श्रीकांत सक्सेना।
1984 में आज की उत्तर आधुनिक दुनिया के सबसे चर्चित दार्शनिक मिशेल फूको,एड्स के कारण इस दुनिया-ए-फ़ानी से कूच कर गए।
चूँकि चालीस-पचास साल तक दुनिया भर में ख़ुद को आधुनिक कहलाने वाले पुराने पड़ चुके थे,सो अब ज़रूरत आधुनिक से कुछ और आधुनिक कहलाए जाने की थी।
लिहाज़ा सभी दार्शनिक रेसीपीज़ की धरती फ़्रांस में दर्शन के कुछ नये बावर्चियों ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए एक नई रेसिपी तैयार कर ली और उत्तर आधुनिक दार्शनिकों का अवतरण हो गया।
इनमें सबसे आगे रहे मिशेल फूको जिनकी मान्यता है कि सत्ता हासिल करने के लिए दो चीज़ें ज़रूरी हैं,सूचना और लोकविमर्श।
आसान लफ़्ज़ों में कहें तो लोगों का वृहद् डाटाबैंक,उसकी संरचना और लोगों को उलझाने लायक़ कोई ऐसा मुद्दा जिसे वे थोड़ी देर के लिए घरों,दफ़्तरों बाज़ारों,शराबख़ानों और वेश्यालयों में चुभला सकें।
अगर आप कोई ऐसा मुद्दा ढूँढ निकाल सकें जो महीने-दो महीने भी चल जाए तो सत्ता की चाभी निश्चित ही आपके हाथों में आ जाती है।
फूको तो फूट लिए लेकिन दुनियाभर के राजनेताओं ने इस कुंजी को रट-रटकर न जाने कितने इम्तेहान पास कर लिए।
पश्चिम को लोकतांत्रिक संस्थाओं का गहवारा कहा जाता हैं। वहाँ की हर पार्टी ने हर चुनाव में इस फ़ार्मूले को आज़माया।
नेताओं के आचरण के बारे में शोध करके ज्ञान यानि डाटाबैंक तैयार किए गए और समाज में एक तात्कालिक विमर्श खड़ा करके नेताओं को चित्त किया जाने लगा।
इंग्लैंड,अमरीका,फ़्रांस यहाँ तक कि कनाडा में भी,हर जगह डिसकोर्स की डॉनडम दिखाई दिया।
अपुन तो शाश्वत विश्वगुरु है,साईंस हो या दर्शन,आविष्कारों और ज्ञान की एक भी दास्ताँ ऐसी नहीं जो हमारे वेदों या पुराणों में पहले से ही मौजूद न हो, वो भी यूरोप और अमरीका से हज़ारों-लाखों साल पहले।
वो चाहे हवाई जहाज़ हों रॉकेट साईंस कम्प्यूटर भाषा या फिर शून्य की खोज।यह अलग बात है कि हम अपने ज्ञान को अलमारियों से झाड़कर तब निकालते हैं जब पश्चिम में वो प्रसिद्ध हो चुका हो।
दरअसल,एहतियात के तौर पर हमने एक भी आविष्कार,खोज या दार्शनिक परंपरा तब तक अपने पिटारे से नहीं निकाली जबतक पश्चिम अपने पत्ते पूरे न खोल चुका हो।
बहरहाल आज इस सब पर विमर्श इसलिए कि फूको के फ़ार्मूले पर हिंदुस्तान ने अब सारी दुनिया को बहुत बहुत पीछे छोड़ दिया है।
हमारी हुकूमत और डेढ़ सौ से ज़्यादा न्यूज़ चैनल्स जितनी तेज़ी से लोकविमर्श तैयार करते हैं उतनी तेज़ी की कल्पना करना तक किसी भी पश्चिमी देश के लिए नामुमकिन है।
पप्पू की पगलौट,एजी,टूजी,फोरजी,कोल-गेट,बोफ़ोर्स-गेट,रिया-सुशांत,ज़ात-जेहाद,अदालत-प्रशांत,हम भले ही किसी ‘आरोपी’ को अदालतों से सज़ा न दिलवा सके हों ,लेकिन चुनावों की चौपालों और संसद के कैसीनो में हमने फूको के फ़ार्मूले को बख़ूबी आज़माया है।
सोशल मीडिया पर सवार होकर जब-जब हमारे महारथी प्रयाण करते हैं तो शत्रुपक्ष त्राहिमाम-त्राहिमाम करने लगता है।
और तो और जब सरकार के फ़ैसले फ़ुस्स हो जाएँ या जब वज़ीर पिटने को हो तो सोशल मीडिया से उत्पन्न प्यादों की एक पूरी फ़ौज फटाफट नया डिसकोर्स तैयार करके वज़ीर को बचा ले जाती है।
भले ही फूको,पॉवर की कुंजी और लोकविमर्श का फादर हो लेकिन उसके ग्रांड फादर,ग्रेट ग्रांड फादर और ग्रेट-ग्रेट ग्रांड फादर तो हमारे ही पास हैं।इस बात पर आपका सिर गर्व से उठे या आपका माथा फिरे,सानू की।
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