सवाल उन स्मार्टसिटीज का है,जिन्हें स्मार्ट बनाने का दावा करते हुए कहा तो यही जा रहा है कि स्मार्टसिटी बनते ही सब कुछ ठीक हो जाएगा, लेकिन सच तो यही है कि स्मार्ट सिटी का तमगा जिन शहरों को दिया गया है वहां के इन्फ्रास्ट्रक्चर को मजबूत माना गया ।
यानी स्मार्ट शब्द उस आधुनिकता से जुडा है जहां टेकनालाजी पर टिकी पूरी व्यवस्था होगी। तो क्या स्मार्ट सीटी में पैर जमीन पर नहीं आसमान में रखे जायेंगे। क्योंकि देश में सौ स्मार्ट सिटी के लिये जो बजट है और शहरी व्यवस्था को सुधारने का जो बजट है अगर दोनों को मिला दिया जाये तो 7296 करोड़ रुपया है। जिसमें स्मार्ट सिटी के लिये 4091 करोड बजट रखा गया है। तो कल्पना कीजिये जो गुडगांव सिर्फ एक बरसात में कुछ ऐसा नाले में तब्दील हुआ कि वहां 22 घंटे का जाम लग गया और हालात नियंत्रण में लाने के लिये धारा 144 लगानी पडी। उस गुडगांव नगर निगम का सालाना बजट 2000 करोड़ का है। यानी गुडगांव के अपने बजट से सिर्फ दुगने बजट में देश में 20 स्मार्ट सिटी बनाने की सोची गई है। असर इसी का है कि सरकारी स्मार्ट सिटी की रैकिंग में नंबर एक पर भुवनेशवर में भी बारिश हुई नहीं कि शहर की लय ही बिगड गयी।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या स्मार्ट सिटी का रास्ता सही दिशा में जा नहीं रहा या फिर भारतीय मिजाज में स्मार्ट सीटी सिटी की सोच ही भ्रष्टाचार की जननी है? क्योंकि गुडगांव ही नहीं बल्कि बैंगलोर हो या मुंबई या फिर देश का कोई भी शहर, किसी भी शहर का इन्फ्रास्ट्रक्चर इस तरह तैयार किया ही नहीं गया कि अगले 10—20 सालों में शहर की आबादी हर नजर से अगर दुगुनी हो ये तो क्या शहर की व्यवस्था चरमरायेगी नहीं। 70 से 90 के दशक के बाद से किसी शहर के इन्फ्रस्ट्क्चर में कोई बदलाव किया ही नहीं गया। 30 एमएम से ज्यादा बरसात होने की निकासी की कोई व्यवस्था किसी शहर में नहीं है, जबकि दस लाख से उपर की आबादी वाले सौ से ज्यादा शहरों में बीते दो दशक में आबादी तीन गुना से ज्यादा बढ़ चुकी है।
ग्लोबल वार्मिग ने मौसम बदला है, लेकिन बदलते मौसम का सामना करने के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर बदल कर मजबूत कैसे किया जाये इस दिशा में कोई गंभीरता किसी सरकार ने कभी दिखायी ही नहीं और स्मार्ट सिटी का खाका तैयार करने वाले नौकरशाहों के आंकडों को समझें तो उनके
मुताबिक 13 करोड लोगों को स्मार्ट सिटी के बनने से फायदा होगा। यानी सवा सौ करोड के देश में जब जीने की न्यूनतम जरुरतों के लिये हर बरस गांव से 80 लाख से एक करोड ग्रामीणों का पलायन शहर में हो रहा है, तो शहरों के बोझ को सहने की ताकत बढ़ाने की जरुरत है या गांव को स्मार्ट या कहें सक्षम बनाने की जरुरत है? या कहें देश की इकनामी से ग्रामीण भारत को जोड़ने की जरुरत है? अगर ये नहीं होगा तो देश में स्मार्ट इलाके तो बन सकते है जो असमान भारत के प्रमाण होंगे? जिन्हें ठसक के साथ दुनिया को दिखाया जा सकेगा कि ये इंडिया है।
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