मुकेश भारद्वाज।
मुझे पिला रहे थे वो कि खुद ही शम्मा बुझ गई गिलास गुम, शराब गुम, बड़ी हसीं रात थी लिखा था जिस किताब में कि इश्क तो हराम है हुई वही किताब गुम, बड़ी हसीं रात थी -सुदर्शन फाकिर। 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले आम आदमी पार्टी ने एक राजनीतिक कबड्डी खेली थी।
सबको भ्रष्ट-भ्रष्ट कहके छूती गई और उनकी राजनीतिक मौत होती गई। लेकिन, सत्ता में आते ही आम आदमी पार्टी ने राजनीति में भ्रष्टाचार के सवाल को उसी तरह छू-मंतर कर दिया जिस तरह मुख्यधारा के सभी राजनीतिक दलों ने किया था।
यह आम आदमी पार्टी की देन है कि मौजूदा राजनीतिक समय में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं रह गया है। भ्रष्टाचार को भूल आरोपों पर माफी-माफी मांगती सरकार पर बेबाक बोल।
‘जैसे एक जमाने में इंदिरा गांधी ने अति कर दी थी, आज प्रधानमंत्री जी अति कर रहे हैं और जब अति हो जाती है, प्रकृति अपना काम करती है।’
अवतार सिंह संधू ‘पाश’ के शब्दों के साथ भ्रष्ट आचरण करें तो कह सकते हैं कि सबसे बुरा होता है भ्रम का खत्म होना।
उपरोक्त पंक्तियों में अरविंद केजरीवाल इंदिरा गांधी की अति का हवाला दे रहे हैं। शायद अच्छा ही है कि राजनीति प्रकृति जितनी सहिष्णु नहीं होती है।
इंदिरा की राजनीति की अति का जवाब उसी वक्त मिल गया था, और उन्हें फिर हाथ जोड़ कर जनता के पास लौटना पड़ा था।
बीसवीं सदी में इंदिरा की तानाशाही के संकल्प के खिलाफ विकल्प की सरकार आ गई थी। इसी संकल्प बनाम विकल्प के संघर्ष के भ्रम का नाम लोकतंत्र है।
यह जनता के सपनों का तंत्र है कि आखिर में जीत हमारी होगी, वह सुबह कभी तो आएगी, एक अति के बाद यह होता दिखता भी है और लोकतंत्र की आंखों में जनता-राज के सपने स्वीकृत होते रहते हैं।
लेकिन, इक्कीसवीं सदी अपनी जवानी में उन सपनों को तोड़ने की तारीख साबित हो रही है जो बीसवीं सदी में देखे गए थे। कांग्रेस पर भ्रष्टाचार के आरोप के खिलाफ माहौल तैयार हुआ।
21वीं सदी के डेढ़ दशक का समय बीतते ऐसा माहौल बना कि लगा देश अब वह पा जाएगा जिसके लिए बीसवीं सदी में एक जंग लड़ी गई थी। लगा, देश की राजनीति में भ्रष्टाचार सबसे ऊपरी पायदान का मुद्दा रहेगा।
अण्णा हजारे की अगुआई में अरविंद केजरीवाल भारतीय राजनीति का शुद्धिकरण यज्ञ करते देखे गए। लेकिन, आज हमारी आंखों में यज्ञ के हवनकुंड से उठे धुएं के आंसू ही बचे हैं। चारों तरफ भ्रष्टाचार को लेकर राजनीतिक बदलाव के सपनों के अब बस स्वाहा-स्वाहा होने की आवाज है।
अरविंद केजरीवाल ने मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी के बाद कहा कि आज अगर सिसोदिया और सत्येंद्र जैन भाजपा में चले जाएं तो सारे मुकदमे वापस हो जाएंगे। मुद्दा भ्रष्टाचार नहीं…।
अरविंद केजरीवाल ने बिलकुल सही कहा। आम आदमी पार्टी की सरकार बनते ही भ्रष्टाचार के मुद्दे को दफन कर दिया गया। अब बस मुद्दा था कि कौन बड़ा राम भक्त तो कौन बड़ा हनुमान भक्त।
कौन कितना बड़ा कट्टर देशभक्त। कौन कितना बड़ा तिरंगा लगा रहा था तो पाठ्यक्रम में कौन राष्ट्रभक्ति को शामिल कर रहा। जेएनयू, जामिया से लेकर दिल्ली दंगे के मुद्दे किसी मंगल ग्रह पर हुए थे, जिनके बारे में बोलना ही शायद भ्रष्टाचार की श्रेणी में आना था।
अरविंद केजरीवाल जब इंदिरा गांधी का नाम लेते हैं तो बरबस ही पंजाब का नक्शा याद आ जाता है। इस राज्य ने औपनिवेशिक आजादी के समय बंटवारे का दर्द सहा। सत्तर से अस्सी के दशक तक पंजाब ने जिस तरह का आतंकवाद देखा उसने एक तरह से पूरे देश को अस्थिर कर दिया था।
इंदिरा गांधी को समझ आ गई थी कि पंजाब को राजनीतिक रूप से मजबूत और स्थिर किए बिना देश मजबूत नहीं हो सकता। आजाद भारत में पंजाब का नासूर अगर कांग्रेस की गलती से हुआ था तो इंदिरा गांधी ही यह संदेश देकर गई थीं कि पंजाब पर दिल्ली का स्वार्थ लादा गया तो देश जलता रहेगा। इस सबक में देश ने पहली महिला प्रधानमंत्री की शहादत भी दी।
आजाद भारत और उसके सीमाई राज्य पंजाब के लिए इंदिरा गांधी की शहादत से बड़ा कोई संदेश हो सकता है क्या? लेकिन आम आदमी पार्टी ने अपनी देशभक्ति के पाठ्यक्रम से पंजाब और इंदिरा के सबक पर भगवंत सिंह मान के चरित्र का रंगरोगन कर दिया।
इतिहास की किताब चीख कर कह रही, पंजाब की राजनीति के साथ भ्रष्टाचार का नतीजा पूरा देश भुगतेगा। लेकिन, दिल्ली से सटा यही राज्य आम आदमी पार्टी के विस्तार के लिए सबसे मुफीद था।
और, उसी के साथ आती है आम आदमी पार्टी की अगुआई वाली दिल्ली सरकार की नई आबकारी नीति। काजल की कोठरी वाले मुहावरे को अद्यतन करें तो यही कहेंगे कि शराब से जुड़ी आबकारी नीति पर दस्तखत करनेवाले के हाथ कभी भी कमजोर हो सकते हैं।
अगर किसी एक ही व्यक्ति के पास सारे अहम विभाग हों तो उसका क्या मतलब निकाला जा सकता है, जबकि उसके अगुआ मुख्यमंत्री के पास किसी भी फाइल पर दस्तखत करने की जिम्मेदारी न हो।
आखिर किस ‘दूरदृष्टि’ के तहत मुख्यमंत्री ने एक भी विभाग नहीं रखा और मनीष सिसोदिया को सारे अहम विभाग दिए गए?
इसमें तो सीधे-सीधे भ्रष्ट आचार का वही भक्ति-भाव का आरोप है कि अगर आगे कुछ गड़बड़ हुई तो दस्तखत करने वाली ऊंगली भी हमारी और हथकड़ी लगने वाली कलाई भी हमारी।
आरोप है कि सोच-समझ कर पंजाब चुनाव के पहले दिल्ली में नई आबकारी नीति लाई गई। पंजाब चुनाव तो आम आदमी पार्टी जीत गई लेकिन आबकारी नीति ऐसी हाहाकारी साबित हुई कि इसे लेकर दिल्ली में आम लोग बंट गए।
मुफ्त बिजली-पानी के बाद एक बोतल के साथ एक बोतल मुफ्त शराब और गली-गली में खुले शराब के ठेके से लगने लगा कि यह फाकामस्ती जनता पर हर तरह से भारी पड़ेगी।
दिल्ली सरकार की आबकारी नीति थी ही ऐसी कि सबका चौंकना स्वाभाविक सा था। बात-बात पर राजघाट पहुंच कर महात्मा गांधी की शरण में जाने वाले देश के स्वयंभू आंधी वाले दूसरे गांधी दिल्ली में शराब ही शराब वाले कानून लाने से पहले भूल गए कि इस देश में महात्मा गांधी के किस तरह के विचार दर्ज हैं।
लेकिन, आबकारी नीति जिस तरह से पैसा बरसा सकती थी उसके मोह के समय भगत सिंह और महात्मा गांधी कहां याद आने वाले थे।
आबकारी नीति ने दिल्ली में हाहाकार मचाया तो पंजाब से खालिस्तान समर्थक नारे और तस्वीरों की खौफनाक तस्वीरें आने लगीं। पंजाब में एक ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बना दिया गया जो सगर्व दिल्ली में आकर पैर छूकर निर्देश ले रहे थे।
राजनीतिक, आर्थिक और अपनी पुलिस की ताकत से लैस एक राज्य का मुख्यमंत्री अपने से कम हैसियत के मुख्यमंत्री के पांव छू रहा था।
पंजाब में सरकार बनने के बाद अगर केजरीवाल किसी दूसरे व्यक्ति को मुख्यमंत्री का पद सौंप कर पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक की तरह भगवंत सिंह को आशीर्वाद देते तो राजनीतिक शुचिता जैसी कोई चीज दिखती भी। लेकिन, पूर्ण राज्य का दर्जा मांगने वाले मुख्यमंत्री के पैर पर पूर्ण राज्य वाला मुख्यमंत्री झुकने लगा, तभी से आशंका जगी कि इस समर्पण का नतीजा पंजाब न भुगते।
पंजाब में पाकिस्तान से सटे इलाके के थाने पर एक उग्र धार्मिक नेता के समर्थक कब्जा कर लेते हैं और थाने के जिम्मेदार उनसे माफी मांग लेते हैं कि हमने आप पर मुकदमा दर्ज करने की हिमाकत की। दिल्ली के मुख्यमंत्री जब भ्रष्टाचार के आरोप को लेकर सहज-सरल हो गए थे तो लगा लोकतंत्र में वादे, सपने टूटना कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन पंजाब को पीछे की ओर आग में लौटते देख कर भी अगर इन नेताओं की आंखों में शर्म का पानी नहीं आया है तो भ्रष्टाचार की बात क्या करें, जिसका इस्तकबाल आम आदमी पार्टी के नेता कबूल है, कबूल है के नारे के साथ कर चुके हैं।
आम आदमी पार्टी जिस शहीदी गान के साथ आई थी उसकी भावुकता के लबरेज में अभी भी कुछ लोग कह रहे हैं कि कांग्रेस आम आदमी पार्टी के पक्ष में क्यों नहीं बोल रही?
क्या इसी तरह कांग्रेस विपक्ष को एकजुट करेगी? कांग्रेस के हर वह नेता भारत जोड़ो यात्रा में पाक-साफ हो चल रहा था जिन्हें भ्रष्ट-भ्रष्ट कह आम आदमी पार्टी सत्ता में आई थी।
भ्रष्टाचार का आरोप लगा कर छूमंतर होने का राजनीतिक मंत्र तो आम आदमी पार्टी का दिया हुआ है।
उन नेताओं की सूची देखिए, जिन्हें ‘आप की अदालत’ में भ्रष्ट करार दिया गया और जनता ने सजा दी] उनके खिलाफ कानून की अदालत में सबूत पहुंचाने के लिए कोई नहीं पहुंचा।
तो, कांग्रेस से विपक्ष की भूमिका उनके लिए मांगी जा रही है जिन्होंने सत्ता पाते ही खुद को यथास्थिति के पक्ष में कर लिया।
आम आदमी पार्टी ने समकालीन राजनीति को भ्रष्टाचार के सवालों से पूरी तरह मुक्त कर राजनीतिक दलों को जो राहत दी है, उसके लिए सबको एक सामूहिक धन्यवाद गान तो उसकी शान में गाना ही चाहिए!
लेखक जनसत्ता में कार्यकारी संपादक हैं।
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