राकेश दुबे।
जीवन भर नौकरी के जरिये सेवा करने वाले व्यक्ति को बुढ़ापे के लिये आर्थिक संरक्षण एक ऐसा प्रश्न है जिसका स्पष्ट उत्तर हर भूतपूर्व और वर्तमान कर्मचारी चाहता है। भाजपा और कांग्रेस इस मुद्दे पर एक नहीं हो पा रही है।
पिछले दिनों गैर-भाजपा शासित राज्यों ने पुरानी पेंशन योजना को लागू करके जो राजनीतिक ब्रह्मास्त्र चलाया है, उससे केंद्र की भाजपा सरकार और वे राज्य सरकार सांसत में हैं जहां चुनाव होने वाले हैं ।
आर्थिक सुधारों व वित्तीय संतुलन की कवायद के बीच पुरानी पेंशन के देशव्यापी बोझ से अर्थव्यवस्था के दबाव में आने की आशंका तीसरा पक्ष यानि जाने-माने अर्थशास्त्री जता रहे हैं।
सब जानते हैं पिछले दिनों हिमाचल विधान सभा के चुनाव में ओल्ड पेंशन बड़ा सियासी मुद्दा बना, भाजपा ने उसकी कीमत भी चुकाई। बताते हैं कि पेंशन योजना लागू होने से राज्य पर नई पेंशन के मुकाबले चार गुना वित्तीय बोझ बढ़ेगा।
ऐसे में पहले ही कर्ज में डूबी सरकारें वित्तीय सुशासन स्थापित कर पाएंगी, इस बात में संदेह है, वहीं केंद्र की तरफ से कोई वित्तीय सहयोग की बात नहीं कही गई है।
पिछले दिनों कांग्रेस शासित राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड, हिमाचल व पंजाब सरकार ने पुरानी पेंशन योजना लागू की है।
दरअसल, 18 साल पहले पुरानी पेंशन योजना को बदलकर नई पेंशन योजना को लागू किया गया। पुरानी पेंशन का निर्धारण मूल वेतन और महंगाई भत्ते के आधार पर होता था।
जबकि नई पेंशन योजना हेतु कर्मचारी के वेतन से काटे गये अंश से ही पेंशन दी जाती है। उसकी कोई न्यूनतम सीमा नहीं होती है और सेवा अवधि कम होने पर यह थोड़ी रह जाती है।
कर्मियों के वेतन से कटे पैसे का पचासी फीसदी सरकारी प्रतिभूतियों तथा बाकी पंद्रह फीसदी खुले बाजार में निवेश किया जाता है, जिसकी आय से कर्मियों को पेंशन का भुगतान होता है।
निस्संदेह, जीवन भर नौकरी के जरिये सेवा करने वाले व्यक्ति को बुढ़ापे के लिये आर्थिक संरक्षण जरूरी है। ये लोककल्याणकारी सरकारों का दायित्व भी होता है, लेकिन लोककल्याण का मतलब ऐसा भी नहीं होना चाहिए कि देश की हालत श्रीलंका व पाकिस्तान जैसी हो जाए।
इस योजना से कर्मचारियों में उत्साह है और अन्य राज्यों में भी कर्मचारी संगठन इसे लागू करवाने के लिये दबाव बना रहे हैं।
चिंता भी जताई जा रही है कि कहीं ये मुद्दा अगले आम चुनाव में भाजपा के लिये मु्श्किलें पैदा न कर दे।
वहीं देश के कई जाने-माने अर्थशास्त्री और योजना आयोग के पूर्व डिप्टी चेयरमैन मोंटेक सिंह अहलूवालिया ओल्ड पेंशन योजना को अव्यावहारिक व भविष्य में आर्थिक कंगाली लाने वाला बता चुके हैं।
उन्होंने पिछले दिनों कहा कि इसका परिणाम यह होगा कि दस साल बाद वित्तीय अराजकता पैदा हो जाएगी। उनके बयान के बाद इस मुद्दे पर नये सिरे से बहस छिड़ गई है।
कांग्रेस की मनमोहन सरकार के दौरान योजना आयोग के डिप्टी चेयरमैन रहे अहलूवालिया नब्बे के दशक के बाद के तीन दशकों में देश के आर्थिक सुधार कार्यक्रमों से गहरे तक जुड़े रहे हैं।
वे लुभावनी राजनीति करने वाले नेताओं को चेता चुके हैं कि “अर्थशास्त्री के नाते मैं कहूंगा वे ऐसे कदम उठाने से बचें जो भविष्य में वित्तीय तबाही के कारक बन सकते हैं।“
दरअसल, अर्थशास्त्री मानते हैं कि देश की जनता को जागरूक करने की जरूरत है कि इस फैसले की भविष्य में हमें कीमत चुकानी पड़ेगी और विकास के हिस्से का धन गैर-उत्पादक कार्यों में खर्च होगा।
कर्मचारियों को तो इसका लाभ होगा, लेकिन देश का बड़ा तबका उसकी कीमत चुकाएगा। केंद्र सरकार पर इसको लागू करने का दबाव होगा, लेकिन साथ ही इसके दूसरे पक्ष को भी लोगों को समझना चाहिए।
आर्थिक पंडितों का मानना है कि राजनीतिक तौर पर लिये गये गैरजिम्मेदार फैसले की कीमत आगे आने वाली पीढ़ी को चुकानी पड़ सकती है।
सर्वविदित है कि पेंशन का मामला राज्य सरकारों के अधीन होता है, राज्यों को इसी तरह उसके कार्यक्षेत्र में आने वाले कानून-व्यवस्था तथा नागरिक सुविधाओं की निरंतर और सहज आपूर्ति में सुधार के जरिये लोगों के जीवन में राहत लाने का प्रयास करना चाहिए।
वस्तुतः इस विषय को लेकर राजनीतिक व सामाजिक स्तर पर अखबारों व अन्य मीडिया के जरिये देश के व्यापक आर्थिक हितों को लेकर रचनात्मक बहस होनी चाहिए।
बताना चाहिए कि देश व राज्य के दीर्घकालिक भविष्य के लिये क्या जरूरी है? ऐसा न हो कि हमने पिछले दशकों में आर्थिक सुधारों से जो कामयाबी हासिल की है, उसकी दिशा उलटी हो जाये।
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