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डिजिटल-ग्लोबल दुनिया में गोबर-गोमूत्र

खरी-खरी            Jan 13, 2015


राजेश प्रियदर्शी भारत वो सभ्यता है जहाँ लोग शाम ढले पत्तियाँ नहीं तोड़ते और यहीं विधवा को ज़िंदा जलाने में भी नहीं हिचकते. भारतीय सभ्यता महान नहीं, विराट है, जो पुरानी और परतदार है, जिसमें अच्छाइयाँ-बुराइयाँ दोनों भरपूर हैं. धर्मवीर भारती अब नहीं हैं जिन्होंने तीन दशक पहले एक लेख में यह बात कही थी. तथ्यों को तिलांजलि देकर, कल्पना के ईंधन से पुष्पक विमान उड़ाने के इस मौसम में, भारतीय सभ्यता-संस्कृति पर संतुलित चर्चा की कोई गुंजाइश नहीं दिख रही. मुग़लों के हाथों हार के हाहाकार और 'विश्वगुरु' होने की जय-जयकार से परे, कहीं एक विशाल-विराट भारतीय सभ्यता है जो कई अर्थों में महान है और दूसरे कई स्तरों पर महापतित भी, ठीक वैसे ही जैसे यूनानी, असीरियाई, चीनी या कोई और प्राचीन सभ्यता. सम्मान और उपहास पतंजलि के अष्टांग योग, पाणिनि के अष्टध्यायी, भास्कर की लीलावती, सुश्रुत की शल्य संहिता, आर्यभट्ट के आर्यभटीय और कणाद के वैशेषिक जैसे ग्रंथ निस्संदेह महान हैं, और हाँ, शून्य भी भारत ने ही दिया था, इति सिद्धम्, सिद्ध हो गया, मान लिया गया.लेकिन विश्व का समस्त ज्ञान यहीं था, दुनिया की सभी भाषाएँ संस्कृत से उपजी हैं, जब हमारे ऋषियों ने इतनी वैज्ञानिक प्रगति की थी कि फल खिलाकर निस्संतान रानियों को पुत्ररत्न प्रदान कर रहे थे तब समस्त संसार में अंधकार था, ऐसे दावे भारत को सम्मान का नहीं, उपहास का पात्र बनाते हैं. काग़ज़, बारूद, लिखने की कला, पहिया और कम्पास जैसी चीज़ें देने वाले चीनी, असीरियाई और मेसोपोटेमियन सभ्यताएँ भारत की नक़ल कर रही थीं, अँगरेज़ों-मुग़लों ने प्राचीन भारत का सारा ज्ञान या तो चुरा लिया या नष्ट कर दिया, ऐसी सपाट व्याख्या को मानने वाले न तो भारत के योगदान से परिचित हैं, न बाक़ी दुनिया के. क़रीब 23 सौ साल पहले हज़ारों किलोमीटर दूर मक़दूनिया का सिकंदर इतनी बड़ी फ़ौज के साथ भारत पहुँचा था तो उसके पास शस्त्र ज्ञान, शास्त्र ज्ञान, दिशा ज्ञान, युद्ध ज्ञान, परिवहन ज्ञान सब रहा होगा, और इसके लिए वह 'विश्वगुरु' से ज्ञान प्राप्त करने की प्रतीक्षा नहीं कर रहा था. सभ्यताओं को बीच लेन-देन अँगरेज़ों और मुग़लों ने प्राचीन भारतीय सभ्यता को ज़रूर नुक़सान पहुँचाया, वैसे ही जैसे रोमनों या यूनानियों ने दसियों दूसरी सभ्यताओं को.जब भारत के वैष्णव राजा कंबोडिया और इंडोनेशिया जैसे पूर्वी एशियाई देशों में विशाल मंदिर बनवा रहे थे तो क्या वहाँ कोई सभ्यता ही नहीं थी, जो दबाई, ढहाई गई होगी.सभ्यताएँ हमेशा एक दूसरे से सीखती हैं, एक दूसरे को सोखती हैं, घुल-मिल जाती हैं और टकराती भी हैं, नष्ट-ध्वस्त भी होती हैं, भारत के साथ भी ऐसा ही हुआ, इसमें कोई अजूबा नहीं है, न ही यह समस्त भारतीय प्राचीन ज्ञान-विज्ञान के लुप्त हो जाने की करुण कथा है. जो आया वो कुछ ले गया, कुछ छोड़ गया, कुछ तोड़ गया, कुछ जोड़ गया. गर्व करें लेकिन... प्राचीन भारत की मनीषा पर गर्व करने में कोई बुराई नहीं है, पूरी दुनिया में लोग अपने पुरखों का आदर करते हैं, उनकी महानता के आख्यान बनाते हैं, उनकी बुराइयों को ढँकते हैं, यह सब सहज स्वाभाविक है. यूरोप में रहने वाले ढेर सारे मुसलमान पहली फ़ुर्सत में स्पेन का ग्रेनाडा शहर देखने जाते हैं, जिसे अल-ग़रनाता कहकर अपनी छाती फुलाते हैं, देखो, हम कैसे अरब से चलकर यूरोप पर छा गए थे.गर्व करने में बुराई नहीं है, लेकिन यहाँ गर्व तो गोबर-गोमूत्र और पुष्पक विमान से आगे बढ़ता नहीं दिख रहा. प्राच्यवाद प्राच्य भारतीय विद्या का डिजिटल दौर में क्या इस्तेमाल हो सकता है इस पर कोई काम होता नहीं दिख रहा है, ग्रियर्सन और मैक्समूलर के बिना दुनिया को भारत की महत्ता समझ में नहीं आई.सरकार अगर गंभीर है तो उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रामाणिक वैज्ञानिकों की टीम बनानी चाहिेए, उसे बजट देना चाहिए, उनके लक्ष्य तय करने चाहिए, न कि विज्ञान कांग्रेस जैसे मंच को कोरी गप्पबाज़ी का अड्डा बनने देना चाहिए.आज भी क्लासिकल लाइब्रेरी ऑफ़ इंडिया करोड़ों डॉलर ख़र्च करके हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में बन रही है, इलाहाबाद या बनारस में नहीं.गर्वोन्मत्त भारत बनाना है या उन्नत भारत, यह सोचने की गुंजाइश निकालनी चाहिए.


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