सुंदर चंद ठाकुर।
जब भी मैं धर्म लिखा हुआ पढ़ता हूं, तो 'युद्ध' स्वयं दिमाग में आकर उसके साथ जुड़ जाता है। धर्म के साथ कभी 'शांति' या 'विकास' को जुड़ते हुए न देखा और न सुना। दुनिया का इतिहास उठाकर देख लो, धर्म ने विनाश ही ज्यादा किया है। दिलचस्प बात यह है कि आप दुनिया का कोई भी धर्म उठा लीजिए, हरेक ने कभी न कभी अपने नाम पर कोई न कोई खूनी खेल जरूर खेला है। ऐसा तब जबकि हर धर्म अपने मूल सिद्धांतों में अहिंसा का नाम जरूर लेता है।
ये कैसी अहिंसा, जो खून से खेली जाती है? पर यही सच है। क्योंकि हम जिस धर्म की बात कर रहे हैं, वह धर्म है ही नहीं। कम से कम जनता के लिए तो नहीं ही है। वह अगर धर्म है, तो सिर्फ राजनीति के लिए और नेता लोग उसके नाम पर अपनी सियासी रोटियां सेंकने का काम करते हैं। पिछले दिनों हमें यही देखने को मिला। ऐसा प्रचारित करवाया गया कि राहुल गांधी हिंदू नहीं हैं, क्योंकि एक मंदिर में प्रवेश करते हुए उनका नाम गैर हिंदुओं में लिखा गया। जाहिर है, ऐसा करने की जरूरत इसलिए आई क्योंकि गुजरात में चुनाव होने वाले हैं।
भाजपा को संभवत: लगता हो कि उनके हिंदू धर्म के अनुयायी यह जानने के बाद कि राहुल गांधी गैर-हिंदू हैं, उन्हें वोट नहीं देंगे। उधर कुछ दिनों पहले कांग्रेस ने भी राहुल गांधी के बारे में यह प्रचारित करवाया था कि वह एक नंबर के शिव भक्त हैं। जाहिर है, कांग्रेसियों का भी इरादा हिंदू वोटरों को लुभाना था कि देखो तुम राहुल गांधी को नहीं, एक शिव-भक्त को वोट दोगे और इससे शिवजी तुम पर प्रसन्न होंगे।
यूपी में तो इन दिनों घोषित रूप से हिंदू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री पद पर बैठा दिया गया है। लेकिन इसका क्या करें कि नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद वहां क्राइम बढ़ गया है।
असल में दिक्कत धर्म के साथ नहीं है। धर्म तो सभी अच्छे ही हैं और जब तक धर्म वैयक्तिक स्तर पर रहता है, वह परिणाम भी अच्छे देता है। लेकिन जब धर्म सार्वजनिक स्तर पर आता है, तो उसे लोग अपने भीतर मौजूद अहम, स्वाभिमान, अभिमान आदि के साथ ग्रहण करते हैं। ऐसा करते ही उसमें स्वयं हिंसा का प्रवेश हो जाता है। उसमें हिंसा का प्रवेश न हो इसके लिए यह जरूरी है कि आपके भीतर ही हिंसा न हो।
पर दुर्भाग्य से धर्म कभी आपकी भीतरी हिंसा को नहीं मार सकता। इस कार्य के लिए आपको 'ध्यान' की शरण में जाना होगा। ध्यान ही आपके भीतर वह स्पेस पैदा करता है, जहां तुम दूसरों को स्वीकार पाते हो। दूसरों को भी वैसा ही मानते हो जैसे कि आप हो। और तब ही वस्तुत: विकास की यात्रा शुरू होती है।
अमेरिका और यूरोप में लोगों ने उस तरह ध्यान को नहीं अपनाया, जिस तरह उसे भारतीय योगियों और मुनियों ने अपनाया और जिसे अब कॉरपोरेट दुनिया के शीर्ष अधिकारी भी अपना रहे हैं और अपनी सफलता की वजह भी उसी को बता रहे हैं। लेकिन इन मुल्कों ने सीधे उन गुणों को अपनाया, जो अन्यथा ध्यान के परिणामस्वरूप पैदा होते हैं- दूसरों के अधिकारों को सम्मान देना, अपने काम को तल्लीन होकर करना और परंपरागत धर्म की कैद से मुक्त होना।
यह तो तय है कि राजनीति में धर्म एक जीवन-पद्धति के रूप में कभी स्वीकार ही नहीं किया जा सकता। वहां उसे हमेशा एक औजार या हथियार के रूप में ही इस्तेमाल किया जाता रहा है और आज भी यही हो रहा है। बल्कि अब पहले की तुलना में ज्यादा खुलकर धर्म की राजनीति की जाने लगी है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सत्तासीन लोग अपने हिंदू या मुसलमान होने को राजनीतिज्ञ होने से बड़ा मान रहे हैं।
ज्यादा साल नहीं हुए, जब अटलबिहारी वाजपेयी ने राजधर्म की बात की थी। उन्होंने तब गुजरात के मुख्यमंत्री के लिए अपना संदेश देते हुए कहा था - 'राजा को, शासक को राजधर्म का पालन करना चाहिए। राजा को प्रजा में भेद नहीं होना चाहिए। न जन्म के आधार पर, न जाति के, न संप्रदाय के आधार पर।'
जब अटल जी ने यह बात कही थी, तब नरेंद्र मोदी तत्कालीन मुख्यमंत्री के रूप में उनके साथ ही बैठे थे और बीच में बुदबुदाए भी थे कि हम भी इसी धर्म का पालन कर रहे हैं। खैर, इसका इल्म तो अब उन्हें ही होगा कि वे किस धर्म का पालन कर रहे हैं? राजधर्म निभाना ही राजा का धर्म है, सचमुच इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है।
साभार नवभारत टाईम्स मुंबई। लेखक टाईम्स ग्रुप में वरिष्ठ संपादक हैं।
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