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अखबारों का विकास फिर कॉरपोरेट पत्रकारिता अब उसके खेल

मीडिया            May 23, 2016


sanjay-singhसंजय कुमार सिंह। तकनीक उपलब्ध न होने के कारण पहले अखबार एक ही जगह से छपते थे और छपे हुए अखबार भिन्न तरीकों से दूर के शहरों में भेजे जाते थे। जहां लोग एक-दो दिन बाद भी उन्हें पढ़ते थे। तकनीक और सुविधाएं बढ़ती गईं तो अलग शहरों के लिए अलग संस्करण छपने लगे। उदाहरण के लिए, रोज सुबह की बजाय देर शाम दिन भर की खबरों से शाम में ही अखबार छाप दिया जाए तो प्रकाशन स्थल से 400-500 किलोमीटर या उससे भी ज्यादा दूर तक के शहरों में अगली सुबह पहुंच जाए। दूसरा रात आठ नौ बजे फिर बारह बजे और एक स्थानीय संस्करण सुबह-सुबह छपते हैं। शुरू में यह सुबह दो बजे होती थी अब चार बजे होती होगी। कुल मिलाकर, एक ही शहर से अखबारों के लिए एक से ज्यादा संस्करण छापे जाते हैं जो लोकप्रियता और मांग के अनुसार दूर तक भेजे और पढ़े जाते थे। अभी भी ऐसा चल रहा है। मांग के अनुसार अखबारों के संस्करणों की संख्या तय होती है। पहले जो अखबार जिन शहरों के लिए छपते थे (हो सकता है अभी भी ऐसा ही हो) उन्हें वहां के स्थानीय अखबारों से मुकाबला करना होता था। इसलिए, इन संस्करणों में वहां की खबरें छापी जाती थीं जहां इन्हें बेचना होता था या ये जहां के लोगों के लिए छपते थे। इससे वहां के पाठकों को भी लगता था कि उनके शहर की खबर भी ‘बाहर’ के अखबार में होती है इसलिए सभी अखबार एक हैं। आम पाठक के लिए खबरें ही महत्त्वपूर्ण होती हैं। ज्यादातर लोग एक ही अखबार खरीदते-पढ़ते हैं। इस तरह स्थानीय और बाहरी अखबारों में एक तरह की प्रतिस्पर्धा थी और बड़े अखबारों की सीमा थी तो उनका ब्रांड भी। वे बहुत ज्यादा स्थानीय नहीं हो सकते थे और इस लिहाज से स्थानीय अखबारों से मुकाबला नहीं कर सकते थे। इसलिए अखबारों में गली मोहल्लों की खबरें और ज्यादा से ज्यादा नाम छापने का प्रचलन शुरू हुआ। स्थानीय अखबारों ने और भी स्थानीय उपाय किए। मेरा बचपन जमशेदपुर में गुजरा है जो उस समय था तो बिहार में पर कोलकाता से करीब है। हमारे यहां (उस समय हमारी हैसियत के हमारे जैसे दूसरे लोगों के यहां भी) एक अखबार पटना का (स्थानीय) और एक कोलकाता का (जो ‘राष्ट्रीय’ होता था) आता था। ध्यान रहे, उन दिनों खबरों का स्रोत अखबार ही होता था। रेडियो कान में लगाए रहना संभव नहीं था। कोलकाता से जब टेलीग्राफ निकलना शुरू हुआ तो मेरा प्रिय अखबार बना। पहले तो दोनों अखबार शाम में पहुंचते थे फिर एक नई ट्रेन (इस्पात एक्सप्रेस) चलनी शुरू हुई तो कोलकाता वाला दोपहर में बंटने लगा और पटना वाला शाम में। इसके बाद तकनालॉजी का और विकास हुआ। तकनीक सस्ती हुई लोगों के पास पैसे हुए तो अपेक्षाकृत छोटे शहरों से भी अखबार निकलने शुरू हुए। बिहार में रांची के बाद जमशेदपुर और धनबाद जैसे शहरों से भी अखबार निकलने लगे। ये शहर अब झारखंड में हैं। इनमें नौकरियों की भी संभावना बनी पर वह अलग मुद्दा है। उसपर फिर कभी। जमशेदपुर से उदितवाणी शुरू हुआ। उसमें मैंने पाठकों के पत्र से शुरू करके खूब रिपोर्टिंग की। बाद में आज और प्रभातखबर में लिखते हुए जनसत्ता में रिक्ति निकली तो मैं दिल्ली आ गया। इसके बाद अपेक्षाकृत बड़े अखबारों के संस्करण भिन्न शहरों से छपने लगे। राष्ट्रीय अखबारों के साथ राज्यों की राजधानियों से निकलने वाले अखबारों का भी विकास हुआ और उनके भी संस्करण छपने लगे। इस दौर में अमृतबाजार पत्रिका का संस्करण जमशेदपुर से भी शुरू हुआ। बड़े अखबारों से प्रतिस्पर्धा में बड़े राज्यों के बड़े अखबार तो टिके रहे पर छोटे अखबार टिक नहीं पाए। या तो बंद हो गए या फिर सिमट गए। मैं उन अखबारों की बात कर रहा हूं जो स्टॉल पर नियमित दिखते हैं। उनकी नहीं, जो पंजीकृत तो हैं पर कागजों में ही छपते हैं और कागज के कोटा तथा सरकारी विज्ञापन के खेल में लगे हैं। उनकी अलग दुनिया है। उसपर बहुत कम चर्चा होती है और आम आदमी की दिलचस्पी का मुद्दा नहीं है इसलिए उसे भी छोड़ता हूं। print-media-corporate अब स्थिति यह आई है कि बड़े अखबारों के संस्करण छोटे शहरों से भी छपने लगे। रंगारंग खूबसूरत चकाचक। बेचने के लिए तरह-तरह के उपाय किए गए उसमें छोटे अखबारों का दम घुटता गया या कहिए घुट ही रहा है। जो बंद हो गए बिक गए उनकी बाद अलग है पर छोटे अखबारों में भी कुछ ऐसे हैं जो ना बंद हुए ना अपने सिद्धांतों से हटे। कुछेक इतने छोटे या कमजोर हैं कि बड़े अखबारों के तमाम फार्मूले अपना लेने के बाद भी नहीं बढ़ पाए। हर तरह के अखबार हैं और सरकारी विज्ञापनों का खेल सबको जिन्दा रखे हुए है। विज्ञापनों का खेल सरकारी ही नहीं, वसूली और लुटाने का भी है। बड़े अखबार स्थापित हो गए तो यह जरूरत भी होगी। उन्हें अपने निवेश का लाभ भी लेना था। तब शुरू हुई कारपोरेट पत्रकारिता और इसके साथ आया पेड न्यूज। अक्सर यह चर्चा रहती है कि अरविन्द केजरीवाल और उनकी पार्टी को मीडिया में ज्यादा जगह मिलती है। कुछ लोग कहते हैं कि मीडिया उनके पक्ष में है, कुछ कहते हैं खिलाफ है कुछ कहते हैं वे सरकारी विज्ञापनों से मीडिया को अपने पक्ष में रखने की कोशिश करते हैं। पता नहीं इसमें कितनी सच्चाई है। पर आज एक खबर देखकर लगा कि अरविन्द केजरीवाल के पक्ष में या खिलाफ – पूर्वग्रह तो है। आज के हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रकाशित बिजली की कमी से परेशानी की इस खबर को देखिए। दिल्ली की सबसे बड़ी, फिर गुड़गांव (हरियाणा) की गाजियाबाद-नोएडा (एक साथ सबसे छोटी) और फिर फरीदाबाद गोल। यह संपादकीय स्वतंत्रता का भी मामला है और संपादकीय दृष्टि से मैं खबरों को ऐसा ट्रीटमेंट दिए जाने के कारण बता सकता हूं। और इसके लिए अखबार या संपादकीय टीम को कोई दोष नहीं देता। लेकिन एक पाठक के रूप में मुझे अच्छा लगता अगर गाजियाबाद में मेरे घर आए संस्करण में गाजियाबाद वाली खबर वैसे छपी होती जैसे दिल्ली की छपी है। मैंने नेट पर देख लिया गुड़गांव और दिल्ली – दोनों एडिशन में ये खबरें ऐसे ही हैं। ये है कॉरपोरेट पत्रकारिता। फेसबुक वॉल से।


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