पुण्य प्रसून बाजपेयी।
16 साल पहले पहले इरोम ने सरकार के एक फैसले का विरोध किया और रास्ता आमरण अनशन का चुना। वही रास्ता जिसपर कभी महात्मा गांधी चले थे, लेकिन इरोम के अनशन को आत्महत्या की कोशिश माना गया। हिरासत में लेकर, नाक में नली लगाकर जबरन भोजन दिया गया और बीते 15 बरस 8 महीने से अस्पताल के 15 गुणा 10 फीट के कमरे को इरोम की जिन्दगी बना दिया गया। जिस सवाल से लगातार इरोम जुझती रही कि जब महात्मा गांधी को भी अपनी असहमति जाहिर करने की इजाजत थी तो भारत के नागरिक के तौर पर उन्हें क्यों ये आजादी नहीं है? तो क्या इरोम ने भी मान लिया कि उसे आजादी राजनीतिक व्यवस्था से लड़कर लेनी होगी और इसके लिये चुनाव लड़कर उसी सिस्टम का हिस्सा बनना होगा, जिस सिस्टम ने बीते 16 बरस के उसके आंदोलन को ये कहकर खारिज किया कि मणिपुर से आफ्सपा यानी सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम खत्म नहीं किया जा सकता। तो क्या देश में हर संघर्ष हर आंदोलन को चुनाव के मैदान में जाना ही पड़ेगा, क्योंकि सिस्टम का हर रास्ता राजनीतिक सत्ता ने हड़प लिया है।सवाल तो हर जगह पर है,संघर्ष हर जगह पर है।
आंदोलन हर इलाके में है। मणिपुर में आफ्सपा तो छत्तीसगढ़ के बस्तर में माओवाद,उडीसा के कालाहांडी की भूखमरी , विदर्भ के किसानो की खुदकुशी, बुंदेलखंड का सूखा और बेरोजगारी, तमिलनाडु के कुडनकुल्लम में परमाणु संयत्र का विरोध और कश्मीर में भी आफ्सा का सवाल और इस कतार में देश भर में तीन दर्जन से ज्यादा इलाकों में कही संघर्ष तो कहीं आंदोलन चल रहा है। तो क्या वाकई हर मुद्दे को लेकर संघर्ष करते लोगों के सामने आखिरी रास्ता राजनीतिक मैदान में ही कूदना मजबूरी है क्योकि संविधान में लोकतांत्रिक व्यवस्था के मातहत कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में जो चैक एंड बैलेस किया गया उसे राजनीतिक सत्ता ने वाकई हड़प लिया है और राजनीतिक सत्ता के सारे तौर तरीके या कहे सारी नीतिया भी चुनाव जीतने पर जा टिकी है। 16 बरस के संघर्ष के बाद अब इरोम शर्मिला जब ये कह रही हैं कि वह संघर्ष छोड़ चुनाव लडेंगी, तो क्या ये उस सिस्टम की जीत है जो संघर्ष को खत्म कराती है या फिर सिस्टम को बदलने के लिये आंदोलनों की नई जिद है, कि वह सिस्टम में घुस कर सिस्टम को ठीक करेंगे।
तो याद किजिये हाल ही में रिलीज हुई फिल्म मदारी का डॉयलाग, जिसमें नायक पूछता है क्या सरकार भ्रष्ट है? तो गृह मंत्री की भूमिका को जी रहा कलाकार कहता है सिस्टम भ्रष्ट नहीं है बल्कि भ्रष्टाचार के लिये ही सिस्टम है। फिर याद कीजिये भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन को और सोचिये क्या वाकई राजनीति में जाकर सत्ता पाकर भी क्या सिस्टम बदला जा सकता है? क्योकि दिल्ली में भी लोकपाल का सवाल हाशिये पर है और दिल्ली के ही ये 10 विधायक ऐसे जो सत्ता पाने के बरस भर के भीतर ही दागी हो गये,जेल पहुंच गये और दूसरी तरफ एसोशियसन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म यानी एडीआर की रिपोर्ट की मानें तो 543 सांसदों में से 182 सांसद दागी हैं। देश भर के कुल 4032 विधायको में से 1258 विधायक दागी हैं।
याद कीजिए प्रधानमंत्री मोदी ने सत्ता में आते ही कहा था कि दागी केस का सामना करें, पाक साफ होकर संसद पहुंचें, लेकिन एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक मोदी कैबिनेट में भी 24 मंत्रियो के खिलाफ अपराधिक मामले दर्ज हैं,जिसका जिक्र एफिडेविट में है। राज्यों के मंत्रियों में भी 23 फीसदी दागी हैं। तीन दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने भी चुनाव आयोग से पूछा कि दागी सांसदों पर वह क्या कारावाई कर रही है?क्या सिस्टम वाकई भ्रष्ट है?
1993 में वोहरा कमेटी ने राजनीतिक भ्रष्टाचार को लेकर अपनी रिपोर्ट में पुलिस, नौकरशाह, सरकारी मुलाजिम, मीडियाकर्मी और राजनेताओं का गठजोड़ बताया था। बावजूद इसके केजरीवाल सिस्टम साफ करने की कसम खाते हुये सत्ता तक पहुंचे और अब बीते 16 बरस से मणिपुर में आफ्सा के खिलाफ संघर्ष कर रहीं इरोम शर्मिला भी चुनाव लडकर हालात बदलना चाहती हैं। वे बकायदा कहती हैं कि , "किसी भी राजनीतिक दल ने मेरे लोगों की आफ़्सपा हटाने की मांग को नहीं उठाया, इसीलिए मैंने ये विरोध ख़त्म करने और 2017 के असेंबली चुनावों की तैयारी करने का फ़ैसला किया है। मैं 9 अगस्त को अदालत में अपनी अगली पेशी के समय भूख हड़ताल ख़त्म कर दूँगी।
सवाल यही है कि क्या इरोम शर्मिला सिस्टम से हार गईं ? क्योंकि असल सवाल यहीं से बड़ा होता कि क्या वाकई सिस्टम में घुस कर सिस्टम को बदला जा सकता है? या फिर सिस्टम के जरीये राजनीतिक सत्ता को चुनौती देने वाले हो या संघर्ष करने वाले सिर्फ अपनी पहचान ही बना पाते हैं। भारत में पहचान पाने का मतलब है राजनीतिक चुनाव लडने में आसानी, क्योंकि मैग्सेसे अवॉर्ड विजेता आईएफएस संजीव चतुर्वेदी को आज तक दिल्ली में डेपुटेशन नहीं मिल पाई।
यूपी सरकार में बालू माफिया को चुनौती देने वाली दुर्गा शक्ति नागपाल को निलंबन झेलना पड़ा। आखिर में यूपी सीएम के दरबार में हाजिरी के बाद ही निलंबन वापस हुआ और बालू माफिया का खेल बदस्तूर जारी है। अशोक खेमका का 23 साल के करियर में 47 बार ट्रांसफर हो चुका है, और किसी सरकार ने उन्हें एक जगह पर दो साल पूरे करने नहीं दिए। यूपी में तैनात आईपीएस अमिताभ ठाकुर को सत्ता से जान का खतरा लगता है तो वो केंद्र से डेपुटेशन पर बुलाए जाने की मांग कर रहे हैं।
यानी राजनीतिक सत्ता से कोई टकरा नहीं सकता। गलत को गलत तभी कह सकता है जब राजनीतिक सत्ता के अनुकूल हो। तो क्या कड़वा सच यही है कि सिस्टम को कोई बदल नहीं सकता, और सिस्टम बड़े बड़ों को झुका भी सकता है, और मार भी सकता है। क्योंकि कर्नाटक में आईएएस डीके रवि ने खुदकुशी कर ली। कारण ईमानदार छवि! बिहार में स्वणिम चतुर्भुज सड़क योजना से जुडे सत्येन्द्र दुबे की हत्या हो गई। कारण भ्रष्ट नहीं थे! इंडियन आयल के मंजूनाथ की हत्या कर दी गई। कारण गलत होने नहीं दिया! तमिलनाडु के दलित आईएएस उमाशंकर की ईमानदारी ना जयललिता को रास आई ना करुणानिधी को और राजनीतिक सत्ता ही कैसे सबकुछ है ये इस बार की आईएएस टापर टीना डाबी और 6 बरस पुराने आईएस अजय यादव से भी समझा जा सकता है।
टीना को टापर होने पर भी मनचाहा कैडर हरियाणा नहीं मिला, उन्हे राजस्थान भेज दिया गया और वो कहने को मजबूर हैं कि सारे कैडर एक समान हैं। तो यूपी की सत्ता की पहचान शिवपाल यादव के दामाद अजय यादव के लिये मोदी सरकार ने ही नियम कायदे ताक पर रख कर तमिलनाडु कैडर में नौ बरस पूरे किये बिना यूपी डेपुटेशन पर भेज दिया, क्योंकि शिवपाल यादव ने पीएम को पत्र लिखा और डीओपीटी ने अपने ही नियमो को सत्ता की सुविधा के लिये बदल दिये?
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