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विकास को टिकाउ और मजबूत बनाने के बारे में भी सोचें

खरी-खरी            Apr 24, 2018


राकेश दुबे।
अब वह समय आ गया है जब भारत के नीति निर्धारकों को विकास के उस माडल पर काम करना शुरू कर देना चाहिए जिसकी बात आज विश्व में हो रही है। समग्र विकास और उसमें समान हिस्सेदारी।

वर्ल्ड इकनॉमिक आउटलुक (डब्ल्यूईओ) के मुताबिक फ्रांस को पीछे धकेल कर भारत विश्व की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। इंडियन इकॉनमी का आकार अब 2.6 लाख करोड़ डॉलर हो गया है, जो 2.5 लाख करोड़ डॉलर के मानक के मुकाबले ठीकठाक ऊपर है।

माना जाता रहा है कि 2.5 लाख करोड़ डॉलर वाला बिंदु विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को बड़ा बनने की कोशिश में लगी अर्थव्यवस्थाओं से अलग करता है। हालांकि फ्रांस भी भारत से ज्यादा पीछे नहीं है और कुछ अनुमान बता रहे हैं कि शायद इसी साल वह भारत को पछाड़ कर फिर से छठा स्थान हासिल कर ले। मगर भारतीय नीति निर्माता इस उपलब्धि को यूं ही हाथ से नहीं निकलने देना चाहेंगे।

वैसे एक लिहाज से यह है भी नंबर गेम ही है। देश एक स्थान ऊपर माना जाए या नीचे, इससे न तो देश में रोजगार की स्थिति बेहतर होने वाली है, न ही कंपनियों के मुनाफे में कोई फर्क दिखने वाला है। लेकिन अच्छी रैंकिंग न केवल उम्मीद का माहौल बनाती है बल्कि दुनिया को धारणा बनाने में मदद भी करती है। इसका सीधा असर निवेश संबंधी फैसलों पर पड़ता है।

विश्व बैंक और मुद्रा कोष ने माना है कि नोटबंदी और जीएसटी जैसे आवश्यक सुधारों से पैदा हुई कठिनाइयों से भारत काफी हद तक उबर चुका है और अब इसके अच्छे नतीजे दिखने शुरू हो सकते हैं। इसके साथ दोनों ने यह नसीहत भी दी है कि इन संभावनाओं का पूरा फायदा उठाने के लिए सुधार के लंबित पड़े अजेंडे पर तेजी से अमल शुरू करना जरूरी है।

अर्थव्यवस्था की इस रैंकिंग से उपजे उत्साह में हमें इसकी सीमाएं याद रखनी चाहिए। आज छठा स्थान हमें रोमांचित कर रहा है, पर गणना की दूसरी पद्धति पीपीपी यानी परचेजिंग पावर पैरिटी के हिसाब से तो हम तीसरे स्थान पर खड़े हैं।

यानी हमारा मार्केट हमसे कहीं ज्यादा बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों से भी ज्यादा बड़ा है। इसके बावजूद हम बाल कुपोषण, महिला अशिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं तक लोगों की पहुंच जैसे मामलों में अपने से बहुत छोटी और पिछड़ी अर्थव्यवस्थाओं से भी पीछे हैं।

यानी अपने देश में आम नागरिकों को जैसा जीवन हम उपलब्ध करवा पाए हैं उसकी क्वॉलिटी की उन देशों से कोई तुलना नहीं हो सकती, जिनसे आर्थिक विकास के आंकड़ों की लड़ाई हम लड़ रहे हैं।

साफ है कि किसी भी सरकार के लिए इन आंकड़ों से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह बनना चाहिए कि आर्थिक विकास से पैदा होने वाले संसाधनों का देशवासियों के बीच बंटवारा कितना न्यायपूर्ण है। जिस विकास की बात अभी की जा रही है, उसे टिकाऊ और मजबूत बनाने के बारे में सोचने का यही समय है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रतिदिन पत्रिका के संपादक हैं।

 


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