प्रकाश भटनागर।
दो एक समान गतिविधियों के बीच से भी आप साफ अंतर ढूंढ निकाल सकते हैं। फिर यह मामला तो फर्क ढूंढने के लिहाज से शीशे की तरह साफ है। बात मोबाइल फोन का स्पीकर आॅन करके बात करने की है।
विधानसभा चुनाव से पहले दिग्विजय सिंह ने कमलनाथ के मजे लेने के अंदाज में ऐसा किया था। विधानसभा चुनाव के 100 से अधिक दिन बीत जाने के बाद कमलनाथ ने उर्जा विभाग के अफसरों को लापरवाह मान कर लगाम कसने के लिए ऐसा किया है।
इससे पहले लोकसभा चुनाव के दौरान बिजली कटौती को लेकर भी कमलनाथ सरकार ने सख्त रूख अख्तियार करते हुए हजार से ज्यादा बिजली कर्मचारियों पर कड़ी कार्रवाई की थी। पर न वो कार्रवाई और कमलनाथ का यह रूख प्रदेश की जनता में मुख्यमंत्री के इस कदम से भरोसा पैदा कर पा रहा है।
हालांकि कमलनाथ अब अगर इस पर गंभीर हुए हैं तो इस प्रक्रिया को विस्तार देने की जरूरत है। अखबारों में आज छपी उनकी चिट्ठी यह भरोसा पैदा करने की कोशिश का एक हिस्सा है जिसमें उन्होंने ज्यादा यह जताने की कोशिश की है कि उनकी सरकार पांच साल प्रदेश के विकास के लिए प्रतिबद्ध रहेगी।
जनता में बिजली को लेकर भरोसा पैदा करने की बजाय कमलनाथ की कोशिश सरकार की उम्र पर लोगों का भरोसा कायम करने की ज्यादा है।
पत्रकारिता के करीब तीन दशक के अनुभव में एक शोध की जरूरत मैंने कई बार महसूस की है। मैं चाहता हूं कि सरकारी अफसरों और सत्ताधारी राजनेताओं के दिमाग की पूरी पड़ताल की जाए। पता लग सके कि वहां घाघपने का समुंदर कुर्सी मिलने से पहले ही ठांठें मार रहा था या मामला जन्मजात काबिलियत का है।
बड़ी से बड़ी समस्या पर हाहाकार मचा हुआ हो, लेकिन सत्ता में बैठै राजनेता या अफसर उस पर बात यूं रखेंगे कि जैसे कि कुछ हुआ ही न हो। यदि मामला कमजोर मुख्यमंत्री का हो तो फिर तो ऐसे में नौकरशाह कुटिलता के सारे तटबंध तोड़कर अराजकता का सैलाब लाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं।
बिजली को लेकर कमलनाथ के अतीत को जो लोग जानते हैं, वे उनकी इसमें रूचि को भी समझते ही होंगे। खासकर उर्जा विभाग से जुड़े अफसर तो जरूर जानते ही होंगे। दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्रीत्व काल में कमलनाथ के खास हूकुम सिंह कराड़ा लंबे समय तक बिजली विभाग से संबंधित रहे थे।
तो सरकारी कामकाज की एक विशिष्टि शैली यह भी होती है कि पहले समस्या पैदा करों और फिर उसे दूर करने के लिए भरपूर पैसा खर्च करों। अब कांग्रेस के कुछ राजनेताओं के बिजली के ट्रांसफार्मर, केबल या अन्य उपकरण बनाने के कारखाने हैं तो ऐसा होना लाजिमी भी है।
समस्या का एक कारण यह भी है कि लोकसभा चुनाव के दौरान बिजली अफसरों को निर्देश थे कि बिजली किसी भी कीमत पर नहीं जानी चाहिए,भले ही इसके लिए मेंटेनेंस को टाला जाए। अब अगर गर्मियों पर लाइनों पर लोड बढ़ रहा है तो बिजली ट्रेप होगी ही।
हाल के महीनों में एक लाख साठ हजार बार के आसपास ऐसा हुआ। 2018 में भी शिवराज सरकार के दौरान इन्हीं दिनों में बस इससे कुछ कम हजार बार बिजली ट्रेप हुई थी।
मेरे एक सहयोगी हाल ही में छुट्टी पर रीवा अपने गांव गए थे। उन्होंने बताया कि वहां आंधी तूफान के कारण बिजली के कई खंभे गिर गए। उन्होंने बिजली विभाग के सहायक यंत्री से बात की तो उसने अपनी दिक्कत बताई, विभाग के पास बजट ही नहीं है, एक भी खंभा या ट्रांसफार्मर कुछ नहीं बदल सकता। ये भी जमीनी हकीकत का एक किस्सा है।
जाहिर है अकेले विधायकों से टेलीफोन पर माइक आॅन करके आप समस्या के एक ही पहलू पर जा पाए हैं। जरा जनता जनार्दन के बीच भी निकल सको तो निकलो। इससे पहले मध्यप्रदेश ने एक ऐसा मुख्यमंत्री एक दशक से ज्यादा समय तक देखा है जिसका जनता से संवाद जबरदस्त किस्म का था।
नरेंद्र मोदी उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे। हर सुबह वह राज्य के एक-एक कलेक्टर से वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये बात करते। योजनाओं के अनुपालन की जानकारी लेते। नये काम सौंपते और पुराने कामों की प्रगति स्थिति भी मांगते थे। क्या आपने अब तक इस दिशा में कोई कदम बढ़ाया है?
कमलनाथ सरकार की तो कायदे से फर्स्ट प्रायरटी तबादला नजर आ रही है। अब गर्मी के इसी माहौल में आपके सारे जनप्रतिनिधि, मंत्री तबादलों में व्यस्त हो जाएंगे तो फिर बिजली की चिंता कम से कम मुख्यमंत्री तो करते रहें।
बाकी तो लोगों की ऐसी मानसिकता है ही कि अब कांग्रेस सरकार आ गई है तो फिर बिजली का क्या रोना? बिजली को लेकर वाकई प्रदेश में हाहाकार मचा हुआ है। लोगों के जेहन में हर पल याद आ रहा है दिग्विजय सिंह का वह समय, जब ऊर्जा के इस स्रोत की कमी के चलते सारा प्रदेश कराह उठा था।
खैर, दिग्विजय तो चुनाव मैनेजमेंट में मशगूल थे इसलिए अफसरों के बताये को दोहराते रहे। इसी फेर में वह समझ ही नहीं सके कि कब प्रदेश की जनता ने उन्हें उखाड़ फेंकने का मन बना लिया। नाथ को अपने सियासी भाई की इस दुर्गति को ध्यान में रखकर ही कदम उठाने होंगे।
इस वक्त प्रदेश में पानी का भी भीषण संकट है। यह भी एक शाश्वत समस्या है जिसका इलाज केवल बेहतर प्रबंधन से ही संभव है। फिलहाल आपका प्रबंधन कहीं और व्यस्त होने जा रहा है। यह सही है कि जनता की समस्याएं और अपेक्षा, दोनों ही अनंत हैं।
न समस्याएं पूरी तरह दूर की जा सकती हैं और न ही हर अपेक्षा को पूरा करना संभव है। किंतु यह तो किया ही जा सकता है कि वाजिब समस्याओं का हल हो और इसी श्रेणी की अपेक्षाओं पर सरकार खरी उतरे। नाथ का बहुत लम्बा राजनीतिक अनुभव है।
केन्द्र सरकार में किन्हीं एक-दो विभागों का मंत्री होना अलग बात है, मुख्यमंत्री तो वे पहली बार बने हैं, वो भी ऐसी सरकार के जिसमें सरकार में बैठे लोग ही अनिश्चिंता के शिकार दिख रहे हैं।
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