राकेश दुबे।
सर संघचालक मोहन भागवत के ताज़ा उद्बोधन के बाद यह सवाल उठने लगा है कि आज का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बीते कल के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भिन्न है?
यह सवाल उठना लाजिमी है पिछले सप्ताह संघ के सर संघचालक मोहन जी भागवत ने अपने भाषण और पूछे गये प्रश्नों के उत्तर में जो विचार व्यक्त किये हैं, उनसे किसी को भी लग सकता है कि संघ ने समय के अनुसार अपने को बदला है।
प्रश्न यह है कि क्या यह सच है? ऐसा हो रहा है। उत्तर की विवेचना में इतिहास में जाना होगा साथ अब तक के फलितार्थ संसद के वर्तमान और भावी स्वरूप पर विचार करना होगा।
१९२५ से अब तक संघ के उत्थान और विकास के कई चरण हैं, जिसका प्रत्यक्ष संबंध भारतीय जनसंघ और बाद में भाजपा के विकास से है। १९६७ अर्थात चौथे लोकसभा चुनाव में भारतीय जनसंघ को अप्रत्याशित सफलता मिली थी।
वह लोकसभा में कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में संघ की छात्र-शाखा एबीवीपी (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्) ने सक्रिय शामिल होकर एक नयी शक्ति प्राप्त की और भारतीय जनसंघ ने अपनी पहचान मिटाकर अपने को जनता पार्टी में शामिल किया था।
वर्ष १९८० में पुन: इसने एक नयी पार्टी- भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। संघ ने सदैव अपने को सामाजिक-राजनीतिक संगठन कहा है। वह जिस ‘हिंदू राष्ट्र’की बात करता है, क्या वह किसी राजनीतिक शक्ति के बिना संभव है?
लोकसभा चुनाव २०१४ में बहुमत प्राप्त हुआ और इसी के बाद सारा परिदृश्य बदला है। २०१९ के चुनाव के पहले लगभग एक ही समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दाऊदी वोहरा संप्रदाय को संबोधित करते हैं और मोहन भागवत आरएसएस के बदले स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं,स्वर बदलते दिखते हैं।
सवाल यह है क्या संघ ने अपने को सावरकर-गोलवलकर और हेडगेवार-दीनदयाल उपाध्याय के विचारों से मुक्त कर लिया है? क्या पहले से भिन्न कोई नयी अवधारणा प्रस्तुत हो रही है?
‘हिंदुत्व’, ‘राष्ट्र’, ‘राष्ट्रवाद’ और ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की पूर्व परिभाषा से इतर कोई नयी परिभाषा निकल रही है?
मोहन जी भागवत ने संघ के तीन दिवसीय आयोजन ‘फ्यूचर आफ भारत: ऐन आरएसएस पर्सपेक्टिव’ में जितनी बातें कही हैं,उनसे किसी को भी यह भ्रम हो सकता है कि संघ अब नया रूप ग्रहण कर रहा है।
मोहन जी के अनुसार, बिना मुसलमानों के ‘हिंदुत्व’ नहीं है। उन्होंने ‘हिंदुत्व’ को नये रूप में परिभाषित किया है। ‘हिंदुत्व का यह अर्थ-ग्रहण ‘हिंदुइज्म’ को अपने में समेट लेने पर ही संभव है। ‘हिंदुत्व’ एक शब्द है। सावरकर के पहले इसका कोई अस्तित्व नहीं था।
इस शब्द के अपने स्पष्ट उद्देश्य और लक्ष्य हैं। क्या सचमुच ‘हिंदुत्व’ ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’की अवधारणा में विश्वास करता है? क्या सचमुच ‘हिंदुत्व’ में विश्व बंधुत्व और विश्व कुटुंबकम की धारणा समाहित है?’ क्या‘भारत से निकले सभी संप्रदायों का सामूहिक मूल्य-बोध‘हिंदुत्व’ है?’ अर्थ और परिभाषा नये प्रतिमान चाहते हैं। जो राष्ट्र की अवधारणा के वर्तमान स्वरूप की जरूरत है।
नये शब्दों का अर्थ यदि बदलाव है तो अब दावा है कि एक करोड़ से अधिक स्वयंसेवक हैं। ३९ देशों में शाखाएं हैं, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति, केंद्रीय मंत्री और मुख्यमंत्री तक संघ के स्वयंसेवक थे और हैं। संघ में प्रतिमाह ८००० नये स्वयंसेवक शामिल हो रहे हैं और संघ ५६ ९६७ शाखाएं हैं।
तो अब देश में नई संस्कृति की बयार चलना चाहिए और सही परिभाषा के साथ “राष्ट्रहित” का चिन्तन होना चाहिए। समय का पहिया जिस दिशा [२०१९ के चुनाव] में घूम रहा है, उसकी दशा और दिशा भ्रम पैदा कर रही है।
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