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भारत के पैमाने पर बिहार के संस्थान तलहटी में पाए गए

खरी-खरी            Jan 27, 2025


हेमंत कुमार झा।

दुनिया के पैमाने पर भारत के संस्थान शैक्षणिक गुणवत्ता में बहुत नीचे पाए गए हैं और भारत के पैमाने पर बिहार के संस्थान एकदम नीचे तलहटी में पाए गए हैं।

यानी, अगर दुनिया के पैमाने पर बिहार को देखें तो यह इतने नीचे की तलहटी में कहीं होगा जिसे देखने के लिए थोड़ी बहुत खुदाई और बेहद पावरफुल टॉर्च की जरूरत होगी।

वहीं, अगर शैक्षणिक तंत्र में भ्रष्टाचार के स्तर की ग्रेडिंग हो तो बिहार बिना किसी तर्क वितर्क के भारत में पहले पायदान पर नजर आएगा। अब, जब भारत में पहले पायदान पर आएगा तो दुनिया में स्वतः ही फर्स्ट पोजीशन हासिल कर लेगा

तो, हमारा बिहार...शैक्षणिक गुणवत्ता में दुनिया में सबसे नीचे की पंक्ति में और भ्रष्ट शिक्षा तंत्र को विकसित करने में सबसे आगे की पंक्ति में।

कुछ तो कारण है कि अपनी आबादी के अनुपात में मजदूर श्रेणी के लोग उगलने में बिहार भारत में तो नंबर वन है ही, दुनिया में भी अगुआ है। यहां का सिस्टम यह सुनिश्चित करता है कि कोई निर्धन बच्चा पहली क्लास से एम ए तक की शिक्षा गुणवत्ता के मानकों के साथ ग्रहण न कर सके।

आखिर, "मेक इन इंडिया" के लिए मजदूरों की जरूरत है कि नहीं? वह भी बेहद कम मजूरी पर।

अपना बिहार हाजिर है न। कंपनी के गेट पर सिक्यूरिटी गार्ड चाहिए? यहां से ले जाओ। रेस्टोरेंट और रिजॉर्ट में वेटर चाहिए? बिहार है न। बोरियां उठाने वाले मजबूत कद काठी के लोग चाहिए? ले जाओ गंगा किनारे के युवाओं को। रिक्शा, टेंपू चलवाना हो, फैक्ट्री में मजदूरी करवानी हो...महानगरों के रेलवे स्टेशनों पर रोज हजारों की तादाद में बिहारी उतरते हैं इन कामों के लिए।

यह हमारे बिहार में ही संभव है कि कोई बच्चा फिजिक्स, केमेस्ट्री, जूलॉजी आदि में ऑनर्स ग्रेजुएट हो जाए, वह भी फर्स्ट क्लास में, लेकिन उसने अपने पूरे छात्र जीवन में प्रयोगशाला नामक स्थान देखा तक नहीं हो।

यह भी बिहार में ही संभव है कि एक भरे पूरे सरकारी कॉलेज में हजारों बच्चों का नामांकन हो लेकिन उस कॉलेज में फिजिक्स, केमेस्ट्री, मैथ, बॉटनी में प्रोफेसर्स की संख्या निल हो।

सरकारी कॉलेज। साइंस विषयों का कोई टीचर नहीं, कोई लैब टेक्नीशियन नहीं, आर्ट्स विषयों में भी इक्के दुक्के विषयों में टीचर, बाकी सब विभाग टीचर विहीन।

लेकिन...

प्रतिवर्ष वहां नामांकन होता है, हजारों बच्चों का। फिर वे एक दिन परीक्षा फॉर्म भी भरते हैं, परीक्षा भी देते हैं और विभिन्न डिविजनों में पास भी हो जाते हैं।

फिर, ये बच्चे आते हैं रोजगार के बाजार में, कंपीटिशन की दुनिया में। क्या हाल होगा इनका, कोई भी सोच सकता है।

दुनिया के पैमाने पर सबसे निचले स्तरों के संस्थान।

नहीं, फंड की कमी नहीं। बिहार देश के अन्य राज्यों के मुकाबले अपने बजट का सबसे बड़ा हिस्सा शिक्षा पर ही खर्च करता है।

वो एक चर्चित शब्द है न...नेता अधिकारी नेक्सस। अंग्रेजी में जिसे पॉलिटीशियन ब्यूरोक्रेट नेक्सस कहते हैं। इसमें जोड़ दीजिए पॉलिटीशियन इंटेलेक्चुअल नेक्सस।

आखिर, हम विश्वविद्यालयों के उन कर्णधार अधिकारियों को इंटेलेक्चुअल ही बोलेंगे न, जो बीते दस बीस वर्षों से उन पर काबिज रहे हैं और उनमें से बहुतों ने उन्हें इस मुकाम तक गिराने में अपना भरपूर योगदान दिया है। वे मूलतः शिक्षक समुदाय से ही आए और विश्वविद्यालयों की लगाम उन्हें थमाई गई।

इंटेलेक्चुअल समुदाय में बहुतेरे ऐसे निकले जिन्होंने दुनिया को दिखा दिया कि जब बुद्धिजीवी नैतिक और प्रवृत्तिगत स्तरों पर नीचे उतरने लगता है तो राज्य और समाज कितना पतनोन्मुख हो सकता है।

भूमंडलीकरण अपना एक चक्र पूरा कर चुका है और हम देख सकते हैं कि आज रोजगार और श्रम का आयात निर्यात पूरी दुनिया में किस बड़े पैमाने पर हो रहा है। श्रम के इस निर्यात बाजार में आज एक आम बिहारी कहां है?

औद्योगिक संघ और संगठन चिंता व्यक्त करते यह बताते हैं कि हमारे अधिसंख्य युवा अच्छी शिक्षा, अच्छा शैक्षणिक माहौल नहीं प्राप्त कर पा रहे और महज कुछ डिग्रियां लेकर परिसरों से निकल रहे हैं। वे रोजगार पाने लायक योग्यता हासिल नहीं कर रहे।

तो, ऐसे डिग्रीधारियों का भूमंडलीकृत रोजगार के बाजार में क्या वैल्यू है? बाजार चाहे जितना विस्तार पाए, रोजगार के बाजार में तो कंपीटिशन रहेगा ही। अच्छे रोजगार के लिए और अधिक कठिन कंपीटिशन।

वैश्वीकरण के जो लाभ रोजगार के सेक्टर में मिले हैं उसका लाभ उठा पाने में आम बिहारी युवा नितांत असमर्थ है क्योंकि उसके राज्य ने, उसके समाज ने उसके शैक्षणिक पहलुओं के साथ घोर नाइंसाफी की है।

बेरोजगारी बढ़ाने में अगर संस्थागत कारण सबसे बड़े हों तो यह उस समाज का ऐसा संकट है जिसका निदान अंततः नेताओं और बुद्धिजीवियों को ही खोजना होगा। जनता से इन मुद्दों पर क्रांति, आंदोलन आदि की बातें सोचना भी बेमानी है। छात्र और शिक्षक संगठनों से उम्मीदें रही हैं क्योंकि अतीत में उन्होंने ऐसे मुद्दों पर बड़ी लड़ाइयां लड़ी हैं। लेकिन, आज अधिकांश संस्थानों में छात्र संघ अस्तित्व में ही नहीं और शिक्षक संघ निष्प्राण हैं।

एक डीईओ की कारस्तानी जब हमारे सामने आज आई तो हम मजे ले रहे हैं। नोटो के बंडलों के एक से एक वीडियो।

लेकिन, यह एक तमाशा नहीं है। यह राज्य, समाज और व्यक्ति...सबके लिए चिंतित होने का वक्त है...अगर उनके बच्चों को बिहार में ही पढ़ाई करनी है ।

लेखक पटना यूनिवर्सिटी में एशोसिएट प्रोफेसर हैं।

 


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