हेमंत कुमार झा।
नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री की रेस में उतरे थे तो उनके सामने राजनीतिक और सांस्कृतिक संदर्भों में ठोस कार्य योजनाएं थी, लेकिन देश की आर्थिकी को लेकर उनके पास सिर्फ सपने थे। इन सपनों के साथ किसी स्पष्ट वैचारिक आधार का अभाव था।
वे जिस वैचारिक स्कूल से दीक्षित होकर सत्ता की सीढ़ियां चढ़ रहे थे उसके आचार्यों के पास अपना राजनीतिक और सांस्कृतिक विजन तो था किंतु देश को लेकर कोई स्पष्ट आर्थिक विजन था ही नहीं। वे स्वदेशी की बात करते थे, अंतिम व्यक्ति तक पहुंचने की बात भी करते थे किंतु जब कभी देश के सामने निर्णायक सवाल आ खड़े होते थे तो उनका झुकाव बाजार के खिलाड़ियों के पक्ष में साफ नजर आता था।
मसलन, जब इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था तो जनसंघ और उसके वैचारिक स्रोत संघ ने इसका विरोध किया था। जब कोयला खदानों आदि का राष्ट्रीयकरण किया गया था तब भी वे विरोध में खड़े थे।
प्राइवेट बैंकों के माध्यम से अंतिम पंक्ति के लोगों तक कैसे पहुंच सकते हैं, इसका कोई स्पष्ट जवाब न तब उनके पास था न अब है।
तो, मोदी जी के 11 वर्षों के राजकाज के बाद भी अगर देश के अधिसंख्य लोग आर्थिक जर्जरता के शिकार हैं तो यह न सिर्फ नरेंद्र मोदी की विफलता है बल्कि उनके वैचारिक स्कूल की विफलता भी है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना देश के सांस्कृतिक प्रश्नों को लेकर हुई थी। उनके संस्थापकों और अनुयायियों के अपने सांस्कृतिक विचार थे, कोई सहमत हो या असहमत, इन विचारों के प्रचार प्रसार के लिए अपने जीवन तक का दान कर देने का हौसला भी उनमें था। उनमें से बहुत सारे लोगों की अपने संगठन के प्रति निष्ठा अदभुत थी।
इतिहास ने उन्हें पहले भारतीय राजनीति की मुख्य धारा में स्थान दिया जिसके लिए वे दशकों से तरस रहे थे, फिर एक दिन उन्हें राजनीति के केंद्र में भी स्थापित किया।
अब, इसके लिए जेपी कितने जिम्मेदार हैं, वीपी कितने जिम्मेदार हैं यह तो इतिहासकार तय कर रहे हैं, आगे कुछ बेहतर तरीके से इस पर सोचा जा सकेगा, लेकिन इसके लिए सबसे अधिक श्रेय जनसंघ के अगले संस्करण भाजपा और उसके वैचारिक स्कूल संघ के नेताओं और थिंक टैंक को देना होगा।
वे देश की राजनीति के केंद्र में आए और कई मायनों में देश पर अपनी गहरी छाप छोड़ी। कश्मीर से धारा 370 नहीं हटती अगर वे केंद्र में ताकतवर नहीं रहते। उनमें इच्छाशक्ति थी और उन्होंने किया। इसकी वैधानिकता और व्यावहारिकता पर विमर्श होते रहें, उन्होंने कर दिया। और, यह भी सच है कि कश्मीर के बाहर के अधिकतर भारतीयों को यह अच्छा भी लगा।
प्रक्रिया पर सवाल उठे, लेकिन प्रक्रिया पर सवाल उठाने वाले अधिकतर विश्लेषक भी निर्णय पर खुश ही देखे सुने गए।
कश्मीर की यह बड़ी त्रासदी है कि उसे लेकर जो दो देशों की राजनीति हो रही है उसमें कश्मीरियों की मनोभावनाओं को नहीं, दोनों देशों की जनता के जज्बातों को महत्व दिया जाता है। इसे ही कहते हैं राजनीति का मोहरा। कभी कोई समुदाय मोहरा बन जाता है, कभी कोई राज्य, जैसे कश्मीर, कभी कोई देश, जैसे यूक्रेन, जो यूरोपीय यूनियन, अमेरिका और रूस की राजनीति का मोहरा बन अधमरा हो चुका है।
मोदी राज में "मंदिर वहीं बनाएंगे" का संकल्प पूरा हुआ। कोर्ट की भूमिका ने इसे वैधानिक रूप दिया। लेकिन, आस्था कैसे राजनीति का औजार बन जाती है इसे समझने के लिए भविष्य के अध्येताओं को राममंदिर आंदोलन के इतिहास को पढ़ना आवश्यक होगा और जाहिर है, वे पढ़ेंगे भी।
तीन तलाक संबंधी मुद्दे पर भी सरकार को विरोध से अधिक समर्थन मिला। स्त्री अधिकारों को लेकर एक नैतिक बल भी इस कदम के साथ था और राजनीतिक एजेंडा साधने का उत्साह तो था ही।
एक ओर सरकार बड़े बड़े निर्णय ले रही थी वहीं राजनीतिक बयानों में भाजपा के कई नेता ऐसे बयान भी देते रहे जिससे साम्प्रदायिक मुद्दे उछलें, उछलते रहें। गाय को लेकर मॉबलिंचिंग की घटनाएं हों या कांवड़ यात्राओं के दौरान एक समुदाय विशेष को लेकर अनर्गल विवादों के सिलसिले हों, ये सारे विवाद अंततः कोलाहल में ही बदल जाते रहे।
राजनीतिक, सांस्कृतिक सवालों और सांप्रदायिक विवादों पर इतना कोलाहल मचता रहा कि आर्थिक सवालों से जुड़े बौद्धिक विमर्श हाशिए की चीज बन गए। मीडिया ने भी इसे हाशिए पर ही डाले रखने में बड़ी भूमिका निभाई। प्रतिरोध की गूंज तो थी लेकिन जयकारों के नगाड़े उससे बहुत अधिक तेज आवाज में बजते रहे।
इन 11 वर्षों के दौरान भारत में बड़े आर्थिक बदलाव हुए। ये बदलाव बौद्धिक विमर्श के दायरे में तो आए लेकिन जन विमर्श का हिस्सा नहीं बन सके।
पहली बार भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार...यह ऐतिहासिक घटना थी।
अब, नए भारत के निर्माण का स्वप्न पूरा करना था, भारतवासियों के कष्टों को दूर कर उनके लिए "अच्छे दिन" लाना था, दीनदयाल उपाध्याय के "अंत्योदय" के विचार से प्रेरणा लेकर अंतिम पंक्ति के लोगों तक पहुंचना था।
वे पहुंचे उन अंतिम पंक्ति के लोगों के बीच, लेकिन पांच किलो अनाज और कुछ नगण्य सी नकद राशि लेकर। इससे आगे वे कुछ खास सोच ही नहीं पाए इतने वर्षों में।
दुनिया की सर्वाधिक बेरोजगार आबादी वाले इस देश को उन्होंने सपने दिखाए कि दो करोड़ नौकरियां प्रतिवर्ष पैदा होंगी।
उनके 11 वर्षों के बाद भारत की बेरोजगारी पिछले 45 वर्षों में उच्चतम स्तर पर पहुंची बताई जा रही है।
बढ़ते कॉर्पोरेट वर्चस्व और सर्वग्रासी बनते बाजार के दौर में आम जन के हितों को सुरक्षित करने और सिस्टम को एक आर्थिक संतुलन देने में मोदी सरकार असफल रही।
कुछ खास कॉरपोरेट घरानों की सिर्फ एक दशक में बेतहाशा तरक्की ने जितने सवाल उठाए, कभी उनके माकूल जवाब नहीं मिले। कॉर्पोरेट की पूंजी और मुनाफे में इस दौर में जबर्दस्त वृद्धि हुई।
जबकि उधर, रिपोर्ट्स बताती हैं कि बीते दस वर्षों में देश की आर्थिक रफ्तार से पीछे रह जाने वाले लोगों की संख्या बढ़ती ही गई और अब तो इन पिछड़ने वालों में देश का मिडिल क्लास भी शामिल हो गया।
देश की आर्थिक रफ्तार से मिडिल क्लास का पीछे रह जाना नरेंद्र मोदी, भाजपा और संघ की ऐसी विफलता है जो उन्हें राजनीति में हाशिए पर धकेल सकती है।
देश की जीडीपी में अंतिम पंक्ति के लोगों की हिस्सेदारी को लेकर भाजपा की वैचारिकी अधिक तनाव नहीं लेती, लेकिन मिडिल क्लास की उपेक्षा वे नहीं कर सकते यह वे भी जानते हैं। उनकी मुश्किल यह है कि नवउदारवादी आर्थिकी उनके कंधों पर चढ़ कर भारत में जिस अगले चरण तक पहुंच चुकी है उसमें अपने को बाजार का बादशाह मान रहा मिडिल क्लास ही बाजार की रफ्तार से पीछे हो गया है। यह खुद बाजार के लिए भी खतरे की घंटी है।
बाजार मंदा है, उत्पादन बढ़ाने की पूंजी तो है लेकिन प्रेरणा नहीं है क्योंकि खरीदार नहीं हैं। उत्पादन नहीं बढ़ रहा तो नौकरियां नहीं बढ़ रहीं। पूंजी और माल की प्रचुरता लेकिन खरीदारों का अभाव। इस संकट के सामने सरकार निरुपाय नजर आ रही है। उसमें इतनी राजनीतिक शक्ति और नैतिक बल नहीं कि वह कॉरपोरेट समुदाय पर दबाव डाल कर बेहद अल्प वेतन वाले लाखों निचले तबके के कर्मचारियों की आमदनी में कुछ इजाफा करे।
रिपोर्ट्स हैं कि पिछले पंद्रह वर्षों में कम्पनियों के मुनाफे में चार गुनी वृद्धि हुई है जबकि उनके कर्मचारियों के वेतन की वास्तविक वृद्धि स्थिर ही नहीं, ऋणात्मकता की शिकार हो गई है।
राजनीति के केंद्र में आकर भाजपा ने उन कुछ लक्ष्यों को हासिल किया जिनके नारे वह दशकों से लगाती रही थी और जो उसकी वैचारिकी के महत्वपूर्ण बिंदु थे। यह बड़ी सफलता है और इतिहास में दर्ज भी होगी।
लेकिन, अब बाजार भी उदास है क्योंकि वह ठहराव का शिकार है। कुछ सेक्टर में तो अंधेरा सा पसरा है। फ्री अनाज पाने वालों में भी एक उकताहट और कसमसाहट है जबकि मिडिल क्लास असमंजस में है।
भाजपा की वैचारिकी की सीमा और सपनों के सौदागर के रूप में नरेंद्र मोदी की विफलता अब सामने है। वे न बेरोजगारी से लड़ सकते हैं, न जनहित में कॉरपोरेट के स्वार्थी हितों से जूझ सकते हैं, न अंतिम पंक्ति के लोगों के लिए कुछ बड़े निर्णय लेने का विजन है उनमें। वे कॉर्पोरेट हितों से संचालित सत्ता संरचना के प्रतीक बन कर रह गए और भविष्य उन्हें इसी रूप में याद भी रखेगा।
लेखक पटना यूनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर हैं।
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