बृजेश राजपूत।
सच कहें तो पहले तो भरोसा ही नहीं हुआ। क्या ये सब संभव होगा जब सागर विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के 34 साल के सहपाठी एक जगह पर मिलेंगे। इन सालों में कितना पानी बह गया है। कितना वक्त गुजर गया है। कितने लोग बदल गये हैं।
क्या लोगों की दिलचस्पी होगी अपने पुराने साथियों से मिलने की। कौन कैसा लगने लगा होगा ये बात तो फेसबुक पर लगने वाली फोटुओ ने दूर कर दी फिर भी रूबरू मिलने और पुराने दिन याद करने की चाहत तो दिल में होगी ही।
यही सोचकर दिल्ली से लेकर भोपाल और सागर तक आयोजन समिति बनी। वाटसअप ग्रुप बना। जैसा कि होता है वाटसअप ग्रुप में काम की बातें कम बेवजह के विवाद ज्यादा होते हैं सो हुये मगर पुराने साथियों से मिलने की भावना में कोई कमी नहीं आयी।
आखिर वो दिन आ ही गया जब ‘वापसी 34 साल के साथियों की’ नाम से हुये आयोजन में वो लोग पहुंचे जो सागर विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग में कभी पढे थे।
आयोजन के दूसरे दिन जब मैं सागर विश्वविद्यालय में आयोजन स्थल बने जवाहर लाल नेहरू पुस्तकालय की सीढियां चढ रहा था। तो मन में अजीब उमंग सी थी। ये वही पुस्तकालय है जिसे देख कर कालेज के शुरूआती दिनों में डर तो बाद में गौरव का अहसास होता था।
ये वही पुस्तकालय है जिसके दीवारों से सटाकर हमने सरदार सरोवर परियोजना के विरोध की पोस्टर प्रदर्शनी लगायी थी और बताया था कि ये बडी बांध परियोजनाएं कितनी दुखदायी और विनाशकारी होती है।
तब हमारी इस पहल का विरोध भी हुआ था कि पत्रकारिता के विदयार्थी ये सरकार विरोधी बातें क्यों करते हैं मगर शायद लोग जानते नहीं थे कि हमें तो पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष प्रदीप कृष्णात्रै ने यही सिखाया था कि पत्रकारिता तो कक्षा में शिक्षक के विरोध से ही शुरू होती है सरकार तो बाद में आती है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मायने विरोध में बोलने की स्वतंत्रता होती है। ये हमें जिन शिक्षकों ने रटाया था वो सारे शिक्षक और एक कक्षा में पढने वाले दोस्त आज मिलेंगे ये सोचकर ही मन प्रफुल्लित था।
लाइब्रेरी की सीढियों से ही पुराने दोस्त दिखने लगे। उधर नये विद्यार्थी भी दूर से ही पहचान कर अभिवादन कर रहे थे। सीढियां चढ कर जब रजिस्टेशन डेस्क पर अपना नाम लिखा कार्ड पहनकर जैसे ही एलुमिनी का बैच शर्ट के पाकेट में लगाया तो एक अलग ही अहसास हुआ।
लगा पुराना जमाना लौट आया है और उस हाल में प्रवेश करते ही पुराने शिक्षकों और सीनियर्स को देख मन में दबा छिपा कई साल पुराना विदयार्थी भाव लौट आया।
हाल की एक कतार में मेरे 1989 90 बैच के अपने सहपाठियों अखिलेश अवस्थी, मनोज द्विवेदी, विनय मिश्रा, आलोक सिंघई, आशीष भाईजी, गुंजन शुक्ला, राकेश गौतम और मंच संचालन करने वाले शैलेन्द्र ठाकुर के साथ बैठकर बिलकुल वैसा ही लगा जैसे अटठाइस साल पहले लगता था।
मजे से क्लास में पीछे या जहां जगह मिले बैठना, शिक्षक की कुछ बातें सुनना कुछ अनसुनी करना। इसी अनसुनी करने की वजह से मुझे पीछे अपने परिवार के साथ बैठे सर प्रदीप कृष्णात्रै ने दी थी कि आज भी याद है।
वो कुछ कह रहे थे और मैं पीछे बैठकर किसी से बात कर उनकी बात अनसुनी कर रहा था तो उन्होंने मुझे कक्षा से उठाकर सीधे उस जगह भेज दिया जिसका जिक्र वो कर रहे थे यानि कि हरसूद। यकीन मानिये 1989 में मैं कक्षा से सीघे उठकर हरसूद गया था। ऐसा पाठ पढाने वाले प्रदीप जी अपने परिवार के साथ आये थे।
उनके बारे में हर छात्र इतनी बातें कर रहा था कि उनकी बेटी को बोलना पडा कि पापा आप इतने सारे लोगों के रोल माडल हो हमको आज पता चला। बहुत सारी बातें हमको भी यहां आकर अपने दूसरे दोस्तों के बारे में पता चलीं क्योंकि यहां आये हर साथी को अपने बैच के साथियों के साथ मंच पर बैठकर अपने बारे मे बताना था।
वो क्या था और क्या हो गया है इतने सालों में। सच अतीत कितना प्यारा और कितना सुखद होता है बहुत दिनों के बाद यहां आकर अहसास हुआ। अपने बारे में बताते—बताते हर व्यक्ति बहक रहा था सभी के पास सुनाने को बहुत सारी बातें थीं। सब लोग सब कुछ सुनाना चाहते थे मगर समय की पाबंदी रोक रही थी।
मैं भी अपने बारे में बहुत कुछ बोलना बताना चाहता था मगर सामने बैठे शिक्षकों और सीनियर्स शिवकुमार विवेक, भूपेंद्र गौतम, मुकेश कुमार, प्रदीप पाठक, राजेश सिरोठिया, रजनीश जैन, चंदू चौबे, अशोक मनवानी, राजेश बैन, बृजेश त्रिपाठी के आगे बोलती बंद थी। दीपक तिवारी, शरद द्विवेदी, पुष्पेंद्र पाल सिंह और मणिकांत सोनी मेरे बाद वाले बैच के है मगर सामने तो बैठे थे ही।
खैर किसी तरह बोलना खत्म हुआ तो फिर चला सेल्फी का दौर। नये और पुराने छात्रों के साथ मोबाइल कैमरे में कैद होते वक्त ठीक वैसा ही लग रहा था जैसे अपने परिवार के लोगों के साथ फोटो खिचवाते हुये लगता है। लाइब्रेरी की छत और सीढियों पर खींची गयीं फोटों में फिट होना और बाद में अपने को उनमें अपने को तलाशना आज भी अच्छा लगता है।
इन कार्यक्रमों के बीच मैं किसी नये छात्र की मोटर साइकिल पर बैठ टैगोर हॉस्टल का चक्कर भी लगा आया था। हास्टल के गलियारे कमरे और वाशरूम में ज्यादा बदलाव तो नहीं हुआ था इसलिये सब कुछ जाना पहचाना पुराने जैसा ही लगा।
हाथ पसारे आकार में खडा हास्टल के सामने जब मोबाइल से फोटो खिंचवाई तो अहसास हुआ कि इस हास्टल के गलियारों से लेकर विश्वविद्यालय की गलियों तक सबने कितना सिखाया और बनाया है।
पत्रकारिता में सफलता का कोई छोटा रास्ता नहीं होता, ये सबक भी विश्वविद्यालय के इन्हीं रास्तों ने सिखाया है...
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और एबीपी न्यूज के मप्र ब्यूरोचीफ हैं।
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