ममता मल्हार।
जीते तो जग जग की जीत, हारे तो हरि नाम
यह स्थिति मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पिछले कुछ सालों से बनी हुई है। चाहे ससंदीय बोर्ड से शिवराज को अलग करने का मामला हो या पूर्व गृहमंत्री के अपने पेड न्यूज के सिलसिले में दिल्ली जाने की बात हो हर बार यह हवा बहुत तेजी से बनाने की कोशिश की गई कि अब शिवराज सीएम नहीं रहेंगे। बिना तथ्य और संबंधित के बिना कथ्य की इस पत्रकारिता के दौर में यह जुमले जैसे मध्यप्रदेश में आम हो गए हैं।
आज जब सोमवार 11 दिसंबर को दोपहर के 2 बजकर 8 मिनट हो रहे हैं तो विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के 9 दिन बाद भी जब यह स्पष्ट नहीं है कि मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री कौन बनेगा? कोई नया चेहरा मप्र को 18 साल बाद मुख्यमंत्री के रूप में मिलेगा या शिवराज ही अपनी पांचवी पारी की शुरूआत फिर से करेंगे? इन सवालों के जवाब भी कयासों में ही खोजे जा रहे हैं।
उसके पीछे कारण है कि कोई कितने भी बड़े दावे कर ले पर असल बात तो यह है कि भाजपा की तरफ से पिछले कुछ समय से सारे सूत्र खत्म कर दिए गए हैं। अब कोई सूत्र नहीं होता जो पुख्ता खबर या कोई एक पक्की लाईन भी पकड़ा सके कि अब यह होने वाला है।
यही हो रहा है मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री चयन को लेकर, कयास-कयास, अनुमान-अनुमान। फिर किसी को अपने क्षेत्र का मुख्यमंत्री चाहिए तो किसी को जाति का, पर राज्य को तो मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री चाहिए और यह कुहासा अभी छंटा नहीं है।
तमाम दावों कयासों, अनुामानों के बावजूद यह तथ्य नकारा नहीं जा सकता कि शिवराज सिंह की हाड़तोड़ मेहनत, लाड़ली बहना और हर आयु वर्ग को साधने की उनकी रणनीति ने मध्यप्रदेश में भाजपा की जीत का रोडमैप तेयार किया।
यह वही भाजपा है जिसका कोर भाजपाई भी आज के 6 महीने पहले कह रहा था कि इस बार मुश्किल है भाजपा जीते।
शिवराज के खिलाफ माहौल था, जनता में भी नाराजगी थी, मीडिया के चुनिंदा वर्ग की पूछताछ के कारण मध्यम मीडिया खुद को उपेक्षित महसूस कर रहा था। पर आखिर में जब शिवराज खुद जमीन पर उतरे तो माहौल को अपने पक्ष में कर ही लिया।
एक दिन में 10 से 11 सभाएं करने वाले शिवराज ने पूरे चुनावों में 165 सभाएं कीं और भाजपा 163 सीटें लेकर आई।
भाजपा का चुनावी प्रचार तो बाद में शुरू हुआ मगर नगरिय निकाय चुनाव के बाद से शिवराज बैठे नहीं उनका प्रचार चलता रहा।
भाजपा ने जिस रणनीतिक और जमीनी मेहनत तरीके से यह चुनाव लड़ा वह उसकी जीत सुनिश्चत कर गया। पर इस पूरी चुनावी रणभूमि में शिवराज की मेहनत को नरजदअंदान नहीं किया जा सकता।
शिवराज पिछले करीब दो साल से दोधारी तलवार पर चलने जैसी स्थिति का सामने का रहे हैं। बाहर-भीतर के इस अंतर्द्वंद के बावजूद उन्होंने न तो संयम खोया, न ही उम्मीद छोड़ी न अपने काम की पिच छोड़ी।
शिवराज सिंह चौहान की यह खासियत है कि वे जब भी किसी बड़े संकट या विकट परिस्थितियों में घिरते हैं तो वे दोगुनी क्षमता के साथ सक्रिय हो जाते हैं और जनता के बीच पहुंच जाते हैं।
उनकी इसी क्षमता ने तमाम दरकिनारियों के बावजूद उन्हें न चाहते हुए भी फ्रंट पर रखा और उनकी इसी क्षमता के कारण आखिर को प्रधानमंत्री मोदी ने पत्र लिखकर न सिर्फ उनकी तारीफ की बल्कि मध्यप्रदेश मॉडल को सबसे बेहतरीन बताया। वे सबकुछ नजरअंदाज कर सिर्फ और सिर्फ जनता के बीच अपने काम में लगे रहे।
यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि अगर भाजपा यह चुनाव नहीं जीत पाती तो आज हार के ताज के साथ शिवराज अकेले खड़े होते। ये अलग बात है भाजपा ने टीम बनकर स्प्रिट के साथ चुनाव लड़ा और जीती भी।
आज मुख्यमंत्री कौन बनता है कौन नहीं यह अलग बात है। लोग भले ही उनका नाम लेने से कतराते रहें लेकिन मध्यप्रदेश की जनता के मन में शिवराज हैं और शायद मप्र के वे पहले ऐसे मुख्यमंत्री होंगे जिनके लिए जनता प्रार्थनाएं कर रही है कि मामा ही मुख्यमंत्री बनें।
क्योंकि जनता को एक विश्वास है चाहे वह किसी भी धर्म जाति वर्ग की हो कि वह अपने प्रदेश के मुखिया के साथ रो सकती है हंस सकती है।
अगर आज जनता से शिवराज का यह कनेक्शन है और वे मप्र में पब्लिक फेस ही नहीं जनता के करीब भी हैं तो ऐसे में पार्टी लोकसभा को देखते हुए कोई बड़ा बदलाव करेगी ऐसा लगता नहीं।
पर बात इससे आगे जाती है तो शिवराज जहां भी होंगे एक नई इबारत लिखेंगे। उनकी दावेदारी मजबूत इसलिए भी लगती है क्योंकि बाकी जितने नाम हैं उनके साथ प्लस-माईनस भी बहुत हैं।
भाजपा तमाम जीत के बावजूद और पॉवर में रहने के बावजूद जमीन नहीं छोड़ती है तो उम्मीद की जा सकती है कि जमीनी आंकलन, जनता के मन और उसकी पसंद को इतनी आसानी से नकारेगी नहीं।
आज का सत्य यही है कि शिवराज ने लकीर बड़ी खींच दी है जनता के बीच बाकि असलियत यही है कि जीते तो जग जग की जीत, हारे तो हरि नाम
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