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गंगा-जमुनी तहजीब के प्रतीक हासिम

खरी-खरी            Jan 22, 2015


अयोध्या से कुंवर समीर शाही विगत 6 दिसम्बर बाबरी विध्वंस के पूर्व रामलला को आज़ाद देखने की बात बोलकर पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर बरबस खीचने वाले 97वर्षीय हाशिम अंसारी बाबरी मस्जिद के मूल मुद्दई हैं लेकिन उनका यह परिचय एकपक्षीय और अधूरा है। दरअसल हाशिम अंसारी ही नहीं उनके पिता और दादा भी अयोध्या की साझी विरासत के साझीदार रहे हैं। अंसारी के दिल व दिमाग में गंगा-जमुनी तहजीब की रवायत आनुवांशिक है। कनक भवन जो अयोध्या की प्रसिद्ध मंदिरो में से एक है।जिसका निर्माण टीकमगढ़ रियासत की महारानी ने करवाया था ।इसी कनक भवन में हाशिम अंसारी के दादा सिपाही थे। जो सामान्य दिनों से लेकर मेलों तक में मंदिर की पूरी जिम्मेदारी निभाते थे। कनक भवन से सटे एक मंदिर में अंसार हुसैन उर्फ चुन्ने मियां 45 साल तक मैनेजर रहे। मेले के दिनों में वे बछिया के गौदान की रस्म को भी निभाने का काम करते थे पर इस पर यहां कभी भी किसी ने एतराज नही जताया। हाशिम के दादा जहां कनक भवन में सिपाही थे तो वही इनके पिता सिलाई का काम करते थे। इसीलिए पुश्तैनी सिलाई के काम को हासिम अंसारी ने कई सालों तक किया। अयोध्या का मुख्य बाजार श्रृंगार हाट में उनकी सिलाई की दुकान थी। अपने पिता की तरह ही हासिम ने सिलाई को रोजी रोटी का जरिया बनाया। कुशल कारीगर होने के साथ वे कोट, पैन्ट, कमीज, कुर्ता की सिलाई तो करते ही थे साथ ही मंदिरो में भगवान के कपड़े भी सिलते थे। जिसके एवज में उन्हे मंदिरो में चढ़ा हुआ प्रसाद लड्डू मिलता था पैसे नही। मेलों- त्यौहारो पर साधु अपने भगवान के लिए नए वस्त्र सिलाने के लिए इनके पास आते थे तो वह बड़े अदब से खुशी खुशी सिल दिया करते थे। उस दौरान कोट की सिलाई महज एक रुपए थी तो वही इतने ही दाम में पैन्ट सिल दिया जाता था। उन दिनों सबसे अधिक मारकिन की बनियान पहनने का रिवाज था। इसलिए सबसे ज्यादा यही सिली जाती थी। सात पैसे में बंगला कुर्ता और कमीज सिला जाता था। कमीज जहां मुसलमानो का ड्रेस था तो हिन्दू भाई बंगला कुर्ता पहनते थे। अयोध्या मे उस दौर के इतिहास में इस तरह की कई परंपराएं रही हैं। मसलन साधुओं का बाल काटने का काम करने वाले मुस्लिम नाई को भी उस वक्त पैसे नहीं, लड्डू ही मिला करते थे। 22-23 दिसम्बर 1949 की रात को बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखे जाने का विरोध हुआ। उस विरोध कार्यक्रम में खुफिया पुलिस ने हासिम का नाम भी तकरीर करने वालो में जोड़ दिया। फिर क्या था अधिकारी के पास पेशी हुई तो उसने हासिम से पूछा कि क्या काम करते हो? तो उन्होने कहा कि साहब ‘मैं दर्जी का काम करता हूं’। अधिकारी ने कहा कि दर्जी ऐसा काम नही कर सकता। इसलिए इनका नाम सूची से काट दिया गया। इस घटना के बाद उन्होने मजबूरन सिलाई करना छोड़ दिया। हालांकि उनके घर के लोग सिलाई का काम करते रहें। वैश्विक मीडिया के केन्द्र रहने वाला यह शख्स आज भी आम आदमियों की तरह ही रहता है। अयोध्या रेलवे स्टेशन के नजदीक मोहल्ला कुटिया में एक बेहद छोटे घर मे परिवार के साथ वे रहते हैं। इस घर को उनका लड़का ड्राईवरी करके हर दिन किसी तरह से दो जून की रोटी का जुगाड़ करता है। जिससे पूरे परिवार का गुजर बसर चलता है। 60 सालो से अधिक समय से बाबरी मस्जिद मुकदमें की पैरवी कर रहे हैं। लेकिन कभी भी उन्होने मस्जिद के नाम पर कोई चंदा इकट्ठा नही किया। न अपनी सादगी बदली, हमेशा यह फक्कड़ आदमी, जो अयोध्या नगरी की तासीर है।यहां की शान है। एक लुंगी कमीज या कुर्ते में ही रहा। यही वजह है कि जुलाई 2014 के प्रथम सप्ताह में हाशिम अंसारी की तबियत अचानक बिगड़ने पर परिवार ने पास के श्रीराम चिकित्सालय मे भर्ती कराया। यहां के चिकित्सको ने आपरेशन के लिए गंभीर अवस्था में किंग जार्ज विश्वविद्यालय,लखनऊ भेज दिया। यहां के डाक्टरो ने आपरेशन जिस दिन होना तय था इसलिए नही हुआ क्योंकि परिवार के पास पैसे नही थे। मामला हाई प्रोफाइल होने के बावजूद गंभीर हालत होने के बाद 24घण्टे के लिए टाल दिया। दूसरे दिन परिवार ने किसी तरह से पचास हजार रुपए इक्कठे करके आपरेशन कराया। बाबरी मस्जिद रामजन्मभूमि विवाद को कोर्ट से बाहर सुलझाने को लेकर अयोध्या के प्रमूख महंतो के साथ कई बार कोशिश की। ईमानदारी से किए शांति प्रयासों खूब सुर्खियां भी बटोरी। लेकिन अगर यह कोशिश परवान नही चढ़ सकी तो इसमें इनका कोई कसूर नहीं। इन सब वजहों से कोई भी घर के सामने से गुजरता है तो हासिम साहब के सम्मान में नमस्ते कहते हुए अदब से सिर झुका देता है। उस दौर में सरयू नदी का पानी इतना गंदा नही हुआ था। वह नफरत की सियासत से कुछ हद तक पाक था। सरयू तीरे घाटो पर मुस्लिम मालियो का भी जमघट होता था। जो घाट पर फूल माला बेचते थे। उनके नाम भी हिन्दू मालियों जैसे होते थे जैसे बचऊ माली, जो बच्चूलाल जैसे होते थे। अयोध्या में फूलो की खेती करने, फूलो की माला पिरोने से लेकर मंदिर तक पहुंचाने में मुस्लिम माली आज भी लगे हुए हैं। हालांकि अब यह सरयू तीरे घाटो पर कम ही जाते हैं। आप को यह जानकार ताज्जुब होगा कि सूफी संतो की नगरी अयोध्या में आज भी रामलला का कपड़ा एक मुस्लिम टेलर ही सिलता है। रामजन्मभूमि के मुख्य पुजारी आचार्य सत्येन्द्रदास हनुमानगढ़ी के पास इसी दर्जी से सिलवाते हैं। हासिम अंसारी जैसे नेक दिल इंसान को मीडिया ने देश के सबसे बड़े विवाद का चेहरा भले ही बना दिया हो। लेकिन अयोध्या की धुनी रंगत में हासिम साहब को यहां चाहने वालो की फेहरिस्त बहुत लंबी हैं। गौरतलब है कि आज भी हासिम साहब को बीड़ी और चाय पिलाने वालों की यहां कोई कमी नही है। उम्मीद की जानी चाहिए यहां की फिजा में लोगो को जेहन में लम्बे वक्त से रहने वाला यह शख्स जल्द ही अपनी जिंदगी का शतक पूरा करेगा।।।


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