पुण्य प्रसून बाजपेयी
"जहर मिलता रहा जहर पीते रहे,रोज मरते रहे मर कर जीते रहे।
जख्म जब कोई जहनो दिल को मिला,जिन्दगी की तरफ एक दरीचा खुला।
जिन्दगी हमें रोज आजमाती रही,हम भी उसे रोज आजमाते रहे।
याद तो नहीं यह गजल है किसकी, लेकिन अस्सी के दशक में जेएनयू के गंगा ढाबे पर जब भी देश के किसी मुद्दे पर चर्चा होती तो एक साथी धीरे धीरे इन्ही लाइनों को गुनगुनाने लगता और तमाम मुद्दो पर गर्मा गरम बहस धीरे धीरे खुद ही इन्हीं लाइनों में गुम हो जाती और तमाम साथी यह मान कर चलते कि आने वाले वक्त में अंधेरा छंटेगा जरुर। क्योंकि बहस का सिरा तब मंडल-कमंडल की सियासत से शुरु होता और पूंछ पकड़ते पकड़ते हाथ में संसदीय चुनावी राजनीति का अंधेरा होता ।
लेकिन यह एहसास ना तब था ना अब है कि लोकतंत्र की दुहाई देकर जिस तरह चुनावी राजनीति को ही सर्वोपरि बनाया जा रहा है और राजनीतिक सत्ता के हाथों में अकूत ताकत समा रही है उसमें तमाम संवैधानिक संस्थाओं की भी कोई भूमिका बच पायेगी । यह लकीर है महीन, लेकिन इतनी धारदार है कि इसने संसदीय राजनीति की बिसात पर सांसदों और राजनेताओं को ही प्यादा बना दिया है । संसद की साख पर ही सवालिया निशान उठने लगा है । संसद के भीतर बहस की उपयोगिता या मुद्दे से जुड़े लोगों के बीच संसद की बहस को लेकर नाउम्मीदी किस हद तक है यह सब संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान बार बार उठ रहा है।
शुरुआत कहीं से भी कर सकते हैं मसलन, संसद में सूखे की बहस के दौरान ही नेशनल हैराल्ड का मुद्दा आ गया और झटके में नेशनल हैराल्ड के जरीये संसद ठप कर न्यायपालिका को धमकाने का आरोप कांग्रेस पर संसदीय मंत्री वेंकैया नायडू ने लगा दिया। तो बात न्यायपालिका के जरीये संविधान को ताक पर रखने के मद्देनजर भी हो सकती है और सूखे का सवाल किसान मजदूर से जुडा है इस पर भी हो सकती है । लेकिन जब चर्चा होती है तो संसद के भीतर 15 फीसदी सांसद तक नहीं होते और इस दौर में हर वह मुद्दा हाशिये पर है जिसके आसरे 19 महीने पहले देश ने एतिहासिक जनादेश दिया ।
तो आज शुरुआत कालेधन से करते हैं, क्योंकि मनमोहन सिंह की दस बरस की सत्ता के 34 लाख करोड़ रुपये अगर कालेधन के तौर पर विदेशो में चले गये यानी हर दिन 931 करोड रुपये 2004 से 2013 तक कालेधन की रकम विदेशी बैकों में जाती रही तो यह सच कितना छोटा है कि दिल्ली में संजय प्रताप सिंह नाम का एक नौकरशाह जब दो लाख बीस हजार की घूस लेते हुये पकड़ में आता है तो उसकी संपत्ति खंगालने पर पता चलता है कि सौ करोड़ से ज्यादा की संपत्ति उसने भ्रष्टाचार के जरीये बना ली। फिर पता चलता है कि दिल्ली एनसीआर में करीब सवा लाख करोड़ से ज्यादा कालाधन उन फ्लैटो में लगा है जो बनकर खड़े हैं। लेकिन उनमें कोई रहता नहीं क्योंकि देश के अलग—अलग राज्यों के सैकडों नौकरशाहों ने दिल्ली और एनसीआर में अपना कालाधन लगा रखा है जो विदेशों में जमा नहीं करा पाये या फिर विदेशो में जमा कालेधन के अलावे यह रकम है।
यह रकम काले धन की है । 34 लाख करोड़ । सिर्फ मनमोहन सिंह की दस बरस की सत्ता के दौर में देश से 34 लाख करोड़ रुपये कालेधन के तौर पर देश से बाहर चले गये । तो 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त जो सवाल नरेन्द्र मोदी कालेधन का बार बार उठा रहे थे वह गलत कतई नहीं था। यानी एक तरफ अमेरिकी थिंक टैंक ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रेटी की रिपोर्बताती है कि जीडीपी का करीब 25 फिसदी होता है 34 लाख करोड जो 10 बरस में देश के बाहर गया। इन्हीं सवालों को उठाते हुये नरेन्द्र मोदी पीएम बन गये तो मौजूदा सच है क्या? क्योंकि सरकार बनते ही बनाई गई एसआईटी ने क्या तीर मारा-अभी तक देश की जनता को पता नहीं है । काले धन पर नया कानून पास किया गया लेकिन उसका असर है कितना कोई नहीं जानता।
आलम ये कि कानून के तहत तीन महीने में सिर्फ 4,147 करोड़ रुपए का खुलासा हुआ और स्कीम फ्लॉप रही । सरकार ने एचएसबीसी बैंक में खाता धारक 627 भारतीयों के नाम सुप्रीम कोर्ट को सौंपे जरुर लेकिन न जनता को नाम मालूम पड़े और न किसी के खिलाफ ऐसी कानूनी कार्रवाई हुई कि वो मिसाल बने। काले धन को लेकर सरकारी कोशिशों की खुद बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने सवाल उठाए और इनफोसिस के पूर्व एचआर हैड टीवी मोहनदास ने तो सरकार के कालाधन पकड़ने के तरीकों को मजाक करार दे दिया।
तो सवाल यही है कि काला धन को लेकर दावे और वादों के बीच मोदी सरकार कहां खड़ी है। क्योकि अमेरिकी थिंक टैंक ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रेटी की रिपोर्ट की मानें तो दुनिया में मौजूदा वक्त में भी कालेधन को लेकर कोई कमी आई नहीं है । यानी मौजूदा वक्त में कितना काला धन कौन बना रहा है इसकी जानकारी हो सकता है पांच या दस बरस बाद आये।
अब अगला सवाल किसानों का, जिन्हें समर्थन मूल्य कितना मिलता है यह बहस का हिस्सा नहीं है बल्कि नई बहस इस बात को लेकर है कि पहली बार देश में खुदकुशी करते किसानों की तादाद बढ़ क्यों गई । एक ही मौसम में कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ क्यो आ रही है और इन सबके बीच कृषि उत्पादों से जुडी कंपनियों के टर्नओवर बढ़ क्यों रहे हैं? मसलन महाराष्ट्र के मराठवाडा और विदर्भ में तो खुदकुशी के सारे रिकार्ड उसी दौर में टूटे जब दिल्ली और महाराष्ट्र में बीजेपी की ही सरकार है, जो किसानों को लेकर राजनीतिक तौर पर कहीं ज्यादा संवेदनशील रही । तो क्या राजनीतिक सक्रियता सत्ता दिला देती है लेकिन सत्ता के पास कोई वैकल्पिक आर्थिक नीति नहीं है जिससे देश को पटरी पर लाया जा सके । क्योंकि इकनामी देश के बाहर के हालातों से ही अगर संभलता दिखे तो कोई क्या कहेगा ।
जैसे जून 2008 में कच्चे तेल की किमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में 145 डालर प्रति बैरल थी । तो अभी यह 40.62 डालर प्रति बैरल है। लेकिन जब अभी के मुकाबले सौ डालर ज्यादा थी तब दिल्ली में पेट्रोल की किमत प्रति लीटर 50 रुपये 62 पैसे की थी। और आज जब तब के मुकाबले सौ डॉलर कम है तो प्रति लीटर पेट्रोल 60 रुपये 48 पैसे है । तो सवाल यह नहीं है कि इक्नामी मनमोहन सिंह के दौर में डांवाडोल क्यों थी और अभी इक्नामी संभली हुई क्यो है । सवाल है कि अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में उथल पुथल होगी तब इकनॉमी कैसे संभलेगी?
इसीलिये अब आखरी सवाल पर लौटना होगा कि आखिर क्यों संसद चल नहीं रही और क्यों संवैधानिक संस्थाओं को ही नहीं बल्कि न्यायपालिका तक निशाने पर क्यों है । और सबपर भारी राजनीति ही क्यो है। याद कीजिये जब सवाल जजों की नियुक्ति को लेकर कोलेजियम का उठा तो कैबिनेट मंत्री अरुण जेटली न्यायापालिका को लेकर यह कहने से नहीं चुके कि गैर चुने हुये लोगो की निरंकुशता कैसे बर्दाश्त की जा सकती है ।
यानी सारी ताकत संसद में होती है और चुने हुये प्रतिनिधियों का महत्व सबसे ज्यादा होता है । तो अगला सवाल यही है कि अगर संसद ही सबसे ताकतवर है या सत्ता को यह लगता है कि तमाम संवैधानिक संस्थानो में भी संसद की चलनी चाहिये । तो अगला सवाल यही होगा कि क्या कांग्रेस ने इसी मर्म को पकड़ लिया है कि मुद्दा चाहे कोर्ट का हो या कानून के दायरे में भ्रष्टाचार का हो। लेकिन आखिर में राजनीतिक सत्ता ही जब सबकुछ तय करती है तो फिर हर मुद्दे को राजनीति से ही जोडा जाये। क्योंकि बिहार चुनाव तक में प्रदानमंत्री मोदी की पहचान चुनावी जीत के साथ बीजेपी ने जोड़ी तो चुनावी हार के साथ प्रधानमंत्री मोदी की पहचान काग्रेस जोडना चाहती है। क्योंकि अगला चुनाव असम, बंगाल, तमिलनाडु और केरल में है । जाहिर है बीजेपी के लिये असम ही एक आस है और लोकसभा चुनाव के बाद हरियाणा और साल भर बाद पहली बार असम ही वह राज्य होगा जहा काग्रेस और बीजेपी आमने सामने होगी।
तो सवाल दावों और वादों का नहीं बल्कि ठोस काम का है, और सच यही है कि संसद की बहस कोई उम्मीद जगाती नहीं और हंगामा सियासत को गर्म करता है । ऐसे में मंहगाई हो या कालाधन, रोजगार हो या न्यूनतम मजदूरी और किसानों की खुदकुशी हो या सूखा । उम्मीद कहीं किसी को नजर आती नहीं । कमोवेश इसी तरह की बहस तो जेएनयू में ढाई दशक पहले होती थी और संयोग देखिये बीते 27 बरस से जेएनयू के फुटपाथ पर जिन्दगी गुजारने वाले कवि रमाशंकर विद्रोही चार दिन पहल मंगलवार को ही गुजर गये, जो अक्सर बीच बहस में अपनी नायाब पंक्तियों से दखल देता । उसी ने लिखा था, "
"एक दुनिया हमको घेर लेने दो
जहां आदमी आदमी की तरह
रह सके,कह सके, सह सके "
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