कीर्ति राणा।
विधायक उमंग सिंघार को भी पता है कि आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाए जाने संबंधी उनकी मांग पर फिलहाल कांग्रेस भी ध्यान नहीं देगी लेकिन विश्व आदिवासी दिवस के पहले यह मांग कांग्रेस के साथ भाजपा से भी कर के उन्होंने प्रदेश राजनीति के तालाब में हलचल तो मचा ही दी है।
विधायक सिंघार की इस मांग पर प्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा से लेकर भाजपा प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा तक ने प्रतिक्रिया व्यक्त करने में उत्साह तो खूब दिखाया है लेकिन भाजपा के तमाम बड़े से लेकर छोटे नेताओं तक को पता है कि अगला मुख्यमंत्री आदिवासी हो ऐसी आजाद जुबान तो वो अपनी पार्टी में हिला तक नहीं सकते।
कांग्रेस में अनुशासनहीनता की लाईन छूने तक बयानबाजी की जा सकती है लेकिन भाजपा में बड़े नेताओं के सामने दिल की बात कहने पर पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती तक को पनिशमेंट का शिकार होना पड़ता है।
टंट्या मामा को पूजने के इवेंट के साथ आदिवासी गौरव रक्षा की बात करने वाले भाजपा के किसी नेता ने झूठे मुंह मंच से भी आज तक यह सपना नहीं देखा कि मप्र की बागडोर किसी आदिवासी को सौंपी जाए।
किसी दलित-आदिवासी को बागडोर सौंपे जाने की इच्छा का इजहार तो वरिष्ठ कांग्रेस नेता अर्जुनसिंह ने किया था लेकिन जब विधायक दल की बैठक होने को थी तब अपने पटु शिष्य दिग्विजय सिंह का नाम आगे कर दिया।
आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने का तो नहीं लेकिन मप्र में दलित-पिछड़े आदिवासी समाज के प्रतिनिधि को उप मुख्यमंत्री बनाने का श्रेय कांग्रेस के खाते में दर्ज है-यह भी एक कारण है कि कांग्रेस भाजपा पर बनिये-ब्राह्मण की पार्टी होने का आरोप लगाती रही है।
मप्र की 230 सीटों में मालवा-निमाड़ की 66 सीटों में जो दल अधिक सीटें प्राप्त कर लेता है उस दल की सरकार आसानी से बनती रही है। यही एक बड़ा कारण रहा है कि कांग्रेस ने सुभाष यादव, शिवभानु सिंह सोलंकी और जमुनादेवी को उप मुख्यमंत्री बना कर आदिवासी वोट बैंक को साधे रखा।
समाजवादी मामा बालेश्नर दयाल का आदिवासी अंचलों में आज भी प्रभाव है।उन्होंने ही जमुनादेवी को राजनीति में आगे बढ़ाया। उप मुख्यमंत्री रहीं जमुनादेवी के भतीजे-विधायक उमंग सिंघार यदि आज आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग कर रहे हैं तो अपरोक्ष रूप से यह आदिवासी वोट बैंक को कांग्रेस के पक्ष में लाने की रणनीति भी कही जा सकती है।सिंघार यदि यह कह रहे हैं कि वे खुद को आदिवासी सीएम के लिए प्रोजेक्ट नहीं कर रहे हैं तो इसकी वजह वो खुद भी जानते हैं कि उनका व्यक्तिगत जीवन इतना उजला नहीं है कि इस पद की दावेदारी पर विधायक आसानी से सहमति दे दें।
उनकी इस मांग की वजह पूर्व सांसद कांतिलाल भूरिया को मजबूत बनाने के लिए हो सकती है लेकिन भूरिया भी पिछला लोकसभा चुनाव सुमेर सिंह सोलंकी के हाथों हार कर झाबुआ-रतलाम संसदीय क्षेत्र में अपना जनाधार ढह जाने की इबारत खुद ही लिख चुके हैं।
कांग्रेस ने उन्हें चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बना कर एक तरह से उनके राजनीतिक उपलब्धियों पर जमी गर्त साफ करने की पहल भी इसलिये की है कि मुद्दा 66 सीटों पर अपने पक्ष में माहौल बनाने का है।भूरिया इस समिति के अध्यक्ष हैं। उनके पुत्र डॉ विक्रांत भूरिया प्रदेश युवक कांग्रेस अध्यक्ष हैं ही।
पिता-पुत्र को कांग्रेस और कितना दे? झाबुआ क्षेत्र से इस परिवार के घोर विरोधी रहे (स्व) दिलीप सिंह भूरिया भी कांग्रेस से सांसद रहे लेकिन सीएम बनने का सपना पूरा नहीं हुआ। भाजपा ज्वाइन करने के बाद वे राष्ट्रीय स्तर पर आयोग के अध्यक्ष जितना ही सम्मान पा सके थे।
विधायक उमंग सिंघार की मांग को निमाड़ क्षेत्र के कांग्रेस नेताओं का ही समर्थन नहीं मिल पाया है।नेता प्रतिपक्ष डॉ गोविंद सिंह ने सीएम फेस को लेकर भले ही कमलनाथ के संदर्भ में चौंकाने वाले बयान देना बंद नहीं किए हों लेकिन आदिवासी सीएम जैसी मांग का उन्होंने भी समर्थन नहीं किया है।
यह हकीकत भी सब समझते हैं कि विपक्ष का दायित्व संभाल पाने में कांग्रेस यदि आज हिम्मत दिखा रही है तो उसकी ताकत भी उद्योगपति कमलनाथ ही हैं। गांधी परिवार को जितने कमलनाथ प्रिय हैं उतने ही दिग्वजय सिंह भी इस परिवार के प्रति निष्ठावान तब से हैं जब अर्जुन सिंह, एनडी तिवारी, माधवराव सिंधिया ने इंदिरा गांधी से नाराजी के चलते तिवारी कांग्रेस गठित कर ली थी, तब भी दिग्विजय सिंह ने अर्जुन सिंह के साथ जाने की अफवाहों पर विराम लगाते हुए इंदिरा गांधी के प्रति अपनी निष्ठा जाहिर की थी।
कभी कमलनाथ इन्हीं दिग्विजय सिंह को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने में सहयोगी बने थे तो 2018 में सिंधिया के सपनों को चकनाचूर कर कमलनाथ को प्रदेश का नेतृत्व सौंपने में दिग्विजय सिंह की खास भूमिका रही थी। इस बार भी प्रदेश में यदि कांग्रेस सत्ता शिखर पर पहुंचती है तो कमलनाथ को बुरी नजरों से बचाने की झाड़फूंक दिग्विजय सिंह को ही करना है।
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