संजय वोहरा।
इसमें कोई शक नहीं कि नितिन गडकरी एक काबिल इंसान हैं और उनके मंत्रालय की परफोर्मेंस काफी अच्छी है।
बल्कि मुझे ये भी लगता है कि वो प्रशासनिक हिसाब से भी बीजेपी में मात्र एक ही शख्स हैं (फिलहाल जो लाइम लाइट में हैं ) जो पीएम मैटिरियल कहे जा सकते हैं।
खुले दिमाग के तरक्की पसंद इंसान लगते हैं, छवि भी कइयों से अच्छी है।
मैं कोई सियासत पर ज्यादा दखल नहीं रखता, इसलिए ज्यादा इस बारे में कहना सही नहीं होगा लेकिन गडकरी साहब मोदी जी और योगी जी से ज्यादा काबिल मालूम पड़ते हैं।
लेकिन एक बात तो साफ़ दिखाई देती है कि जिस तरह से भारत में दनादन सड़कों का जाल विशालतम करने की कोशिशें की जा रही हैं वो कम से कम प्रदूषण के लिहाज़ से तो बिलकुल भी ठीक नहीं।
सड़क अच्छी होनी चाहिए लेकिन विकास के नाम पर जिस तरह ताबड़तोड़ सड़कें बनाई जा रही है उससे तो वाहनों की वृद्धि को बढ़ावा दिया जा रहा है।
एक तरफ रोना रोते हैं कि पेट्रोलियम पद्धार्थो का संकट है, पेट्रोल, डीज़ल , सीएनजी महंगी हो रही है।
उस पर हम ज्यादा से ज्यादा मोटर वाहनों को चलाने की मानसिकता को बढ़ावा दे रहे हैं। प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है।
मैदानी इलाकों ही नहीं अब तो पहाड़ों को भी काट-काटक उनमें सुरंगें बनाकर देश के हर कोने में गाड़ी पहुंचाने के जिस तरह आपाधापी दिखाई दे रही है उससे तो यही लगता है कि ये सब ऑटो मोबाइल इंडस्ट्री को बढ़ावा देने और फायदा पहुँचाने की नीति है।
साथ ही उन कम्पनियों को धंधा मुहैया कराने की जो इंफ्रास्ट्रक्चर बिल्डिंग में लगी है. पता नहीं क्यों मुझे तो इसमें पूंजीवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा देने की बू आती है।
यही हाल हमारी पहले की सरकारों ने उच्च शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य व्यवस्था का किया था।
हरेक को शिक्षा और सेहत देने के अपने फर्ज़ को पूरा करने की जगह इस काम को प्राइवेट हाथों में सौंपा और साथ स्वास्थ्य बीमा करने वाली कम्पनियों को फायदा पहुंचाने की नीतियां बनाईं, वर्तमान सरकारें भी इसी ढर्रे पर चल रही हैं।
अब काम विकास व टूरिस्म को बढ़ावा देने नाम पर भी यही किया जा रहा है।
सडकें प्राइवेट कम्पनियों से बनवाई जा रही हैं, वो टोल से कमाई भी करती हैं।
जंगलों खेतों को उजाड़ते हुए और पहाड़ों का सीना काटकर वहां उन इलाकों में पहुंचती ये काली सड़कें मुझे तो कई बार ज़हरीले बलखाते सांप की मानिंद लगती हैं जो सिर्फ और सिर्फ प्रदूषण का जहर फैलाने का जरिया बनती है।
इनसे वहां जाकर सैकड़ों टन कूडा कचरा फैलाकर आने वाले शोहदे फोटोबाज़ वीडियोबाज़ सैलानी उन स्थानों का कतई भला नहीं कर रहे।
जितना पैसा ये वहां खर्च करके आते हैं उससे कई गुना ज्यादा वहां नुक्सान करके आते हैं । नुक्सान भी ऐसा कि जिसकी भरपाई नहीं हो सकती।
ऐसी गाड़ियों में जाते हैं जो बाहर गर्मी और धुँआ फैलाती दनादन दौड़ती हैं।
भीतर ठुसे सैलानी पानी, जूस से लेकर तरह तरह के पेय पर्दार्थों की खाली बोतले, टेट्रा पैक, स्नैक्स, चॉकलेट आदि के खाली पैकेट पता नहीं क्या-क्या खिडकियों से फेंकते जाते हैं।
ये कचरा जंगलों, नदी, नालों जैसे प्राकृतिक जल स्त्रोतों को बरबाद कर रहा है।
कश्मीर से लेकर लद्दाख तक में इससे पैदा हुआ खतरा मैंने खुद देखा है।
कायदे से सडकों को बढ़ावा देने और निजी वाहनों को प्रोत्साहित करने के सरकारों को चाहिए कि आवाजाही के लिए रेल पर खर्च करें, रेल के सफर को सस्ता रखे और आरामदायक बनाएं।
प्रकृति के साथ ज्यादा खिलवाड़ करते हुए नदी नालों पर पुल बनाकर उनको सडकों से जोड़ने की बजाय सुरक्षित जल मार्ग विकसित करने चाहिए।
हरेक सड़क पर साइकिल, रिक्शा आदि धीमी गति से चलने वाले वाहनों के लिए अलग लेन होनी चाहिए. ये वाहन प्रदूषण नहीं करते।
शहरों में बजाय ई रिक्शा की भीड़ बढ़ाने के कम प्रदूषण वाली सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को तर्क संगत तरीके से अपनाया जाना चाहिए।
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