राकेश कायस्थ।
`जिस तरह प्रेस वाले का बच्चा आयरन किये गये कपड़ों की होम डिलिवरी देता है, उसी तरह जसवंत सिंह कंधार जाकर आतंकवादियों की होम डिलिवरी दे आया'- वाजपेयी सरकार में कानून मंत्री रहे राम जेठमलानी ने IC-184 हाईजैकिंग बाद अलग-अलग इंटरव्यू ये बयान कई बार दोहराया था।
जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन मुख्य मंत्री फारूख अब्दुल्ला मौलाना मसूद अज़हर और उसके दो साथियों को छोड़े जाने के लिए ज़रूरी अनुमति देने से इनकार कर रहे थे। फारूख़ अब भी कोई इंटरव्यू देते हैं, तो कंधार प्रकरण को लेकर बेहद गुस्से से भरे नज़र आते हैं।
खुफिया तंत्र की नाकामी, एजेंसियों के बीच ताल-मेल की कमी और निर्णय लेने में देरी। बहुत सारी कमियां गिनाई जा सकती हैं। कमियां थी भी लेकिन सवाल ये है कि उस समय की वाजपेयी सरकार के विकल्प क्या थे? अगर आपको कंधार संकट हल करने के लिए कोई फैसला करना होता तो आप क्या करते?
विमान को भारतीय वायु सीमा पार नहीं करने देना चाहिए था। अमृतसर में ऑपरेशन कर देना चाहिए थी। मिसाइल दाग देनी चाहिए थी। हर व्यक्ति के पास अपना एक रेडीमेड जवाब है। लेकिन क्या आप भुजाएं फड़काते हुए ऐसी बातें तब भी कर सकते थे, जब आपका कोई अपना उस एयरक्राफ्ट के अंदर होता?
ज्यादातर आतंकवादी वारदात सुरक्षा व्यवस्था में चूक का परिणाम होते हैं। चूक पूरी दुनिया में होती है। सामरिक शक्ति का सबसे बड़ा चैंपियन अमेरिका नहीं चूका होता तो क्या वहां 9/11 जैसी कोई वारदात हो पाती? नाकामी के बाद किसी भी सरकार की सबसे बड़ी परीक्षा ये होती है कि वह ऐसे कौन से कदम उठाती है, जिससे उसके नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।
मुझे याद है, ऑफ द रिकॉर्ड ब्रीफिंग में तत्कालीन वाजपेयी सरकार के मंत्री और बड़े अधिकारी मीडिया वालों से हाथ जोड़कर कहते थे-- थोड़ा सहयोग कीजिये। हम बहुत बड़ी मुश्किल में फंसे हैं। काबुल और कंधार में तो हमारा एक कुत्ता तक नहीं है।'
घटना के बाद उसका विश्लेषण हमेशा आसान होता है और उस वक्त निर्णय लेना उतना ही कठिन। परिणाम किसी को मालूम नहीं होता है और जोखिम हर निर्णय में होता है।
मेरी समझ से अटल बिहारी वाजपेयी ने सरकार और देश के अहं को कुछ समय के लिए परे रखकर मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए यह फैसला लिया इसलिए तमाम आलोचनाओं के बावजूद मेरी नज़र में वो हीरो हैं।
स्वयंभू विचारक से चारण बने कई लोग दावा कर रहे हैं कि अब ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि ये न्यू इंडिया है। उन मूर्खों को कौन समझाये कि वह दौर पूरी तरह अलग था। भारत शीत-युद्ध की छाया से मुक्त नहीं था। किसी अमेरिकी राष्ट्रपति को भारत में कदम रखे बीस साल से ज्यादा अरसा हो चुका था। कूटनीतिक स्तर पर भारत परमाणु परीक्षण के बाद पूरी तरह अलग-थलग था।
दक्षिण एशिया में पाकिस्तान अमेरिका का सबसे बड़ा रणनीतिक साझीदार था। किसने सोचा था कि न्यूयार्क पर आतंकवादी हमला होगा, भू-राजनीति रातो-रात बदल जाएगी और सबकुछ भारत के लिए अचानक अनुकूल हो जाएगा। किसी भी ऐतिहासिक घटना का विश्लेषण उस समय की परिस्थितियों के बदले अगर मौजूदा तथ्यों के आधार पर किया जाये तो निष्कर्ष हमेशा गलत निकलेगा।
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