राकेश दुबे।
सरकार ने भले ही देश में सूखा घोषित न किया हो,पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष चार गुना अधिक सूखा है। देश के ४२ प्रतिशत भू-भाग के सूखाग्रस्त होने का आंकड़ा तो मार्च २०१९ के अंत में ही आ गया था। कोई ६ प्रतिशत भू-भाग पर इसका दुष्प्रभाव, ज्यादा गहरा दिख रहा है।
देश के ९१ मुख्य जलाश्यों में पिछले सप्ताह ३१.६५ अरब क्युबिक मीटर पानी ही शेष बताया गया था । पिछले तीन-चार दशकों की तुलना में यह सबसे अधिक दुष्प्रभावी सूखा है। वर्ष २०१६ से हम लगातार सूखा देख रहे है / भोग रहे हैं।
सूखे का सबसे ज्यादा नुक़सान इस वर्ष तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, बिहार, झारखण्ड तथा पूर्वोत्तरी हिस्से की एक बड़ी आबादी को भोगना पड़ रहा है।
आई आई टी इंदौर और गुवाहटी का संयुक्त अध्ययन बताता है कि भारत के हर पांच में तीन जिले सूखे के का सामना करने की स्थिति में तैयार नहीं है। यही हाल रहा तो हम शीघ्र पानी के स्थाई संकट से ग्रस्त देशों में गिने जायेंगे।
राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने हाल ही में कुछ प्रतिबंध लगाने के निर्देश दिए हैं। देखा जाये तो बांधों और नहरों के नाम पर अब तक का सबसे बड़ा बजट खाने वाला महाराष्ट्र आज सर्वाधिक जल संकटग्रस्त राज्य है। हर घर में नल वाली राजधानी दिल्ली, मुंबई, बंगलुरु, चेन्नई आदि बाजार में बिक रहे पानी पर जिन्दा है। इसका हल चाहिए और तुरंत चाहिए।
क्या कोई बता सकता है कि जो कर्नाटक ने अगस्त, २०१८ में बाढ़ प्रभावित हो, उसी में चार महीने बाद यानी जनवरी, २०१९ में १७६ में से १५६ कस्बे सूखाग्रस्त क्यों घोषित करने पड़े?
सही मायने में वर्तमान सूखा, कम सुविधा के कारण नहीं, अधिक उपभोग के कारण पैदा हुआ है। देश का भूजल स्तर ६५ प्रतिशत तक गिर गया है। सही मायने में हमने जल दोहन के मामलों में दुनिया को पीछे छोड़ दिया है और जल संचयन की दौड़ में हम लगातार पिछड़ते जा रहे हैं।
यह सूखा, बारिश की कमी से नहीं, कम संचयन, और अधिक जल निकासी, अधिक दुरुपयोग से उत्पन्न असंतुलन का नतीजा है। समाधान करना है तो सबसे पहले पानी प्रबंधन करने वाली व्यवस्था सुधारें; जल प्रबन्धन के पिरामिड को उसके उचित आधार पर ले आएं। सिंचाई और उद्योग - पानी के दो सबसे बड़े उपभोक्ता है।
इन दोनो से संबंधित वर्गों द्वारा अपनी ज़रूरत के पानी का इंतज़ाम की जवाबदेही खुद अपने हाथ में लेने को प्राथमिकता पर लाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं।
सबसे पहले हम केन्द्र व राज्य सरकारों की जगह स्थानीय स्तर पर कुछ खोजें । ग्राम पंचायत व नगर-निगमों की परिधि में आने वाले सार्वजनिक जल-स्त्रोतों तथा संसाधनों के प्रबंधन तथा आबादी को स्वच्छ पेयजल मुहैया कराने की ज़िम्मेदारी तथा उपयोग के अधिकार स्थानीय संस्थाओं को है। उन्हें उनके कर्तव्य की याद दिलाएं और उनके हाथ इस दिशा में मजबूत करें।
वर्षा ऋतु सर पर है। सड़क आदि जिस भी काम के लिए मिट्टी चाहिए; चिन्हित तालाबों के तल को गहरा करके वहां से लेने के आदेश सरकार तत्काल जारी करे। इससे जल संचयन-निकासी का संतुलन भी सधने लगेगा और जल उपयोग की महत्ता के साथ उसके संचयन का कष्ट भी पता लगेगा ।
इन प्रयासों से भूजल-स्तर ऊपर उठेगा, तो प्रदूषण स्वत: नियंत्रित होने लगेगा। प्रदूषण निवारण की समझ और लोकदायित्व का बोधमार्ग भी इसी से साफ़ दिखेगा । पानी के बगैर सब सूना है पता लग गया है। पानी बचाएं।
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