प्रभात रंजन
क्या ओम थानवी को भुला दिया जाना चाहिए? वरिष्ठ साहित्यकार प्रभात रंजन ने यह सवाल किया है अपने ब्लॉग में। वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी की रिटायरमेंट की चर्चाओं के बीच। हालांकि श्री थानवी अब तक सेवानिवृत्त हो चुके हैं जनसत्ता से। लेकिन रंजन जी की बातें प्रासंगिक हैं अभी भी पढिये....
हमेशा की तरह आज भी सुबह उठकर सबसे पहले जनसत्ता अखबार खोला। ओम थानवी का नाम संपादक की जगह नहीं मिला, जबकि अखबार में कोई बदलाव नहीं दिखा लेकिन न जाने क्यों पढ़ते हुए एक सूनापन, खालीपन महसूस हुआ। होता है 16 साल से उनका नाम देख रहा था। इन बरसों में ‘जनसत्ता’ और ओम थानवी को एक दूसरे का पर्याय होते देखा, हिंदी के वाद विवाद संवाद के जरूरी अखबार के रूप में बनते देखा। कल जब संपादक के रूप में उनका विदा पत्र मेल पर पढ़ा तो उसमें उन्होंने बताया था कि वे 26 सालों तक इस अखबार में रहे। लेकिन पाठक के रूप में मैं उनको तबसे जानता हूं जब से दिल्ली में संपादक बनकर वे आये। 16 साल हो गए।
यही सोचता रहा कि क्या ओम थानवी को भुला दिया जाना चाहिए? पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से अफवाहों का दौर चल रहा है उससे भी लगता है जैसे उनकी छवि को धुंधला किये जाने की कोशिश की जा रही हो। बहरहाल, निजी तौर मैं कभी उनके करीबियों में नहीं रहा लेकिन एक संपादक के रूप में कई कारणों से उनके साथ जुडाव महसूस करता रहा। वैसे दौर में जब हिंदी में फ़ूड और फैशन पत्रकारिता का दौर शुरू हुआ, जब हिंदी के अखबारों ने बौद्धिकता से, बौद्धिक बहसों से दूरी बनानी शुरू की उस दौर में भी जनसत्ता हिंदी में बौद्धिकता का प्रतिनिधि अखबार बना रहा तो यह ओम थानवी की ही वजह से। इन 16 वर्षों में उन्होंने जनसत्ता को हिंदी समाज की बहसों के केंद्र में बनाए रखा, साहित्य को उचित सम्मानित जगह दी। यह बहुत बड़ी बात है। आज अखबार के लोकप्रिय होने का पहला सूत्र संपादक लोग यही देते हैं कि साहित्य से उचित दूरी बनाई जाए। जबकि जनसत्ता सहमत-असहमत सभी हिंदी साहित्यिकों के लिए जरूरी अखबार बना रहा। इसे इस रूप में बनाए रखने में जनसत्ता और उसके संपादक ओम थानवी की भूमिका को क्या नकारा जा सकता है?
जनसत्ता को लेकर एक बड़ा विरोधाभास देखता सुनता रहा। हिंदी के वे विद्वान जो बाजार का, बिकने का विरोध करते रहे जनसत्ता कि इसलिए आलोचना करते रहे कि इसकी प्रसार संख्या कम हो गई है, कि यह अखबार बिकता नहीं है। जबकि सच्चाई यह है कि अपनी कम प्रसार संख्या के बावजूद जनसत्ता एक ऐसा अखबार बना रहा जिसकी अपनी आवाज थी, सत्ता के गलियारों में जिसकी धमक सुनाई देती थी। हिंदी के बाहर का जो बौद्धिक समाज था वह या तो ‘हंस’ से जुड़ता था या जनसत्ता से। यह मैं अपने अनुभव से जानता हूं।
यह अखबार अपने समाचारों के लिए नहीं अपनी विचार दृष्टि के लिए जाना जाता रहा, अपनी स्पष्ट धर्मनिरपेक्ष दृष्टि के लिए जाना जाता रहा, अपने सीमित संसाधनों के बावजूद इसकी आवाज को बुलंद बनाए रखने में ओम थानवी ने बड़ी भूमिका निभाई। क्या इस बात से इनकार किया जा सकता है कि बौद्धिक असंतोष को सबसे मुखर होकर जनसत्ता ने ही जगह दी?
एक ज़माना था जब पत्र-पत्रिकाओं को पढ़कर हम भाषा के शुद्ध प्रयोग को सीखा करते थे, लेकिन आज टीवी समाचारों की तरह अखबारों की भाषा भी अराजक होती जा रही है, वैसे में जनसत्ता संपादक के रूप में ओम थानवी ने भाषा प्रयोगों को लेकर सजगता दिखाई, भाषा प्रयोगों को लेकर बहस चलाई। मुझे नहीं लगता है कि भाषा को लेकर इतना सजग संपादक हिंदी में कोई दूसरा है।
वे एक सजग भाषाविद और स्पष्ट वैचारिक दृष्टि वाले मुखर संपादक थे। ऐसे दौर में उनकी कमी बहुत अधिक खलेगी जब अखबारों में संपादकों की न कोई छाप दिखाई देती है न ही उनकी कोई आवाज सुनाई देती है। वे 16 सालों तक जनसत्ता की पहचान थे। प्रभाष जोशी के बाद शायद दूसरे। उनके सेवानिवृत्त हो जाने से एक बहुत बड़ा शून्य पैदा हुआ है जो आसानी से नहीं भरेगा। उनके सार्वजनिक कर्म का का उचित सार्वजनिक मूल्यांकन किया जाना चाहिए। निजी आग्रहों-दुराग्रहों से हटकर।
साभार:वरिष्ठ साहित्यकार प्रभात रंजन के ब्लॉग जानकीपुल.कॉम से
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