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गिरिडीह के कृष्ण मुझे माफ करना मैं शर्मिदा हूं

खरी-खरी            Jan 06, 2015


कृष्णदेव तुम तो बार-बार आते थे मेरे पास। मेरे आंगन पर रीझ गए थे। मंदिरों की घंटियों-घड़ियालों की मधुरिम ध्वनि, वेद ऋचाओं की गूंजती वाणी, सरयू की मचलती लहरे, तुम तो सब पर मोहित थे। हनुमानगढ़ी, कनकभवन, रामलला की ओर तुम्हारे कदम खिंचे चले आते थे। मेरे से तुम्हारा यह प्रेम इतना भारी पड़ेगा, सोंच कर मैं कांप जा रही हूं। जिन आंखों से कृष्ण तुम मुझे अपलक निहारते थे, उन्हीं आंखों को किसी की बददिमागी ने कितनी निर्दयता से निकाल लिया। यह सोचकर मैं व्यथित हूं, स्तब्ध हूं। गिरिडीह के कृष्ण मुझे (अयोध्या) माफ करना मैं शर्मिदा हूं। सदियों से मेरे आंगन में लोग आते रहे, मुग्ध होते रहे, अंतर्मन की आध्यत्मिक तरंगों से ऊर्जस्वित-आनंदित होते रहे। कृष्ण कौन नहीं आया मेरे आंगन में। महात्मा बुद्ध आए, महावीर भी, अश्वघोष को तो हमने ही जना, तुलसीदास तो हमारे ही थे। मेरे राम ने तो संवेदना और नैतिकता के नए-नए पाठ रच डाले। ‘डाल-डाल अल्लाह लिखा है, पात-पात पर राम’ लिखने वाले फक्कड़ निर्गुणिहा पलटूदास मेरे आंगन में आए तो यहीं के होकर रह गए। इधर कुछ दिनों से मेरे आंगन में न जाने कहां से ‘विषैले-नागों’ ने प्रवेश कर लिया है। उनके विषधर डंक से कृष्ण तुम ही नहीं, मैं भी तुम्हारे नैनों के निकाले जाने से तुम्हारे परिजनों की तरह मैं भी उदासी की चादर में लिपट बिलख रही हूं। अपनी व्यथा कथा यहीं खत्म नहीं हो रही है। 11 वर्ष का हर्ष आचारी तो अपना ही लाडला था। अभी तो वह बच्चा था, खेल-कूद रहा था। कितनी बेदर्दी और निर्ममता उसके साथ हुई, मेरे हर्ष की पलक काट ली गई, शरीर पर हर जगह चोट के निशान। हर्ष को अगवाकर मारपीट और कृष्णदेव की दोनों आंख निकालने की घटना पर अयोध्या का हर नागरिक शर्मसार कुंवर समीर शाही


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