हेमंत कुमार झा।
एक विमर्श आजकल पूरी दुनिया में चल रहा है कि वास्तव में लोकतंत्र चाहिए किसको?
देखा जा रहा है कि अनेक देशों में, जिनमें दक्षिण एशियाई देश भी शामिल हैं, जहां लोकतंत्र कमजोर हुआ है और वहां निरंकुश किस्म की सत्ता-संरचना का प्रभाव बढ़ा है।
अब, आज की दुनिया में निरंकुश शासक बनने के लिए भी जनता के एक प्रभावशाली वर्ग का समर्थन तो चाहिए ही।
तो, मध्यम वर्ग, जिसे सामान्यतः अभिजन वर्ग कहा जाता है, उन निरंकुश शासकों के समर्थन में आगे आया है।
ये अभिजन जमात उन शासकों के समर्थन में क्यों है जो अपने देशों में लोकतंत्र का गला घोंट रहे हैं और लोकतंत्र की रक्षक संस्थाओं को निस्तेज बना रहे हैं?
इसका सीधा सा जवाब है कि आवारा पूंजी के बड़े खिलाड़ी ऐसे शासकों के खुले समर्थन में हैं और सत्ता के साथ इन खिलाड़ियों की जुगलबंदी ने क्रोनी कैपिटलिज्म को नए मुकाम तक पहुंचा दिया है।
यद्यपि, यह अनैतिक जुगलबंदी मध्यम वर्ग के हितों पर भी चोट करती है लेकिन यह चोट उन चोटों से कम प्रभावी है जो निचले तबके की विशाल आबादी के हितों पर पड़ती है।
मध्यम वर्ग क्रोनी कैपिटलिज्म के खतरों को समझता है लेकिन इसके विरोध में वह इसलिए मुखर नहीं होता कि उसकी बढ़ती संपन्नता इससे अधिक प्रभावित नहीं होती जबकि निर्धनों की विशाल आबादी को हर तरह से लूट लिया जाता है।
इस लूट का एक छोटा सा हिस्सा मध्यम वर्ग की सम्पन्नता को भी बढ़ाने के काम आता है, इसलिए यह वर्ग इस लूट से आंखें फेरे रहता है।
आत्मघाती बनने की हद तक पहुंच चुका उसका यह सम्मोहन इस तथ्य की कल्पना करने से इंकार कर देता है कि, क्रोनी कैपिटलिज्म का यह खतरनाक खेल अंततः उसकी संततियों के हितों और अधिकारों के खिलाफ जाने वाला है।
कारपोरेट संचालित मीडिया ऐसे नैरेटिव्स निरंतर गढ़ता रहता है जो मध्यम वर्गीय मस्तिष्कों को, प्रकारांतर से उनकी चिंतन क्षमता को प्रभावित करने में बहुत काम के साबित होते हैं।
क्रोनी कैपिटलिज्म, जिसे आम बोलचाल की भाषा में याराना पूंजीवाद कहा जाता है...यानी, सत्ता-संरचना में अपनी प्रभावशाली भागीदारी के सहारे कोई पूंजीपति जनता के हितों की कीमत पर दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करता ही जाए, करता ही जाए।
अपने देश में श्रीमान गौतम अडानी क्रोनी कैपिटलिज्म के सबसे सटीक उदाहरण, दूसरे शब्दों में कहें तो सबसे बड़े लाभार्थी बन कर उभरे हैं।
जिन्होंने नरेंद्र मोदी के आठ साल के शासन काल में तरक्की की गति के ऐसे कीर्तिमान स्थापित किए हैं, जिसका कोई दूसरा उदाहरण कम से कम अपने देश के आर्थिक इतिहास में शायद ही मिले।
अब, भारत में लोकतंत्र और उसके संरक्षक संस्थान अगर सशक्त होने की दिशा में आगे बढ़ते तो अडानी महाशय के ऐसे जलवे तो हम नहीं ही देख पाते।
तो, बात हो रही थी कि वास्तव में लोकतंत्र चाहिए किसको।
इधर एक किताब की बहुत चर्चा हुई है, प्रो.जावेद आलम की किताब है, 'हू वांट्स डेमोक्रेसी', जिसके हिंदी अनुवाद का शीर्षक है, 'लोकतंत्र के तलबगार'।
इसमें बताया गया है कि भारत जैसे दुनिया के 'सबसे बड़े लोकतंत्र' में भी लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थाओं को लेकर यहां के अभिजन वर्ग में कोई खास आग्रह नहीं है।
उन्हें ऐसी राजनीति चाहिए जो उनके आर्थिक हितों की रक्षा करे, भले ही वह निरंकुशता की ओर बढ़ती जा रही हो।
उन्हें लोकतांत्रिक नेता नहीं, मजबूत शासक चाहिए जो कानून-व्यवस्था दुरुस्त रखे, जो आर्थिक विकास के शोषणकारी मॉडल का विरोध करने वाले निर्धन और शोषित समुदाय का कठोर दमन करे।
जैसे, आदिवासियों के शोषण के खिलाफ लड़ने वालों के कठोर दमन का समर्थन यह अभिजन समुदाय खुल कर करता है।
वह इस तथ्य पर विचार करने को भी तैयार नहीं होता कि ये आदिवासी देश की आबादी के आठ प्रतिशत हैं लेकिन विकास की प्रक्रिया में विस्थापित हुए लोगों में ये 50 प्रतिशत से भी ज्यादा हैं।
इन शोषितों के लिए आवाज और कलम उठाने वालों के लिए कारपोरेट मीडिया ने नैरेरिव गढ़ा, 'अर्बन नक्सल', अभिजन जमात इस शब्द को दोहराने में मीडिया को भी पीछे छोड़ गया।
लोकतंत्र तब अधिक कमजोर होता है जब कोई सत्ता-संरचना लोकतंत्र की रक्षक संस्थाओं को निर्बल और निस्तेज बनाती है और देश का अभिजन समुदाय इन साजिशों को जान बूझ कर नजरअंदाज करता है।
नवउदारवादी राजनीति और आर्थिकी इसी षड्यंत्र के मॉडल पर काम करती है।
वह किसी समाज के पढ़े-लिखे अभिजन समुदाय के मानस को शोषित समुदायों के विरुद्ध खड़ा कर देती है और फिर अपना खुला खेल खेलती है।
हालांकि, अंततः यह षड्यंत्र अपनी परिधि में उन जमातों को भी घेर लेता है जो उसकी जयजयकार करती उसे मजबूत बनाती हैं।
कोरोना काल में मध्यम वर्ग के बड़े हिस्से की आर्थिक फजीहतों का विश्लेषण करें और इसी दौरान भारत के खरबपतियों की समृद्धि के विस्तार का आकलन करें।
जब हम राजनीतिक निरंकुशता की बात करते हैं तो हम प्रत्यक्ष तौर पर किसी शासक विशेष या किसी पार्टी विशेष की बात कर रहे होते हैं।
सच, जो अप्रत्यक्ष होता है, इससे भी अधिक खतरनाक है।
सच यह है कि नवउदारवादी राजनीतिक व्यवस्थाएं प्रत्यक्षतः जिस शासक या पार्टी को निरंकुश बनाती हैं, वे असल में भीतर से खोखले और कमजोर होते हैं।
उनकी नीतियों की डोर किन्हीं अप्रत्यक्ष हाथों में होती है जो मूलतः आवारा पूंजी के हितों से प्रेरित होती हैं।
चंद किलो अनाज और कुछ अन्य खैरातों पर लुब्ध होता निम्न वर्ग, टैक्स के बोझ से कराहता मध्यम वर्ग और आर्थिक प्रगति की कुलांचें भरते मुट्ठी भर कारपोरेट प्रभु।
यह सारी प्रक्रिया बड़ी आबादी को आर्थिक तौर पर कारपोरेट का गुलाम बनाने की है और जिन्हें हम 'मजबूत नेता' कह कर महिमा मंडित करते रहते हैं, असल में निहायत ही कमजोर आत्मबल और नैतिक बल वाले वे नेता आर्थिक गुलामी की जंजीरों को ढोने वाले साबित होते हैं।
हाल के कई सर्वे बताते हैं, जिनमें सीएसडीएस का सर्वे भी शामिल है, कि दक्षिण एशियाई देशों के अभिजनों की रुचि लोकतंत्र उसकी रक्षक संस्थाओं को मजबूत करने में नहीं है।
शोषण और लूट आधारित विकास की आर्थिकी में संपन्नता की चाशनी कुछ उन तक भी पहुंची है और वे इसी में लहालोट हैं।
वे अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में पढ़ा सकते हैं, प्राइवेट अस्पतालों में अपना इलाज करवा सकते हैं, लक्जरी रेलगाड़ियों में सफर कर सकते हैं।
यह व्यवस्था इतना तो उन्हें दे ही रही है, यह अलग बात है कि वे अपने क्षुद्र सामयिक स्वार्थों की खातिर अपनी संततियों के लिए भविष्य की आर्थिक गुलामी की पृष्ठभूमि निर्मित करने में व्यवस्था को सहयोग दे रहे हैं।
लोकतंत्र उन्हें चाहिए जो निर्धन हैं, शोषित हैं, जिनका वर्तमान और भविष्य सवालों के घेरे में है।
जिन्हें अपने बच्चों के लिए अच्छे सरकारी स्कूल और कॉलेज चाहिए, अपने इलाज के लिए सक्षम सरकारी अस्पताल चाहिए, अपनी आर्थिक प्रगति के लिए विकास का समावेशी माहौल चाहिए।
उन्हें लोकतंत्र ही यह सब दे सकता है।
लेकिन, व्यवस्था के लिए यह बहुत खतरनाक है कि यह विशाल आबादी लोकतंत्र के लिए जागरूक हो, लोकतंत्र का हरण करने वाली शक्तियों के खिलाफ खड़ी हो।
तो, व्यवस्था उनके नेताओं को अपने पाले में करती है, उन्हें भ्रष्ट बनाती है और फिर उनका भयादोहन कर उन्हें निष्क्रिय और निस्तेज बना डालती है।
लोकतंत्र और उससे जुड़ी संस्थाओं के खिलाफ षड्यंत्रों के सिलसिले हैं, समाज को विषाक्त ध्रुवीकरण के अंधेरों में झोंकना भी इन्हीं षड्यंत्रों का एक हिस्सा है।
2024 के आम चुनाव की संभावनाओं को इस परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए।
तब लगेगा कि मामला इतना भी आसान नहीं है। लड़ाई महज किसी नेता या किसी पार्टी से नहीं है।
लड़ाई तो उनसे है जो विविध रूपों में देश को, जनता को लूट कर समृद्धि की नई इबारतें लिख रहे हैं और पूरी व्यवस्था को अपने चंगुल में समेटे बैठे हैं।
उनसे कौन लड़ सकता है?
जनता का नेतृत्व कर उनसे कौन जीत सकता है?
जाहिर है, वही नेता फिजा में कुछ बदलाव ला सकता है, जिसमें उनसे लड़ने का सैद्धांतिक बल हो, वैचारिक बल हो और सबसे महत्वपूर्ण जिसके पास इस लड़ाई को लड़ने के लिए आत्म बल और नैतिक बल हो।
वरना, हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को आर्थिक गुलामी के जाल में फंसते देखने को अभिशप्त होंगे और इसकी पूरी तरह जिम्मेदार हमारी पीढ़ी होगी।
लेखक पटना यूनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर हैं।
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