राकेश कायस्थ।
समाज दुनिया का कोई भी हो, अल्पसंख्यकों का व्यवहार बहुसंख्यकों के व्यवहार के समानुपाती होता है। इसमें कोई भी अपवाद नहीं है।
आप इसे कई उदाहरणों से समझ सकते हैं। बिहार से आया कोई आदमी जब दिल्ली में कदम रखता है, तब वह सबसे पहले नेता और अफसर रिश्तेदार या जुगाड़ ढूंढता है, क्योंकि उसे लगता है कि बिना किसी कनेक्शन के इस शहर में गुजारा नहीं है।
वह अतिरिक्त रूप से सावधान रहता है। उसे लगता है कि ऑटो वाला या टैक्सी वाला ठग ना ले इसलिए रौब गांठने के लिए उनसे हमेशा ऊंची आवाज़ में बात करता है।
यही आदमी जब मुंबई में कदम रखता है तो उसे एहसास होता है कि बिना समय का पाबंद हुए इस शहर में गुजारा मुश्किल है।
वह लोकल की टाइमटिंग के हिसाब से एडजस्ट होने की कोशिश करता है। कतार में खड़े होने की आदत डालता है।
आप मुंबई के पिछड़े से पिछड़े इलाके में जाइये। जहाँ चार लोग होंगे वहाँ कतार अपने आप बन जाएगी। दिल्ली में ऐसा नहीं होता जबकि प्रवासी लोग दोनों जगहों पर एक ही परिवेश से आते हैं।
संस्कृतियां अल्पसंख्यक आबादी को अपने आप में मिला लेती हैं, उन्हें अपने जैसा बना देती हैं।
लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट पर भारतीय लोगों का जो व्यवहार होता है, नई दिल्ली के एयरपोर्ट पर उन्हीं लोगों का व्यवहार उससे एकदम अलग होता है।
कारण सिर्फ और सिर्फ दोनों जगहों की बहुसंख्यक संस्कृति है।
बहुसंख्यक आबादी बहुत सभ्य, शालीन और नियमों को मानने वाली हो और अल्पसंख्यक आबादी इसके एकदम उलट हो यह संभव नहीं है।
ठीक इसी तरह हिंसक, विध्वसंक और अराजक समाज में अल्पसंख्यकों के व्यवहार के इसके विपरीत होने की उम्मीद भी आप नहीं रख सकते हैं।
ध्यान रखियेगा समाजशास्त्र का नियम गणित की तरह है, जहाँ दो और दो हमेशा चार होते हैं।
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