राकेश दुबे।
मौसम ने भारत में करवट बदली है। ऋतु चक्र पृथक रूप में दिख रहा है, मई के पहले सप्ताह में ही वर्षा के बादल दिख रहे हैं, मानसून के समय से पहले आने की भविष्यवाणी हो रही है।
प्रकृति प्यासों को पानी पहुँचाने का प्रबंध कर रही है। यहां बड़ा प्रश्न यह है कि क्या हमारे नीति-नियंता विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले इलाकों की बात तो छोड़ दें, सामान्य स्थानो पर भी घर-घर पानी पहुंचाने में कामयाब रहे हैं? आपका उत्तर भी नहीं में ही आएगा।
यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि क्यों आजादी के अमृत महोत्सव काल में लोग अमृत तो दूर, पानी को भी तरस रहे हैं।
लगभग यह स्थिति पर्वतीय व मैदानी इलाकों में समान रूप से देखी जा रही है। सारे देश को सींचने वाली नदियां देने वाले पहाड़ों के लोग यदि प्यासे रहें तो इससे बड़ी विडंबना कोई और नहीं है।
नीति-नियंताओं की विफलता के चलते ही कहा जाता है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आती। पानी नदियों में बह जाता है और जवानी रोजगार की तलाश में मैदानों में उतर जाती है।
इस समस्या से अब मैदानी राज्य भी जूझ रहे हैं। ज़्यादा दूर की बात छोड़ भी दें, तो देश की राजधानी दिल्ली में पीने के पानी को लेकर दो दृश्य दिखते हैं। कहीं अतिरिक पानी बहाना अपनी शान समझा जा रहा है तो कहीं एक मटके पानी के लिए तरसती भीड़ दिखती है।
विकास के नाम पर गगनचुंबी इमारतें तरक्की की नई इबारत लिखती दिखती हैं, परंतु उनकी नींव में प्यासे लोगों की भीड़ है।
प्रश्न ये है कि इसके कई इलाके आजादी के सात दशक बाद भी पानी के संकट से क्यों जूझ रहे हैं? क्यों बहू-बेटियों को सुबह -शाम पानी के मटकों को लाने-ले जाने में अपना जीवन खपाना पड़ता है?
जिस समय का उपयोग उन्हें अपने व परिवार को संवारने में करना था, उसे वे पानी ढोने में गुजारती हैं। कैसी विडंबना है कि मानव जीवन की मूलभूत आवश्यकता पानी भी सत्ताधीश अपनी जनता को उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं।
देश और राज्य के चुनाव में चांद-तारे तोड़ लाने के वायदे करने वाले राजनेता पानी जैसी प्रारंभिक जरूरत पूरी करने में क्यों नाकाम हैं?
यह स्वाभाविक है कि गर्मियों में यह संकट गहरा हो जाता है। तमाम जल स्रोतों का संकुचन होता है।
विद्युत आपूर्ति बाधित होती है जिसके चलते पेयजल संकट और गहरा जाता है।लेकिन इसके कोई ठोस योजना भी तो देश में दिखाई नहीं देती।
पीने के पानी की योजना में पानी की जगह भ्रष्टाचार बहता है।जो पूरे देश में निर्बाध गति से फैल रहा है।
मुद्दे की बात यह है कि जब पता है कि हर साल गर्मियों में पानी का संकट पैदा होने वाला है तो पहले से तैयारी क्यों नहीं की जाती?
आखिर हमारे प्रशासक आग लगने पर कुंआ खोदने की आदत से कब मुक्त होंगे?
‘हर घर नल से जल’ का नारा तब खोखला नजर आता है जब महिलाओं को गर्मी व सूरज की तपिश में पानी के लिये जाते देखते हैं। आखिर क्यों बहू-बेटियों की ऊर्जा आज 21 वीं सदी में भी पानी ढोने में खर्च होती है? फिर वे कितना पानी इन मटकों-बाल्टियों में ला पायेंगी?
देश के कई जिलों में खारा पानी होने से यह समस्या और जटिल हो रही है। पेयजल यानी मीठे पानी के लिए प्रकृति की मेहरबानी का आभारी होना चाहिए हम तो देश के सारे ज़िलों को मीठा पानी पहुँचाने में सफल नहीं हुए हैं।
राज्य और केंद्र सरकार की पहली प्राथमिकता पेयजल की आपूर्ति होना चाहिए।
सरकारें कैसे कार्य करती हैं उसकी कहानी अधूरी जल प्रदाय योजनए कई ज़िलों में सामने आती है। इस योजना की आधारशिला अगर किसी एक राजनीतिक दल की सरकार ने रखी, चुनाव बाद दूसरे राजनीतिक दल के शीर्ष नेतृत्व ने अगले चरण का शुभारंभ का बोर्ड लगा दिया, प्यास और प्यासे बढ़ते रहे।
दरअसल, योजना का मकसद क्षेत्र के लोगों का पेयजल संकट दूर करना होना चाहिए था।
विडंबना देखिये कि पूरे देश में आज़ादी के 75 वर्ष गुजरने के बावजूद पीने के शुद्ध पानी योजना सिरे नहीं चढ़ सकी है। इस योजना से लाभान्वित होने की जगह लक्षित गांव आज भी प्यासे हैं, और इनकी संख्या हर साल बढ़ रही है।
तमाम प्रचार के बावजूद परिणाम शून्य है ,जो बताता है कि हमारा शासन-प्रशासन पानी जैसी मूलभूत आवश्यकता को लेकर कितना संवेदनहीन है।
हर चुनाव में नये मुद्दे, नये सपने, नये वायदे, और परिणाम ? जो देश के लोकतंत्र में लोकलुभावनी घोषणाओं और उनके क्रियान्वयन के बड़े अंतर को दर्शाता है।
निस्संदेह, इन तमाम मुद्दों पर जनता को जागरूक होकर लोकलुभावनी घोषणाओं के क्रियान्वयन पर जनप्रतिनिधियों से जवाब मांगने की स्वस्थ परंपरा की शुरुआत करनी होगी।
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