जवान हो किसान दोनों के परिवार गरीबी की रेखा के सामानातंर नजर आते हैं

खरी-खरी            Jan 11, 2017


पुण्य प्रसून बाजपेयी।
अजीब संयोग है कि 11 जनवरी को देश के उसी प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की पुण्यतिथि है, जिसने देश को जय जवान जय किसान का नारा दिया और शास्त्रीजी की 51वीं पुण्यतिथि के मौके पर ये सवाल उठ रहा है कि सीमा पर तैनात जवान को भी सूखी रोटी और नमक-हल्दी में रंगे पानी में दाल मिलती है और हर पांच घंटे में एक किसान खुदकुशी क्यों कर लेता है। तो कोई भी कह सकता है कि जय जवान जय किसान का नारा चाहे हिन्दुस्तान की रगों में आज भी दौड़ता हो। चाहे साढे तीन लाख जवानों की तादाद बीते 70 बरस में बढ़कर 47 लाख हो चुकी और इसी तरह किसानों की तादाद भी 11 करोड़ से बढ़कर चाहे आज 21 करोड़ हो चुकी हो। सच तो यही है कि ना तो जय जवान का नारा लगाते हुये बीते 70 बरस के दौर में कभी जवानों की जिन्दगी के भीतर झांकने की कोशिश किसी भी सरकार ने की और ना ही किसान को राहत पैकेज से आगे बढ़ाने की कोई कोशिश बीते 70 बरस के दौर में किसी सरकार ने की।

प्रति दिन प्रति जवान के भोजन पर 100 रुपये सरकार खर्च करती है। और प्रति किसान की औसत आय देश में प्रति दिन 40 रुपये से आगे बढ़ नहीं पायी है। यानी दुनिया के सबसे बडा लोकतांत्रिक देश के भीतर का सच कितना डराने वाला है, ये इससे भी समझा जा सकता कि एक तरफ किसान पीढ़ियों से पसीना बहाकर देश को अन्न खिला रहा है और जवान सीमा पर प्रहरी बनकर पीढ़ियों से देश की रक्षा कर रहा है लेकिन जब आर्थिक-सामाजिक दायरे में जय जवान जय किसान का जिक्र होता है तो दोनों के ही परिवार गरीबी की रेखा के सामानातंर खड़े नजर आते हैं। क्योंकि देश में असमानता की खाई इतनी चौड़ी है कि एक तरफ औसतम प्रति व्यक्ति प्रति दिन आय 295 रुपये बैठती है। जबकि 35 रुपये रोज के दायरे देश के 37 करोड़ नागरिक आ जाते है।

ऐसा भी नहीं है कि सरकारें समझती नहीं, चाहे सत्ता हो या विपक्ष। दोनों की बातों को सुनिये तो आप महसूस करेंगे कि गरीबों के किसान-मजदूरों के हालात भी सत्ता को पता हैं। देश की संपत्ति चंद हथेलियों में सिमटी हुई है ये भी विपक्ष को पता है। बावजूद इसके ना जवान की हालत ठीक होती है ना किसान मालामाल होता है। तो ये समझना जरुरी है कि किसी भी सरकार ने बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर पर कोई काम किया भी है या नहीं। क्योंकि जवानों का वेतन नौ हजार रुपये पार नहीं करता और किसानों की आय छह हजार से ज्यादा होती नहीं।

बीते 70 बरस के दौर में किसानी गले की फांस बनती है तो किसान का बेटा ही सेना में जवान के तौर पर जाकर सीमा की रक्षा करता है। आंकडे बताते हैं कि सेना में 72 फीसदी जवान किसान परिवार से ही आते हैं। संयोग देखिये पुंछ में तैनात जिस जवान ने खाने का कच्चा-चिट्टा मोबाइल में कैदकर देश को दिखा दिया। उसके पिता भी किसान थे और दादाजी सुभाषचन्द्र बोस की सेना में जवान थे। उसके घर की माली हालात देखकर या सीमा पर तैनाती में मिलती रोटी-दाल देखकर अगर जय जवान जय किसान का नारा लगा सकते हैं तो लगाईये। लेकिन उससे पहले देश के सच को भी समझ लीजिये और फिर सोचिये कि जिस जवान जय किसान तो दूर देश में जब न्यूनतम इन्फ्रस्ट्रक्चर किसी भी क्षेत्र में नहीं है तो फिर जवान को कौन देखे या किसान का जिक्र कौन करें। क्योंकि 67 फीसदी जमीन पर सिंचाई होती नहीं। 72 फीसदी गांव में पीने का साफ पानी नहीं। 77 फीसदी देश को 24 घंटे बिजली का इंतजार आज भी है। सिर्फ 12 फीसदी आबादी को ढोने वाला पब्लिक ट्रास्पोर्ट सिस्टम खड़ा हो पाया है। 81 फिसदी आबादी के लिये सरकारी अस्पताल उपब्लध नहीं है। 72 फीसदी शहरी बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते नहीं। न्यूनतम मजदूरी कोई ठेकेदार देता नहीं। रोजगार है नहीं। तो क्या जिस इन्फ्रास्ट्रक्चर पर हर सत्ता ध्यान को ध्यान देना चाहिये उसने उसी की तरफ से आंखे मूंद रखी हैं फिर भले ही नोटबंदी के बाद देश के सोशल इंडेक्स चाहे नीचे चला गया हो।

लेकिन उन हालातों को समझना जरुरी है कि नोटबंदी हो या कोई भी आर्थिक नीति देश को एक समान एक हालात में क्यों खड़ा नहीं कर सकती और करप्शन देश की रगों में क्यों दौड़ेगा? मसलन करप्शन भी जरुरत भी जीने के हालात से कैसे जोड़ दिया गया जब सरकार बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर भी देश को नहीं दे पा रहे हैं तो सिचाई के लिये पंप चाहिये, बिजली के लिये जेनरेटर-इनवर्टर चाहिये, -इलाज के लिये प्राईवेट अस्पताल चाहिये, शिक्षा के लिये कान्वेंट स्कूल चाहिये, सफर के लिये निजी गाडी चाहिये, मजदूरी के लिये ठेकेदार की गुलामी करने पड़े तो न्यूनत मजदूरी कौन देगा।

यानी जब सरकार ही जनता की न्यूनतम जरुरतों को पूरा करना तक अपनी जिम्मेदारी ना मान रही हो तब होगा क्या टैक्स चोरी,करप्शन ,ज्यादा कमाई के लिये किसी भी हद तक जाने की चाहत और देश के मिजाज में जब ये हालात जुड जायेंगे तो क्या सेना भी इससे अछूत रह पायेगी? ये सवाल इसलिये क्योंकि जिस जवान ने रोटी-दाल के सच को उभारा उस रोटी दाल के पीछे का सच ये भी है कि सेना के लिये तो आर्मी सप्लाई कोर है। लेकिन पैरा मिलिट्री फोर्स के लिये गृह मंत्रालय हर सेक्टर को बजट की रकम देता है। यानी जवान जब सीनियर अधिकारियों की लूट का जिक्र कर रहा है। तो साफ है कि हर सेक्टर में बटालियनों के जवानों के लिये जो बजट आता है। उस बजट से अनाज खरीद हर सेक्टर के अधिकारी करते हैं और सीएजी ने 2010 और 2016 में अपनी रिपोर्ट में सप्लाई की इसी चेन में गडबड़ी का जिक्र किया।

 



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