मनोज कुमार।
13 फरवरी 1982 से लेकर इस तेरह फरवरी 2018 के इस सफर में भारत भवन ने अपना स्वर्णकाल देखा और अपने पतन का काल भी। इस समय '36’ का आंकड़ा हो गया है कला और कला घर के बीच।
हालांकि जिस समय भारत भवन की स्थापना की कल्पना की गई थी और उसे आकार लिया था तब इसकी बुनियाद में कला मर्मज्ञ थे। वे सारे लोग हर बंधन से मुक्त थे लेकिन बाद के सालों में भारत भवन कलागृह से कलहघर और बाद के दिनों में तो पूरी तरह से प्रयोगशाला बन चुका है।
भारत भवन मध्यप्रदेश का संस्कृति विभाग का एक प्रभाग मात्र है क्योंकि तकरीबन दर्जन भर से ज्यादा अकादमी और परिषदें काम कर रही हैं।
भारत भवन की चर्चा इसलिए कि 13 फरवरी को उसकी एक और सालगिरह है और इसके बहाने ही सही, संस्कृति विभाग को खंगाल लेना बेबुनियाद नहीं होगा।
अब भारत भवन के नाम पर लोग खींचे चले नहीं आते हैं और ना ही रंगयात्रा का कोई ऐसा पड़ाव देखने को मिला है जो बता सके कि 37 बरस बाद भारत भवन ने यह पाया है। बल्कि हर बरस बीतने के साथ भारत भवन का वैभव क्षरित हुआ है।
भारत भवन का छत्तीस बरस पुराना वैभव लौटना तो शायद संभव नहीं होगा लेकिन कुछ साज-संवार की कोशिश तो की ही जा सकती है।
इस कलागृह में जो सृजनात्मक गतिविधियां होती थी, उसे पीछे ढकेल दिया गया। डुप्लीकेसी होने लगी। रंगमंडल को भव्यता प्रदान नहीं कर पाए तो उसके समकक्ष मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय के नाम पर एक नई संस्था का श्रीगणेश कर दिय गया।
संजय उपाध्याय जैसे मंझे हुए नाट्यकर्मी को इसकी जवाबदारी दी गई। संजय के बाद एक और मंझे अभिनेता आलोक चटर्जी के हाथों में मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय की कमान है।
अपनी स्थापना के बाद से लगातार नाटकों की यह पाठशाला खुद में नाटक बनकर रह गया है। अखबारों की सुर्खियां अपने विवादों से बटोरने वाला इस पाठशाला के खाते में डिग्री बांटने का ही जिम्मा रह गया है।
जो लोग नाट्य विधा से जुड़े हैं, वे जानते हैं कि नाटक के लिए डिग्री नहीं अनुभव की जरूरत होती है। भीतर आग की जरूरत होती है और अभिनेता जब पर्दे पर होता है तो दर्शक बंध जाते हैं लेकिन ऐसा कुछ होता दिख नहीं रहा है।
बाबा कारंत, अलखनंदन, विभा मिश्रा, आलोक चटर्जी, जयंत देशमुख कभी रंगमंडल की पहचान हुआ करते थे। आज इस नए नवेले नाटक की पाठशाला में ऐसे दो नाम भी गिनाने लायक शायद ही मिलें।
सबसे दुखद प्रसंग तो यह है कि भारत भवन के मंच पर एकाधिक बार ऐसे नाटकों का मंचन हुआ जिसकी पटकथा और संवाद को लेकर बवाल मचा।
ऐसे में उठता है क्या यह वही रंगमंडल है जहां एक नाटक की छाप महीनों दिलो-दिमाग में होती थी? बीते दिनों को बिसराने का मन तो होता है लेकिन जो कसक दिल में है उससे कैसे निजात मिले?
कभी ना भुलाने वाली भोपाल गैस त्रासदी के बाद हुए विश्व कविता सम्मेलन में तब के अफसर अशोक वाजपेई फरमाते हैं कि-‘मरने वालों के साथ मरा नहीं जाता’ और ताल ठोंक कर आयोजन पूरा कर लेते हैं।
उनके इस असंवेदनशील आचरण को भी लोग नहीं भूले हैं। लेकिन विश्व फलक पर भारत भवन की चमक बिखेरने वाला कोई आयोजन अब बीती बातें होकर रह गई हैं।
भारत भवन के अन्य प्रभागों का भी यही हाल है। प्रकाशन बदहाल अवस्था में हैं। एक वह समय था जब एक आलेख की चर्चा पूरे देश में होती थी। अब खुद लिखे और खुद बांचे की अवस्था में भारत भवन का प्रकाशन है।
सही बात तो यह है कि अब ठीक-ठाक यह बताना भी मुश्किल सा है कि वहां क्या और कब प्रकाशित हो रहा है। हां, भारत भवन आयोजनों को लेकर चर्चा में रहता है।
पिछले कुछ समय से देश के विभिन्न राज्यों की कलाओं का प्रदर्शन के लिए मध्यप्रदेश संस्कृति विभाग के पास मोटा बजट है।
हिन्दी और अहिन्दी भाषी प्रदेशों की कलाओं का प्रदर्शन का सिलसिला चल पड़ा है। यह एक अच्छी पहल है कि हम सांस्कृतिक राजदूत की भूमिका में हैं।
यह होना भी चाहिए क्योंकि मध्यप्रदेश देश का दिल है तो धड़कल के रूप में सांस्कृतिक विविधता इसकी पहचान बने लेकिन क्या मध्यप्रदेश की विविधवर्णी संस्कृति को इनमें से किसी प्रदेश ने बुलाया, पूछा? जवाब शायद ना में होगा।
हम तो अतिथि देवो भव: की परम्परा को आगे बढ़ाने में जुटे हुए हैं और लोगों को इस बात की इत्तला हो जाए, इसके लिए लाखों रुपयों का इश्तेहार भी दे रहे हैं। स्वाभाविक सा सवाल है कि इस पूरी कवायद का सुफल मध्यप्रदेश के हिस्से में क्या आया?
भारत भवन के अलावा जो दर्जन भर से ज्यादा अकादमी और परिषदें हैं, उनकी सफलता-विफलता पर एक नजर डालना तो बनता है।
हिन्दी की पताका हम देशभर में फहराते रहे हैं लेकिन स्वयं मध्यप्रदेश साहित्य परिषद अपने पांव समेटे बैठा है. यह भी एक आयोजनधर्मी परिषद के रूप में मौजूद है।
यकीन ना हो तो उन आयोजनों का स्मरण कर लीजिए जिसमें देशभर के उन सम्पादकों को बुलावा भेजा, जिनके प्रकाशनों का कोई अता-पता नहीं। एक बार आयोजनों में आमंत्रित सम्पादकों की सूची खंगालने की जरूरत है तब पता चल जाएगा कि आयोजन का मकसद और परिणाम क्या हुआ।
इन आयोजनों में स्पष्ट रूप से दृष्टि का अभाव दिखता है। एक स्तरीय पत्रिका के रूप में पहचान स्थापित करने वाली पत्रिका ‘साक्षात्कार’ का वैभव भी लुप्तप्राय: है।
वैसे तो राज्य के साहित्यकारों तथा साहित्य के संरक्षण, प्रोत्साहन तथा विकास के उद्देश्यों की प्रतिपूर्ति के लिए
मध्य प्रदेश शासन ने साहित्य अकादमी के रूप में मध्यप्रदेश साहित्य परिषद का गठन किया है। इसकी प्रथम स्थापना तत्कालीन मध्य प्रदेश की राजधानी नागपुर में सन 1954 में की गयी थी। वर्ष 1956 में नये मध्य प्रदेश राज्य के गठन के बाद इस परिषद को राजधानी भोपाल में स्थानांतरित कर दिया गया।
साल 2003 में मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद का निर्माण किया गया और कुछेक अकादमी एवं परिषदों को इसमें समाहित किया गया।
विभाग की वेबसाइट का अवलोकन करते हैं तो यह पता करना मुश्किल है कि उर्दू अकादमी किसके हिस्से में है? इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है।
अलबत्ता 1952 में ग्वालियर में मध्य भारत कला परिषद् की स्थापना हुई थी जिसे नए मध्यप्रदेश के गठन के बाद मध्यप्रदेश कला परिषद के नाम से संबोधित किया गया किन्तु 2003 में संस्कृति विभाग द्वारा मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद् का गठन किया गया और इसका नाम मध्यप्रदेश कला अकादमी रखा गया।
वर्ष 2006 में पूर्व से ही कार्यरत मैहर घराने प्रवृत्तक गायक उस्ताद अलाउद्दीन खाँ के नाम से संचालित संगीत कला अकादमी का विलय कला अकादमी में किया गया।
संस्कृति विभाग ने वर्ष 1978 में उज्जैन में कालिदास अकादमी की स्थापना की। यह अकादमी मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद के अंतर्गत संचालित है।
साल 1980 में मध्यप्रदेश आदिवासी लोक अकादमी के नाम से कार्य कर रही का नाम परिवर्तित कर आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी रखा गया।
इस अकादमी का मुख्य लक्ष्य व उद्देश्य, जनजातीय कला को प्रोत्साहन, संरक्षण व प्रोत्साहन प्रदान करना है। यह अकादमी सर्वेक्षण संचालित करती है, विभिन्न आयोजन कार्यक्रम आयोजित करती है।
जनजातीय कला के विभिन्न पक्षों पर केंद्रित चौमासा इसका प्रतिष्ठित प्रकाशन है। साल में एक बार लोकरंग शीर्षक से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजन कराती है।
मध्यप्रदेश के गठन से ही प्रदेश के निर्माण में मराठी भाषियों का अपना एक स्थान एवं महत्व रहा है। मध्य भारत से मध्यप्रदेश के निर्माण के समय नागपुर तथा अन्य स्थानों से मध्यप्रदेश में आये में मराठीभाषी लोगों की संख्या बहुतायत में है।
मराठीभाषी भोपाल, इन्दौर, उज्जैन, देवास, रतलाम, धार मन्दसौर, हरदा, खण्डवा, बुरहानपुर, होशंगाबाद, इटारसी, जबलपुर, ग्वालियर, सागर, बैतूल, मुलताई आदि जिलों में बहुतायत से निवास करते हैं।
मराठी संस्कृति एवं साहित्य को अक्षुण रखने तथा उन्हें बढ़ावा देने एवं उनका संवर्द्धन करने के उद्देश्य से साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद् के अन्तर्गत मराठी प्रभाग वर्ष 2008 से कार्यरत था।
वर्ष 2010 से इसका विस्तार करने हेतु मराठी साहित्य अकादमी का गठन शासन द्वारा किया गया। मध्यप्रदेश संस्कृति विभाग ने बीते सालों में मराठी साहित्य अकादमी के साथ ही उज्जैन में त्रिवेणी संग्रहालय, चित्रकूट में तुलसी शोध संस्थान और खजुराहो में चंदेला कल्चरर सेंटर आदिवर्त की स्थापना की गई है।
इसके अतिरिक्त संस्कृति विभाग की सरपरस्ति में संगीत एवं ललित कलाओं के 12 महाविद्यालय के साथ राजा मानसिंह तोमर के नाम संगीत एवं कला विश्वविद्यालय का संचालन होता है।
इन सालों में प्रदेश के सबसे प्रतिष्ठित आयोजन खजुराहो नृत्य महोत्सव हो या ग्वालियर में तानसेन संगीत समारोह के वैभव को विवादों में बदलकर रख दिया है। समय-समय पर विश्व मंच पर अपनी साधना से स्थापित हुए कलाकारों को बिसरा दिया गया।
अब तक लोकरंग एकमात्र आयोजन शेष था लेकिन इस वर्ष जिस तरह इस आयोजन की भद् पिटी है, उसकी भरपाई करने में सालों लग जाएंगे।
कालिदास समारोह भी अब तक खटाई में है, इस आशय की खबर स्थानीय अखबारों में छप रही है।
देश के ह्दयप्रदेश कहा जाने वाला मध्यप्रदेश उत्सव का प्रदेश कहलाता है। यह उसकी पहचान है लेकिन शनै:शनै: इस पर ग्रहण लगता चला जा रहा है।
संस्कृति विभाग के अधिकारी-कर्मचारी निजी पहचान स्थापित करने में जुटे हुए हैं। कोई लेखक के तौर पर पहचान बनाने के लिए संसाधनों का उपयोग कर रहा है तो कोई स्तंभकार बनने में पीछे नहीं है। उनका लेखकीय दायित्व हो तो भी ठीक लेकिन एक से अधिक स्रोतों से धन अर्जन की शिकायतें भी हैं।
इस संदर्भ में नाटकों की पाठशाला के बारे में यह भी समझ से परे है कि नाटक की इस पाठशाला में नौकरी करते हुए और राज्य सरकार के अन्य महकमों में काम करते हुए खुद की रेपेटरी चलाने का समय और साहस कहां से मिलता है?
केन्द्र एवं राज्य सरकार से आर्थिक मदद भी लेने में पीछे नहीं है। यह सब कार्य विभागीय अनुमति के पश्चात ही होता होगा लेकिन अनुमति देने वालों को इस बात पर जोर देना चाहिए कि पहले संस्था का मान बढ़े, अभिमान बढ़े।
याद नहीं आता कि रंगमंडल में काम करते हुए लोगों ने कभी खुद का कोई दल खड़ा किया हो लेकिन रंगमंडल की गूंज आज भी सुनाई दे जाती है। भारत भवन की वर्षगांठ की तैयारियां हो रही होगी लेकिन कोई हलचल नहीं है।
एक समय हुआ करता था जब भारत भवन की वर्षगांठ रस्मी ना होकर एक उत्सव पर्व की भांति होता था।
बहरहाल, एक बार फिर भारत भवन की वर्षगांठ पर हम आल्हादित हैं। शुभकामनाएं देते हैं, बधाई देते हैं और टकटकी लगाये बैठे हैं कि इस बार तो कम से कम हमारी उपस्थिति के लिए वे याद रखेंगे।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और समागम पत्रिका के संपादक हैं। उनसे संपर्क 09300469918 पर किया जा सकता है।
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