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पारंपरिक राजनीति को कन्हैया की चुनौती!

खरी-खरी            Mar 06, 2016


punya-prasoon-vajpaiपुण्य प्रसून बाजपेयी। जो नारे कभी नक्सलबाडी में लगे वह नारे अब दिल्ली तो पहुंच गये, लेकिन दिल्ली से लगते नारे क्या बंगाल और केरल में वामपंथी राजनीति को हवा दे पायेंगे? लाल सलाम के साथ आजादी के नारों के मिश्रण ने पहली बार नक्सलबाडी से इतर भारतीय वाम राजनीति में जो लकीर खींची उसने चुनाव की तारीखों के एलान के साथ यह सवाल भी बड़ा कर दिया है कि क्या एक वक्त कांग्रेस के खिलाफ खड़ा लाल सलाम अब बीजेपी के विरोध में खड़ा होते हुये कांग्रेस के साथ जा खड़ा हुआ है? क्योंकि जेएनयू में राहुल गांधी और सीताराम येचुरी की एक साथ मौजूदगी ने यह सवाल तो खड़ा कर ही दिया कि मौजूदा वक्त में बीजेपी के खिलाफ वामपंथी सोच के साथ कांग्रेस भी आ खड़ी हुई है? हालांकि कन्हैया ने काग्रेस और वामपंथियों के साथ खड़े होने की तस्वीर को सच के साथ खड़ा कर विचारधारा को दरकिनार किया, लेकिन अब चुनाव असम, बंगाल और केरल में हैं जहां वामपंथी राजनीति की मौजूदगी है। तो क्या बीजेपी के खिलाफ तीनो जगहो पर वामपंथी और काग्रेस साथ खडे होंगे? खासकर बंगाल को लेकर यह सवाल बड़ा है कि अतिवाम धारा ने काग्रेस की सत्ता 1967 में बंगाल में डिगाई। वामपंथी सिंगूर से नंदीग्राम तक काग्रेसी धारा में बहे तो ममता ने वाम सोच को लालगढ़ में पकड़ा और बंगाल की सत्ता बदल गई। उसके बाद से वाम राजनीति बंगाल में हाशिये पर चली गई। लेकिन अब मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिये कांग्रेस भी उसी वाम सोच को अगर पकड़ रही है जो लाल सलाम का नारा लगाती है तो फिर पहली बार बीजेपी भी चाहे अनचाहे वाम राजनीति की चुनावी जमीन के केन्द्र में खड़ी होगी। क्योंकि राइट और लेफ्ट की लकीर के एक तरफ बीजेपी है तो दूसरी तरफ ममता, राहुल और येचुरी तीनो हैं। और इस खेल के बीच तीन बड़े सवाल हर जेहन में हैं। पहला क्या यह चुनाव ऱाष्ट्रवाद और देशद्रोह का एसिड टेस्ट होगा। दूसरा क्या यह मोदी सरकार के लिये एसिड टेस्ट होगा और तीसरा क्या छात्र राजनीति पारंपरिक राजनीति की बिसात को बदल देगी। ध्यान दें तो तीनों सवालों के केन्द्र में मोदी सरकार है। क्योंकि जो सवाल जेएनयू में नारों के शक्ल में कन्हैया ने उठाये, उन सवालों को राहुल गांधी संसद में उठाने से नहीं चूके, लेकिन असर कन्हैया का ज्यादा हुआ। rahul-kanhiya-kumar तो क्या कन्हैया परसेप्शन के तौर पर राहुल गांधी के लिये भी चुनौती है? और चाहे अनचाहे बीजेपी को वह चुनावी स्पेस मिल गया जिसमें कल तक कांग्रेस की भी भागेदारी थी? या फिर मोदी सरकार ने अपनी सियासत से ऐसा माहौल बना दिया जिसमें तमाम राजनीतिक दल इसके खिलाफ दिखायी दें? और खिलाफ खड़े राजनीतिक दलों के सामने यह संकट हो कि वह अपनी राजनीति मोदी सरकार का विरोध कर ही दिखा पाये । दरअसल बीजेपी भी इस सच को समझ रही है और कांग्रेस भी, इसीलिये असम में असमगण परिषद के साथ गठबंधन को लेकर बीजेपी में ही सवाल उठने लगे हैं। बंगाल में कांग्रेस वाम और ममता के बीच दोराहे पर खड़ी है। केरल में एलडीएफ और यूडीएफ के पारंपरिक संघर्ष के बीच संघ की दस्तक कुछ नये गुल खिलाने को तैयार हैं। तमिलनाडु में जयललिता का साथ बीजेपी को कांग्रेस के ऊपर ला खड़ा कर सकता है। यानी जो सवाल संसद से लेकर दिल्ली की सड़कों पर उछाले जा रहे हैं उन सवालों को ही बीजेपी अपनी ताकत बना रही है। ध्यान दें तो जेएनयू में कन्हैया की पहली विवादास्पद नारेबाजी से जेएनयू कैंपस में वापस लौटने तक देश ने जो देखा-सुना और समझा, उसमें एक बात साफ दिखी कि या तो आप राष्ट्रवादी हैं या राष्ट्रविरोधी। इसे ही बीजेपी अपनी ताकत बना रही है और बीजेपी का यही रुख कन्हैया के जरीये राजनीतिक विरोध को तो स्पेस दे रहा है लेकिन राजनीतिक विकल्प उभर नहीं पा रहा है। kanhiya-kumar-modi यानी पांच राज्यों के चुनाव की मुनादी ऐसे वक्त हुई है जब देश में राजनीतिक माहौल सबसे गर्म है। सत्ता और विपक्ष के बीच टकराव चरम पर है। राष्ट्रवाद और देशद्रोह के बीच की लकीर सियासी तौर पर मोटी हो रही है और जीत के लिये छात्र संघर्ष को ही हथियार बनाया जा रहा है। कन्हैया के नारे राजनीतिक शून्यता का सवाल तो उठा रहे हैं लेकिन इसे भरेगा कौन इसका जबाब अभी भी गायब है। तो क्या छात्र राजनीति मौजूदा वक्त की जरुरत है? क्योंकि विपक्ष के पास तेवर नहीं बचे और सत्ता के लिये इससे सुनहरा वक्त नहीं होता कि छात्र राजनीति का विरोध राजनीतिक विकल्प को पनपने नहीं देता। यानी विरोध के स्वर छात्रों के बीच से निकले और छात्र ही अगुवाई करते नजर आये तो पारपरिक राजनीतिक दलों का आस्तित्व खुद ब खुद संकट में नजर आने लगेगा। ध्यान दें तो मौजूदा वक्त में छात्र संघर्ष की गूंज का कोई राजनीतिक सिरा आपके पकड़ में नहीं आयेगा। जबकि इससे पहले छात्रों को राजनीति ने अपना टूल बनाया। मसलन, 1960 के दशक के आखिर में परवान चढ़े नक्सल आंदोलन से लेकर चार साल पहले के अन्ना आंदोलन तक जब भी देश में बड़े राजनीतिक-सामाजिक आंदोलन हुए छात्रों का बड़ा तबका उसे सफल बनाने में जुटा। यानी छात्रों ने राजनीतिक सत्ता को बदलने में अपने संघर्ष को झोंका, लेकिन पहली बार राजनीतिक नेतृत्व गायब है और छात्र ही राजनीतिक दलों की तुलना में कहीं ज्यादा तीखे तरीके से मुद्दों को उठा रहा है। यानी जेपी से लेकर वीपी तक और आडवाणी से लेकर अन्ना तक के संघर्ष को छात्रों की मदद मिली, लेकिन नये हालात में सवाल रोहित वेमुला के जरीये दलित उत्पीड़न का हो या जेएनयू के जरीये राजद्रोह का हो, या फिर हिन्दुत्व तले साम्प्रदायिक लकीर खींचे जाने का हो। तमाम राजनीतिक पार्टियों के सरोकार जनता से जुड़ते नजर नहीं आये, लेकिन छात्र संघर्ष की कड़ियां हैदराबाद से निकलकर जेएनयू होते हुये कमोवेश देश के हर छात्र को सड़क पर लाकर संघर्ष करते हुये देश को दिखा जरुर गई। तो क्या छात्र संघर्ष का नया नजारा सिर्फ बुलबुला भर नहीं है या अतीत के आंदोलनों से अलग कहीं ज्यादा तीव्र है? क्योंकि याद कीजिए गरीब-मजदूर-दलित और किसान के शोषण के खिलाफ नक्सलबाडी से नक्सल आंदोलन ने जोर पकड़ा तो उसमें शामिल होने आईआईटी के छात्र भी पहुंचे और मुंबई के अलफिस्टन कालेज के छात्र भी पहुंचे। नतीजा, कांग्रेसी सिद्धांत शंकर रे की कुर्सी गई। सीपीएम सत्ता में आई। गुजरात में महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ नवनिर्माण आंदोलन शुरु हुआ तो छात्रों ने देश की राजनीति को सही दिशा में लाने के लिए जोर लगा दिया। नतीजा कांग्रेसी सीएम चिम्मनभाई को इस्तीफा देना पड़ा। इसी दौर में बिहार में जेपी आंदोलन परवान चढ़ा तो उसे मजबूत बनाने का जिम्मा में छात्र राजनीति में राजनीति का ककहरा सीख रहे छात्रों पर ही था, जिन्होने इंदिरा की गद्दी डिगा दी। वीपी ने बोफोर्स छेड़ा तो भ्रष्टाचार के खिलाफ छात्र नारे लगते हुये निकले। आरक्षण के विरोध में छात्र 90 के दशक में सड़क पर उतरे तो राम जन्मभूमि आंदोलन में भी छात्रों का बड़ा तबका कारसेवा के लिए अयोध्या पहुंचा। यानी हर दौर में राजनीतिक लीडरशीप छात्रों का इस्तेमाल कर रही थी। सही मायने में थात्र राजनीति का सियासी अंदाज अगर तीन दशक पहले प्रभुल्ल मंहत के जरीये असम में नजर आया तो दो बरस पहले केजरीवाल के जरीये दिल्ली में भी नजर आया। लेकिन कन्हैया ने आंदोलन के ही नहीं बल्कि वैचारिक राजनीति की जमीन को भी पहली बार जिस तरह जेएनयू कैपस से ही हिलाया। उसने यह सवाल तो खड़ा कर दिया कि क्या वाकई छात्र संघर्ष मौजूदा राजनीति को बदल सकता है या फिर मौजूदा वक्त में राजनीतिक वकल्प को भरने की छटपटाहट भर है रोहित वेमुला के सवाल और कन्हैया के नारे।


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