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संपादक संस्था की हत्या का शाप! भाले की शक्ल वाला मीडिया अब छाते की शक्ल में

खरी-खरी, मीडिया            Apr 21, 2018


राकेश दुबे।
मध्यप्रदेश के मीडिया में भारतीय जनता पार्टी के नव नियुक्त प्रदेशाध्यक्ष राकेश सिंह द्वारा मीडिया के बारे में की गई टिप्पणी चर्चित है।

इलेक्टानिक मीडिया पर उपलब्ध घटना के फुटेज, घटनाक्रम और उस पर सम्पूर्ण मीडिया में जारी बहस इस नये पदाधिकारी के संस्कार के साथ भारतीय जनता पार्टी के उस विवेक पर भी प्रश्न चिन्ह खड़े करता है, जिसके तहत यह व्यक्ति भाजपा संसदीय दल का सचेतक और अब मध्यप्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बनाया गया है।

जबलपुर संस्कारधानी कही जाती है, वहां के भाजपा नेता संस्कार की मिसाल रहे हैं। इतना क्षरण जबलपुर के संस्कारों में कैसे हो गया कि सरे आम गलती के बाद माफ़ी के बजाय मीडिया के कुछ लोगों को प्रदेश कार्यालय में प्रतिबन्ध पर नये अधिकारी विचार करने लगे।

इस मामले का एक दूसरा पहलु भी है, मीडिया में स्व नियन्त्रण का अभाव।

राकेश सिंह ने मीडिया को बहुत हल्के में लिया और टिप्पणी कर दी “मीडिया तो कुछ मिलने पर समाचार देता है”।

यह बात गंभीर है और वर्तमान पद, भाजपा- मीडिया की प्रतिष्ठा के विपरीत वह भी आसन्न चुनाव के परिप्रेक्ष्य में भाजपा के वरिष्ठ नेता श्री कैलाश जोशी ने अपनी टिप्पणी में कह ही दिया है कि “अब अच्छे गार्ड नहीं मिलते हैं।” जोशी जी की टिप्पणी गंभीर थी और मिसाल सामने आ गई।

भाजपा को क्या करना है? उसे मीडिया से कैसे रिश्ते रखने हैं वह जाने। जहाँ तक मीडिया का सवाल है उसमे जो क्षरण आया है उसकी जद में “संपादक संस्था” का मजबूत न होना है।

अब मीडिया हॉउस में संपादक संस्था समाप्त होती दिखाई देती है और संपादकीय नियन्त्रण जैसे संस्कार विल्पुत वस्तु। सारे नियन्त्रण प्रबन्धन और मालिकों के हाथ में होते जा रहे हैं। ऐसे में इस तरह की घटिया सोच और टिप्पणी होना स्वभाविक है।

प्रदेश ने इस संस्था की मजबूती को भी देखा है, जिसने सरकार को घुटनों पर ला दिया था। इस रोग की शुरुआत मि० क्लीन कहे जाने वाले एक बड़े नेता के जमाने से हुई है, जिन्होंने “मीडिया बाईंग” जैसी अवधारणा को जन्म दिया था।

दुर्भाग्य से भारतीय मीडिया जो कभी भाले की शक्ल का होता था अब छाते की शक्ल का होता जा रहा है।

कोई मीडिया हॉउस की आड़ में अपने उद्योग लगाता है, तो कोई उद्योग ढाल के रूप मीडिया का उपयोग करता है।

संपादक या तो होते ही नहीं है या उनके कर्तव्यों में संपादकीय दायित्वों को छोड़ इतर कार्य होते हैं।

ऐसे में राकेश सिंह जैसे लोग टिप्पणी नही तो क्या करेंगे? संपादक संस्था की हत्या में सबकी भागीदारी है। अब हत्या का शाप सामने आ रहा है। इसे भोगना होगा।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और प्रतिदिन पत्रिका के संपादक हैं।

 

 

 


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