मनोज कुमार।
इंदौर में मौत की बावड़ी से धडक़न टूटने की गिनती हो रही है। सबके अपने सूत्र, सबके अपने आंकड़ें। पलकें नम हो गई हैं।
हर कोई इस विपदा से दुखी और बेबस है, खबरों की फेहरिस्त है। कोई शासन-प्रशासन को गरियाने में लगा है तो कोई इस बात की तह तक जाने की जल्दबाजी में है कि हादसा हुआ कैसे?
सब खबरों और हेडलाइंस तक अपने आपको सीमित रखे हुए हैं। इस हादसे में अगर प्रशासन नाकाम है तो यह कौन सी नयी बात है?
राजनेता हादसे को भुनाने में लग गए तो इसमें हैरानी कैसी?
यह ना तो पहली दफा हो रहा है और ना आखिरी दफा है। प्रशासन का निकम्मापन हमेशा और हर हादसे में उजागर होता रहा है और शायद आगे भी उसका वही रवैया रहे।
इसमें सियापा करने की कोई बहुत ज्यादा जरूरत नहीं है। जिंदगी को रूसवा करने और मौत को रुपयों से तौलने की रवायत भी पुरानी हो चुकी है।
रुपये नम आंखों में खुशी ला सकते तो क्या बात थी कि हर रईस मौत से मालामाल हो जाता।
कभी उन घरों में आज से चार-छह हफ्ते बाद जाकर पूछें और देखें उन बच्चों को जिनकी मां ने उनके सामने दम तोड़ दिया या पिता का साया सिर से उठ गया। किसी का पति चला गया तो किसी का घर सुना हो गया।
थोड़े दिनों बाद जिंदगी पटरी पर आज जाएगी और फिर किसी हादसे पर यही रोना-पीटना और सांत्वना देने का सिलसिला शुरू हो जाएगा।
मौत की बावड़ी से एक शब्द मुंह से बेसाख्ता निकलता है आह इंदौर! और इसके बाद जुबान पर आता है वाह इंदौरी!
इंदौर का यह हादसा पहली बार किसी शहर में होने वाला हादसा नहीं है।
अक्सर खबरों में देश के अलग-अलग शहरों और कस्बों में ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण सूचना मिलती रही है लेकिन इंदौरी जो कर जाते हैं, वह इंदौर से सटे दो-पांच सौ किलोमीटर के शहर में देखने-सुनने में नहीं आया। हादसे की खबर सुनते ही पूरे शहर में सन्नाटा पसर गया, उत्सव थम गया। मौत किसी के घर में हुई हो, हर इंदौरी की आंखों में आंसू थे।
किसी के कहने और बताने के पहले बाजार बंद हो गया और अगले दिन भी बाजार बंद किये जाने का ऐलान हो गया। अलग-अलग जगहों पर होने वाला जश्र स्वस्फूर्त रोक दिया गया।
यह सब कुछ एक जिंदा शहर की पहचान है। इंदौरियों का दिल अपने शहर के लिए धडक़ता है। उन्हें सिखाना और बताना नहीं पड़ता कि जश्र मनाने के लिए बेखौफ लाखों की तादाद में घरों से बाहर निकल पड़ते हैं तो दुख में अपने-अपने में सिमट जाना भी जानते हैं।
उन्हें इस बात की फ्रिक नहीं है कि मरने वाले से उनका क्या रिश्ता था। वे तो बस एक बात जानते हैं कि मरने वाला कोई भी हो, इंदौरी था और हर इंदौरी इस शहर की पहचान था।
समूचे हिन्दुस्तान में इंदौर की पहचान अलहदा है तो इसलिये नहीं कि वह मिनी बाम्बे है। वह उद्योग का एक बड़ा किला है, इंदौर की पहचान है तो उसके इंदौरीपने से।
अपने शहर के लिए यह तड़प अब बहुत कम देखने को मिलती है। इंदौर इसकी नायाब मिसाल है।
कोई भी पर्व और त्योहार उत्सव की तरह मनाने वालों में इंदौरियों का कोई मुकाबला नहीं।
छह बार से स्वच्छ शहर का खिताब इंदौर को शासन-प्रशासन के कारण नहीं बल्कि उन इंदौरियों के कारण मिला है जिनकी धडक़न इंदौर है।
कोरोना में जब लोग घर में दुबके बैठे थे तब इंदौरी लाखों की संख्या में सडक़ पर उतर कर गेर खेल रहे थे। 2023 का इंदौरी गेर तो वर्ल्ड रिकार्ड बना गया।
कोरोना के चलते गेर खेलने वाले इंदौरियों ने मिलकर जैसे शहर को स्वच्छ बनाया था, इंदौर को कोरोना से लड़ने का जज्बा दिया।
इंदौरी हो जाना सरल नहीं है, इसके लिए आपके दिल में आपका अपना शहर धड़कना चाहिए।
धड़कन भी ऐसी कि हंसें तो सबके साथ और किसी के घर में दुख टूटे तो सबकी आंखें भीग जाएं।
इन दिनों किसी भी शहर को दो भागों में देख सकते हैं। नया शहर, पुराना शहर। नया शहर लगभग सुविधाभोगी होता है जबकि पुराना शहर उसी तर्ज पर जिंदा रहता है।
नए शहर की तासीर में अपनेपन का भाव नहीं होता है जबकि पुराना शहर उसी अपनेपन में जिंदा रहता है।
नए दौर में इंदौर का विकास भी खूब हुआ। शहर फैलता चला गया लेकिन नया इंदौर और पुराना इंदौर का टेग कहीं देखने-सुनने में नहीं मिला।
दिल्ली से भोपाल तक आपको नया और पुराने की छाप देखने को मिल जाएगी।
इंदौर तब भी एक था और आज भी एक है और हम नए और पुराने में बंट गए हैं।
बंटना भौगोलिक नहीं है बल्कि मन भी बंट गया है और इंदौरियों ने ना शहर बांटा और ना मन।
पीयूष मिश्रा की पंक्ति याद हो आती है कि जो बचा है, उसे बचा लो।
दर्दनाक हादसे ने एक बार फिर बता दिया कि इंदौर जिंदा है और जिंदादिल लोगों का शहर है।
दुख में दुखी होते हैं, यह भेद किये बिना कि हम तो सुरक्षित हैं। काश! हम सब भी अपने अंदर एक इंदौर को बसा लें। कहना तो पड़ेगा... आह! इंदौर, वाह... इंदौरी।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं शोध पत्रिका ‘समागम’ के संपादक हैं
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