आज गांधी जी होते तो खुद फोटो पर एतराज जता चुके होते

खरी-खरी            Jan 15, 2017


ऋतुपर्ण दवे।
शायद महात्मा गांधी को, परलोक में यकीन न हो कि उनका वो पुत्र जिसने शपथ ले रखी है संविधान रक्षा की, देश की एकता, अखण्डता, अक्षुणता की, धर्मनिरपेक्षता और भाईचारे को बनाए रखने की, उनके नाम खादी पेटेण्ट की बात करेगा, भारतीय करेन्सी से तस्वीर हटाए जाने की बात कहेगा! काश गांधीजी होते तो शायद वो स्वीकार ही नहीं करते कि उनकी तस्वीरें उपयोग की जाएं। लेकिन अफसोस देश को स्वतंत्रता दिलाने के कुछ ही महीनों बाद उनकी हत्या कर दी गई। यदि ऐसा न होता तो संभव है उनकी बहुत सी प्रार्थनाएं, याचनाएं, निवेदन और मनुहारें सामने आ पातीं। गांधीजी खादी, नोट और हर उस जगह, जहां उनको आज की भाषा में ब्रान्ड एम्बेसेडर बनाए जाने का ऐतराज कर चुके होते। गांधीजी नहीं हैं। लेकिन उनका देश के प्रति प्रेम कभी चुकेगा नहीं।

यही कारण है कि सरकारें चाहे जिसकी रही हों, गांधीजी सबके लिए आदर्श रहे, प्रेरणा के स्त्रोत रहे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी गांधीजी से प्रभावित हैं। उनके प्रेरक प्रसंगों और उद्गारों की चर्चा करते थकते नहीं। मोदीजी के स्वच्छ भारत मिशन का प्रतीक चिन्ह भी तो गांधीजी का चश्मा ही है जिसके एक कांच पर स्वच्छ और दूसरे पर भारत लिखा है। काश अनिल विज ने इस भावना को अपने चश्में के बजाए प्रधानमंत्री के चश्मे से देखा होता?

तरकश से निकला तीर और जुबान से निकले शब्द कभी वापस नहीं होते। अब भले ही, अपने कई विवादित बयानों के बाद, फिर से विवादों में आए हरियाणा के मंत्री अनिल विज ने ट्वीट कर कहा हो “महात्मा गांधी पर दिया बयान मेरा निजी बयान है। किसी की भावना को आहत न करे इसलिए मैं इसे वापस लेता हूं।” शायद उन्हें यह पता नहीं कि जिस सोशल मीडिया का सहारा लेकर सफाई दे रहे हैं उसी सोशल मीडिया पर उनका विवादित वीडियो भी वायरल हो रहा है। अनिल विज भूल गए कि मन की बात कहकर पलटने का मतलब देश समझता है, लोकतंत्र का रखवाला समझता है। मन की बात के मायने काश प्रधानमंत्री से पूछ लिए होते? यकीनन बयान वापसी से पहले के उनके शब्द बल्कि कहें कि उनकी अंतर आत्मा के उवाच “गांधीजी ने कोई खादी का ट्रेडमार्क तो करा नहीं रखा है। पहले भी कई बार उनकी तस्वीर नहीं लगी है।

गांधीजी का तो नाम ही ऐसा है जिस चीज पर लग जाती है वो चीज डूब जाती है। रुपए के ऊपर लगी और रुपया हमारा डूबता ही चला गया।” संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को कितना शोभा देता है ये तो उनसे भी उंचे पदों पर बैठे लोग जाने। लेकिन उस बापू को जिसको पूरे देश ने राष्ट्रपिता स्वीकारा, जिसने बिना खडग, बिना ढ़ाल आजादी का उपहार इस देश को दिया, उसके लिए यह सोच न केवल निंदनीय है बल्कि शायद किसी को भी स्वीकार्य नहीं होगी। गांधीजी डायरी, कैलेण्डर और खादी से ऊपर हैं, वो देश से भी ऊपर हैं क्योंकि पिता एक ही होता है वो तो देश के पिता है राष्ट्रपिता! शायद अति उत्साह में या शीर्ष नेतृत्व का निगाहबन बनने के लिए माता-पिता को लज्जित करना काबिले माफी है या नहीं नहीं पता। बस इतना पता है कि बापू ने कभी भी कुछ भी ट्रेडमार्क नहीं कराया। यहां तक लंगोटी, लाठी और चश्मा, खून से सनी मिट्टी, छलनी सीना और जर्जर शरीर तक यहीं छोड कर चले गए। बावजूद यह सब उनके नाम सियासत? यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है या स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति नहीं पता, पता है तो बस इतना, अगर वो जिन्दा होते तो सुनते ही अनिल विज को बिना मांफी मांगे, माफ जरूर कर देते।



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