संजय स्वतंत्र।
कल देर रात सोने से पहले देश-दुनिया की खबरों पर अंतिम नजर डाल ही रहा था कि एक समाचार पर नजर ठहर गई। फिर वहां से हटी ही नहीं। यह ऐसी खबर थी कि मैं तीस साल पीछे चला गया।
अस्सी के दशक का वह दौर था और स्कूल के दिन थे। आज की तरह मोबाइल और इंटरनेट नहीं था। न ही ज्यादातर घरों में लोगों के पास टीवी सेट थे और न ही इतने तमाम चैनल तथा गला फाड़ते समाचार प्रस्तोता यानी एंकर।
क्या ही वह दौर था। चंद अखबार थे। और टीवी यानी दूरदर्शन ही मनोरंजन का माध्यम था। वह भी आज की तरह दोपहर में नहीं चलता था। शाम छह बजे एक खास सिग्नेचर टोन के साथ शुरू होता था।
शायद रात साढ़े दस बजे तक समाचार और मनोरंजन के चंद कार्यक्रम आते थे। जिनमें बुधवार को चित्रहार और रविवार की शाम फिल्म का शिद्दत से इंतजार रहता था।
समाचार पढ़ने वाले भी गिनती के थे। जिनमें सलमा सुल्तान तो हमारे पंडारा रोड वाले निवास के पास ही रहती थीं जो कभी-कभार घर के बाहर शाम को दिख जाती थीं।
सरला जरीवाला (सरला माहेश्वरी) तो हमारे हिंदू कालेज के साहित्यिक कार्यक्रमों भी आती थीं।
अंग्रेजी में समाचार पढ़ने वाले भी दो-तीन लोग ही थे, जिनमें गीतांजलि अय्यर खास थीं। सधे हुए स्वर और एक खास स्थिर अंदाज में वे समाचार पढ़ती थीं। हम बच्चे तो उन्हें देख कर बढ़े हुए।
गीतांजलि उन दिनों दस बारह साल बड़ी थीं हमारी वाली पीढ़ी से। एकदम मैम लगती थीं। मानो अंग्रेजी में लेक्चर दे रही हों। बीबीसी के समाचार वाचक की तरह।
खैर जब सोने चला तो उनके निधन की खबर पढ़ कर दिल बुझ सा गया। ख्याल आया कि एक दिन तो सब को जाना है।
मगर गीतांजलि दी की उम्र ही क्या थी, महज सत्तर साल। अभी वे दस पंद्रह साल और जीतीं।
खबर में जिक्र है कि पुरस्कार विजेता प्रस्तोता पाकिंर्संस रोग से पीड़ित थीं और वह टहलने के बाद घर लौटते समय बेहोश हो गई थीं। अय्यर के परिवार में उनका एक पुत्र और पुत्री पल्लवी अय्यर हैं, जो खुद एक पत्रकार हैं।
आज के समाचार वाचकों को गीतंजलि अय्यर से सीखना चाहिए कि समाचार कैसे शांति से पढ़ते हैं। कैसे अपने हाव-भाव से खबरों में स्पंदन पैदा करते हैं।
अलविदा गीतांजलि जी। आप हमारी वाली पीढ़ी को बहुत याद आएंगी। आपका चेहरा अभी आंखों के सामने है। आपको विनम्र श्रद्धाजंलि।
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