राकेश दुबे।
कितनी अजीब स्थिति है संसद के भीतर और बाहर की।
बेलगाम जुबान, अफ़सोस रहित माफ़ी, जैसी अप्रिय स्थिति वो भी सासदों द्वारा देखने को मिल रही है।
यह स्थिति सवाल पैदा करती है कि आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे देश के नीति-नियंता 75 साल में कितने परिपक्व, जवाबदेह व जिम्मेदार हो पाए हैं?
आज तो संसदीय बिरादरी ही संसद नहीं चलने दे रही है , आम आदमी असमंजस में है उसे इसका कोई इलाज समझ नहीं आ रहा है।
संसद में महंगाई के मुद्दे तथा दैनिक उपभोग की वस्तुओं पर जीएसटी जैसे जनहित मुद्दे लगाने विरोध कर रहे नेता न सरकार को सुन रहे हैं और न ही सरकार भी इसे गंभीरता से ले रही है।
ऐसा लगता है कि देश के लिये कानून बनाने वाली संसदीय बिरादरी कानून सम्मत तरीके से सदन की कार्यवाही चलाने में रुचि नहीं दिखा रही है।
सत्ता पक्ष द्वारा कोरोना संकट से उबरते देश में आय संकुचन के बावजूद कुलांचे भरती महंगाई पर संवेदनशीलता न दिखाना आम आदमी को परेशान करता है।
प्रतिपक्ष दैनिक उपभोग की आम वस्तुओं को जीएसटी के दायरे में लाने को आमजन के जले पर नमक छिड़कना बताता है।
लगता है कि पक्ष-प्रतिपक्ष जनसरोकारों को तरजीह देने के बजाय अपने राजनीतिक निहितार्थों को तरजीह दे रहे हैं।
यकीन मानिये , जब से संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण शुरू हुआ है तब से गतिरोध व हो-हल्ले की प्रवृत्ति में तेजी आई है।
ऐसा लगता है प्रतिपक्ष पक्ष संसद की कार्रवाई के जरिये अपने मतदाता को संबोधित कर रहा है। यही कारण है कि गतिरोध बढ़ने पर लोकसभा की कार्यवाही में बाधा डालने के लिये पहले चार सांसदों को और फिर राज्यसभा के 19 प्रतिपक्षी सांसदों को एक सप्ताह के लिये निलंबित कर दिया गया।
फिर राज्यसभा के उपसभापति ने आप के एक सांसद को निलंबित किया।
संसद के बाहर सोनिया गाँधी से प्रवर्तन निदेशालय द्वारा की जा रही पूछताछ के विरोध के दौरान देश ‘राष्ट्रपति’ को आपत्तिजनक तरीके से सम्बोधन संस्कार विहीनता का परिचायक है।
यह तो सीमा से बाहर जाकर राजनीति करना है।
यह सब जानते हैं सदन की कार्यवाही को निर्बाध रूप से चलाने के लिये लोकसभाध्यक्ष व राज्यसभा के सभापति को सांसदों को निलंबित करने का अधिकार होता है।
देश के लोकतंत्र के इतिहास में सांसदों का सबसे बड़ा निलंबन वर्ष 1989 में हुआ था जब एक साथ लोकसभा के 63 सांसदों को निलंबित कर दिया गया था।
टकराव की यह राजनीति लोकतंत्र के हित में नहीं कही जा सकती। सदन की कार्यवाही को लेकर विशुद्ध राजनीति के बजाय लोकतंत्र व देश के सरोकारों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
लाखों लोग अपने प्रतिनिधियों को चुनकर संसद में भेजते हैं ताकि जनहित में कानून बनें और आम आदमी को राहत मिले।
फिर सदन की कार्यवाही में आयकरदाताओं का करोड़ों रुपया खर्च होता है।
ऐसे में सत्र के कई महत्वपूर्ण कार्य दिवसों का यूं ही व्यर्थ चले जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। सदन के बाहर सांसदों के बोलवचन पर भी नियंत्रण होना चाहिए।
आज जो हो रहा है दुनिया में सबसे बड़े लोकतंत्र की आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं है। सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष की ओर से संसद में जारी गतिरोध को टालने की गंभीर कोशिश ही नहीं होती।
सत्ता पक्ष की ओर से टकराव टालने के लिये जो गंभीर पहल होनी चाहिए थी, वह भी होती नजर नहीं आ रही तो प्रतिपक्ष निरंकुश दिख रहा है।
संसदीय गरिमा का तकाजा है कि सत्तापक्ष निरंकुश व्यवहार न करे। वह प्रतिपक्ष की आवाज को ध्यान से सुने और सांसदों की शंकाओं का समाधान करे।
प्रतिपक्ष को भी सार्थक पहल करनी चाहिए। काश, सदन में गतिरोध खत्म करने के लिये सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष जिम्मेदार भूमिका का निर्वहन करते।
आज लोकतंत्र और भारत की गरिमा के लिये यही समय का तकाजा है।
Comments