राजेश बादल।
चैनलों पर सवार, चुनाव का बुख़ार/ सोशल मीडिया का चुनावी अवतार/ सच्ची और झूठी ख़बरों की भरमार/ इन दिनों बड़ा कारगर है ये हथियार/ किसकी होगी जीत और किसकी हार/ दर्शक और वोटर पर मार, बेचारा करे है हाहाकार/ ऐसा ही हाल है छोटे परदे का। चुनाव गरमा-गरम। उससे भी गरम है चैनलों का मिजाज़।
अख़बारों के पन्ने भी सियासी-तरकशों और तीरों से लबरेज़। ज़बान का ज़हर छोटे परदे पर और अख़बार के पन्नों पर बिखरा हुआ है। ज़बरदस्त। वैसे तो कई चुनाव में गंदी भाषा का इस्तेमाल हुआ है, लेकिन इस बार संयम के सारे बांध टूट गए। एकदम निजी और बेहद मर्माहत करने वाले प्रचार के लफ़्ज़ और तरीक़े। मानहानि करने वाले और ग़ैर क़ानूनी।
कोई भी अदालत में चला जाए। दंड मिलेगा। चाहे कांग्रेस का हो या फिर भारतीय जनता पार्टी का। तो मतलब क्या है? जो दल सरकार चलाने का लंबा अनुभव रखते हैं— केंद्रीय स्तर पर अथवा प्रादेशिक स्तर पर। जो क़ानून बनाने की क्षमता रखते हैं, वे ही क़ानून तोड़ रहे हैं। क़ानून तोड़ने वाली भाषा को हम विस्तार या मंच दे रहे हैं।
टेलिविजन पर, समाचार पत्र-पत्रिकाओं में, रेडियो और सोशल मीडिया पर। क़ानून की भाषा में एक आरोपी होता है और दूसरा सह-आरोपी। इस गंदी और भड़काने वाली ज़बान को प्रसारित- प्रचारित करने वाला मीडिया कितना ही बड़ा घराना हो, वह भी आरोपी बनता है।
अगर भारतीय संविधान के तहत प्रत्येक मज़हब को यहां रहने, रोज़गार करने और सरकार को चुनने की आज़ादी मिली हुई है तो उसमें शर्तें कोई राजनेता अथवा राजनीतिक दल थोप नहीं सकता, न ही वह स्वतंत्रता छीनी जा सकती है।
राजस्थान को छोड़कर पांच राज्यों में चुनाव प्रचार थम चुका है। इस दौरान हमने देखा कि धार्मिक कटुता और उन्माद को नफ़रत की हद तक फैलाया गया, ठीक उसी तरह जैसे आज़ादी के बाद मुल्क़ के बंटवारे के समय हुआ था।
बीते सप्ताह तेलंगाना के प्रचार अभियान में धर्म के आधार पर जो भाषण दिए गए, वे साफ़ साफ़ क़ानून तोड़ने वाले थे। अफ़सोस! न चुनाव आयोग को दिखाई-सुनाई दिए न क़ानून-व्यवस्था के रखवालों को। हम मीडिया वालों ने उन्हें गर्व के साथ दर्शकों और पाठकों के लिए परोसा। नफ़रत और घृणा के तीखे बोल हमारे मीडिया पर जमकर नज़र आए।
क्या हम समझते हैं कि हिन्दुस्तान का मीडिया राजनेताओं और राजनीतिक दलों का भोंपू नहीं है? क्या हमें पता है कि भारतीय लोकतंत्र में चौथे स्तंभ की प्रतिष्ठा भोंपू होने के कारण हमें नहीं मिली है। यह इसलिए है कि हम अपने सरोकारों के साथ काम करें। नेताओं की गाड़ी पटरी से उतर सकती है लेकिन मीडिया की गाड़ी नहीं। राजनीतिक दल या नेता मर्यादा पार करें तो उन्हें चुप रहने की नसीहत दें, न कि उसे शोर बनाकर विस्तार दें।
भारतीय जन प्रतिनिधित्व क़ानून 1951 के भाग- 6 की धारा 125 इसकी स्पष्ट व्याख्या करती है। अगर किसी ने चुनाव के दौरान धार्मिक भावनाओं को उभारकर या धर्म के आधार पर शत्रुता या नफ़रत फैलाई, तो तीन साल की क़ैद अथवा जुर्माना हो सकता है।
एक अहिन्दी भाषी इलाक़े में किस सीमा तक धार्मिक उन्माद कहां तक जा सकता है- तेलंगाना उसका एक नमूना है। चुनाव वाले बाक़ी राज्यों में यह सीमा पारकर पड़ोसी प्रदेशों से फैलाया गया, जिससे निर्वाचन क़ानून को तोड़ने का अपराध न हो।
मीडिया की कोई भौगोलिक सरहद नहीं है। इस कारण दूसरे राज्यों से उन्माद का अखिल भारतीय संस्करण दिखाई, सुनाई और पढ़ने को मिला। भारत राष्ट्र राज्य के प्रति हमारी यह निरक्षरता नहीं तो और क्या है?
मेरे अनेक साथी इस बात के समर्थक हो सकते हैं कि जो प्रचार अभियान में बोला जा रहा है, उसे क्यों नहीं दिखाया अथवा प्रकाशित-प्रसारित किया जाना चाहिए? निवेदन है कि समाज में कई दृश्य-श्रव्य समाचार कथाएं पसरी हुई हैं। क्या हर कथा को आप इस योग्य पाते हैं कि उसे फैला दिया जाए।
हमारे विवेक और सरोकारों की समझ की परीक्षा यहीं तो होती है। एक मामूली इलेक्ट्रिशियन भी इस बात को समझता है कि अगर वह किसी बिजली के सर्किट को बारूदी छड़ से जोड़ रहा है तो विस्फोट से मकान के परखचे उड़ सकते हैं।
क्या सिर्फ अपनी मजदूरी के लिए वह इस षड्यंत्र में शामिल हो सकता है? एक इमारत बनाने में वर्षों लग जाते हैं। गिराने में कुछ सेकंड भी नहीं लगते। इस नायाब प्रोफेशन के संवेदनशील बिंदुओं को समझिए मिस्टर मीडिया!
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