हेमंत कुमार झा।
स्कूल 'छापा' मारने की जगह नहीं बल्कि 'निरीक्षण' करने की जगह है।
लेकिन, बिहार के मीडिया में आजकल "सरकारी स्कूलों में छापा" वाली शब्दावली का खूब प्रयोग हो रहा है।
प्रचलित नैरेटिव में सरकारी स्कूलों को बदनाम और बेइज्जत करने में मीडिया की बड़ी भूमिका है।
जबसे बिहार के शिक्षा विभाग में नए बड़े हाकिम की पदस्थापना हुई है, अचानक से स्कूल और कॉलेजों के मास्टर साहब लोग चर्चा में हैं।
चर्चा भी इस तरह... कि जैसे बिहार की शिक्षा में व्याप्त तमाम अराजकताओं के लिए बस मास्टर लोग ही दोषी हैं।
हाकिम का आदेश हुआ कि पदाधिकारी से लेकर किरानी जी तक, डाटा इंट्री ऑपरेटर से लेकर पंचायत सचिव तक नियमित रूप से स्कूलों का निरीक्षण करेंगे और प्रतिवेदन भर कर विभाग को भेजेंगे।
यानी, स्कूलों का निरीक्षण, जिसे मीडिया अक्सर छापा और रेड बताता है, करने के लिए किरानी बाबू तक अपना काम छोड़ कर तमाम स्कूलों के चक्कर लगा रहे हैं।
सब जानते हैं कि शिक्षा महकमे के विभिन्न टेबुलों पर कितने काम पेंडिंग रहते हैं, कर्मियों के कितने पद रिक्त हैं, लेकिन जो भी हैं उनमें से बहुत सारे क्लर्क अब मीडिया के शब्दों में शिक्षकों के "नट बोल्ट" कसने में लगा दिए गए हैं।
जब भी बिहार के स्कूल-कॉलेजों में शिक्षा की दुर्दशा और उसके सुधार की बातें उठती हैं, बस एक ही बात होती है, "मास्टरों को पकड़ो"।
खबरें छपती हैं कि आज इतने मास्टर 'धराए', आज इतने का वेतन रोका गया या काटा गया।
फिर, मामला जस का तस।
नैरेटिव ही सेट कर दिया गया है कि हर दुर्व्यवस्था के लिए शिक्षक जिम्मेवार हैं इसलिए उन्हें धरो, पकड़ो।
निस्संदेह, ऐसे हालात के लिए शिक्षकों की जिम्मेवारी भी बनती है लेकिन सिर्फ उन्हें ही बदनाम और प्रताड़ित कर शिक्षा का कोई भला नहीं हो सकता।
सब जानते हैं कि पंद्रह-सत्रह वर्षों पहले से नियुक्त हो कर स्कूलों में पढ़ा रहे शिक्षकों के स्थानांतरण के लिए शिक्षा विभाग कोई नीति बना कर उस पर अमल नहीं कर सका है और न जाने कितने शिक्षक, जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल हैं, घंटों के सफर के बाद अपने कार्यस्थल पर जाते हैं, कितनी महिला शिक्षकों का स्थानांतरण न होने से पारिवारिक - सामाजिक जीवन तबाह हो रहा है।
बिहार के शिक्षा विभाग के नए हाकिम को निस्संदेह बहुत पॉवर होगा। उन्हें इसका उपयोग प्राइवेट स्कूलों की मनमानी और वहां हो रहे निरीह शिक्षकों के शोषण पर लगाम कसने में भी करना चाहिए। अभिभावकों को लूट लेने की जो प्रवृत्ति प्राइवेट स्कूलों में बढ़ती ही जा रही है, उस पर भी उन्हें ध्यान देना चाहिए।
हाकिम को पॉवर है, उन्हें गांवों, कस्बों, छोटे-बड़े शहरों के गली मुहल्लों में कुकुरमुत्तों की तरह उग आए प्राइवेट स्कूलों की शैक्षणिक ऑडिट भी करवानी चाहिए कि इतनी इतनी फीस लेकर वे किस स्तर की शिक्षा दे रहे हैं, किस स्तर के, किस योग्यता के शिक्षकों से काम ले रहे हैं, उनके साथ कैसा सुलूक कर रहे हैं। आखिर, उन प्राइवेट स्कूलों में भी इसी देश और राज्य के नागरिकों के बच्चे पढ़ते हैं, उन बच्चों के हित देखना भी सरकार का ही दायित्व है। अब तो इस बदलते दौर में गरीब लोग, जिनमें रिक्शा चलाने वालों से ले कर दिहाड़ी मजदूर तक शामिल हैं, के बच्चे भी प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं। शिक्षा विभाग के हाकिमों को अपना ध्यान इस ओर भी देना चाहिये।
सरकारी स्कूलों को और उनके शिक्षकों को बदनाम और बेइज्जत करके कुछ भी हासिल नहीं हो सकता। शिक्षकों के मनोविज्ञान, उनकी सुविधाएं, उनकी गरिमा का ख्याल भी रखना होगा वरना माना जाएगा कि जो भी हो रहा है उससे शोर ज्यादा मच रहा है, उसके सकारात्मक परिणाम कम निकल रहे हैं।
कोई अनजान सा यू ट्यूबर अचानक से किसी सरकारी स्कूल में पहुंच कर तमाशा खड़ा कर देता है। उसकी हिम्मत नहीं कि उसके भाई बंधुओं को लूट रहे और तब भी स्तरहीन और अधकचरी शिक्षा दे रहे किसी प्राइवेट स्कूल में अपने कैमरा को चमकाए।
स्कूलों में छापा...यह कैसी शब्दावली है? यह अस्वीकार्य है। निरीक्षण की जगह छापा जैसे शब्दों का प्रयोग करना बताता है कि कुछ खास अफसरों को सस्ती लोकप्रियता देने के लिए और शिक्षक समुदाय को लांछित करने के लिए जैसे मीडिया ने भी सुपारी ले ली है।
सुदूर देहातों में न्यूनतम सुविधाओं से वंचित, शिक्षक विहीन सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले लाखों निर्धन बच्चों के हित महज छापा से सुरक्षित नहीं किए जा सकते। सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ उनका निरीक्षण और उनसे प्राप्त सूचनाओं और आंकड़ों के आधार पर व्यवस्था में प्रभावी सुधार से ही निर्धन बच्चों की शिक्षा का स्तर सुधरेगा।
कानून में हमेशा यह प्रावधान है कि अपने कर्तव्यों के प्रति लापरवाह शिक्षकों या कर्मियों को किस तरह दंडित किया जाए। लेकिन कानून यह भी बताता है कि स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे और उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षकों के क्या अधिकार हैं और सिस्टम को उनके लिए कैसे प्रयास करने चाहिए।
स्कूली शिक्षा को कल्पनाशून्य और संवेदनहीन ब्यूरोक्रेसी के रहमो करम पर छोड़ कर नीतीश कुमार ने बीते सत्रह-अठारह वर्षों में शिक्षा, शिक्षार्थियों और शिक्षकों का कितना भला किया है, कितना उनका बंटाधार किया है इस पर अगर व्यवस्थित अध्ययन हो तो सुशासन की सारी कलई उतर जाएगी।
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