संजय स्वतंत्र।
क्या आप एक ऐसी सुबह की कल्पना करेंगे जिसमें अखबार नाम की कोई चीज न हो? मेरा इरादा आपको डराने या दुखी करने का नहीं, लेकिन अमेरिका में जिस तरह अखबारों का सर्कुलेशन गिर रहा है और नई पीढ़ी जिस तरह इंटरनेट जैसे सूचना और संवाद के नए माध्यमों से तेजी से जुड़ती जा रही है, उसमें वह दिन दूर नहीं, जब अखबार संग्रहालयों की बस्ती बन जाएंगे......।’
कोई नौ साल पहले हिंदी के एक वरिष्ठ पत्रकार की लिखी ये पंक्तियां आज भी जेहन में पैबस्त हैं। उन्होंने लिखा था कि अमेरिका और यूरोप के देशों में अखबार को मरता हुआ मान लिया गया है। कुछ विशेषज्ञों ने तो यहां तक कह दिया है कि 2040 के आसपास अमेरिका का अंतिम अखबार भी बंद हो जाएगा......। लेकिन क्या हुआ? कुछ भी तो नहीं। यह तब की बात है, जब अमेरिका मंदी के दौर से गुजर रहा था। उन दिनों तमाम बड़े अखबारों की हालत पतली हो गई थी।
आज अमेरिका के अखबार चट्टान की तरह खड़े हैं। कमाई का गुना-भाग मुझे ज्यादा नहीं आता, पर इतना मालूम है कि भारतीय अखबार उद्योग ने भी मंदी के दौर से जिस तरह खुद को उबारा, उसकी मिसाल दुनिया भर में दी जा सकती है।
आज अखबार नहीं आया है। मैं चाय का कप लिए बालकनी में टहल रहा हूं। वरिष्ठ पत्रकार की पंक्तियां याद आ रही हैं। अखबार न पढ़ पाने से जहां चाय फीकी लग रही है, वहीं सुबह की शुरुआत भी एक अधूरेपन का अहसास करा रही है। हॉकर का बेसब्री से इंतजार करते पिताजी से अभी पूछा कि अगर अखबार आना हमेशा के लिए बंद हो जाए तो आप क्या करेंगे? उनका जवाब था- ऐसा कभी नहीं होगा। अगले पचास तक अखबार छपते रहेंगे या उससे भी ज्यादा समय तक। लोग रोज सुबह उसका इंतजार करते रहेंगे। ......यानी अखबार से इश्क की आधी सदी अभी बाकी है।
पिताजी के विचार सकारात्मक है। उनकी बात में दम उस समय लगा, जब पिछले दिनों खबरों का चयन कर रहा था। सहसा एक समाचार पर मेरी निगाह ठहर गई। खबर थी- नेत्रहीनों को अखबार पढ़ कर सुनाएगा दिव्य नयन। यानी अखबार तो नेत्रहीन भी पढ़ना चाहते है। फिर बाकी लोग क्यों नहीं? खबर यह थी कि वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद ने एक ऐसा यंत्र विकसित किया है, जो चिट्ठी-पत्री ही नहीं अखबार भी पढ़ कर सुनाएगा। अद्भुत। तब तो निरक्षर लोग भी अखबार पढ़ सकेंगे। बुजुर्गों को भी राहत मिलेगी, जिनकी नजर कमजोर हो गई है। यानी अखबार पढ़ने की चाहत फिलहाल खत्म नहीं होने वाली।
आजकल के दसवीं और बारहवीं के विद्यार्थियों से पूछता हूं, तो वे निसंकोच कहते हैं कि वे अखबार नहीं पढ़ते। मगर क्यों। इस सवाल पर उनका दो टूक जवाब होता है- हम कल की खबर आज ही पढ़ लेते हैं। जाहिर है कि स्मार्टफोन पर नेट अखबारों के न्यूज फ्लैश के कारण वे सुबह अखबार पढ़ने वालों से कहीं ज्यादा अपडेट रहते हैं। अपने यहां सूचना की यह नई संस्कृति है। अमेरिका में यह आदत एक दशक पहले शुरू हई थी, जब मंदी से उबरने और मोबाइल से लैस नई पीढ़ी को अपने से जोड़ने के लिए अखबारों ने इंटरनेट संस्करण शुरू किए थे।
तो आज मेरा प्रिय अखबार नहीं आया है और मैं दूसरे अखबारों की हैडिंग पर उचटती नजर डाल कर दफ्तर जा रहा हूं। अभी मेट्रो के उसी आखिरी डिब्बे में बैठा हूं हमेशा की तरह। मेरे सामने की सीट पर एक बुजुर्ग बड़ी तन्मयता से हिंदी अखबार पढ़ रहे हैं। मेट्रो यात्रा के दौरान जब कोई अखबार पढ़ता हुआ दिखता है, तो लगता है कि अपने यहां पढ़ने-लिखने की संस्कृति अब भी बची हुई है। यह सोच कर ही तसल्ली मिलती है। अखबारों से यह इश्क ढाई आखर वाले प्रेम से कम नहीं। और आज के दौर में पढ़ाई-लिखाई से प्रेम किए बिना गुजारा भी तो नहीं।
अगला स्टेशन दिल्ली विश्वविद्यालय है, उद्घोषणा हो रही है, स्टेशन आते ही कालेज के युवाओं का उमंग हवा के झोंके के साथ कोच में खिल उठा है। भविष्य के सपने बुनते ये युवा। कई के हाथों में किताबें तो कुछ के हाथ में अखबार। एक खास अखबार अंग्रेजी का, जिसे सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने वाले विद्यार्थी अक्सर पढ़ते हैं। यानी अखबार पढ़ना अब भी जरूरी है। इंटरनेट पर कितना पढ़ेगा कोई। लगातार स्क्रीन पर आंखें गड़ाए रखने से डाक्टर भी मना करते हैं। हाथ में अखबार लेकर पढ़ना कितना सुखद लगता है। साथ में चाय हो तो फिर क्या कहना। चलिए मेट्रो में तो चाय नहीं मिलती, लेकिन आपके अखबार में झांकते सहयात्री जरूर मिल जाएंगे।
निसंदेह आज इंटरनेट पर सूचना की विराट दुनिया है। लेखकों के अनगिनत ब्लॉग हैं। शोध-सूचना और विचार आधारित लाखों वेबसाइट हैं। न जाने कितनी विचारधाराएं तरंगों पर दौड़ रही हैं। ये सभी सामग्री इतनी विस्तृत हैं कि अखबार इसे अपने में समेट नहीं सकता। फिर भी रोज सुबह वह राजहंस की तरह आपके लिए मोती चुन-चुन कर लाता है। शायद इसीलिए हमारी युवा पीढ़ी का बड़ा हिस्सा अखबार का प्रिंट संस्करण भी पढ़ना चाहता है। यह सभी अखबारों के लिए उम्मीदों भरा दौर है।
..... मैं देख रहा हूं कि कोच में एक कालेज छात्रा अंग्रेजी अखबार पढ़ रही है। वह पास बैठी सहेली से किसी न्यूज पर चर्चा कर रही है। आज जब ज्यादातर युवा इंटरनेट की भूलभुलैया में खोए रहते हैं, ऐसे में अखबार पढ़ते युवा और बुजुर्ग समाज को एक संदेशा देते हुए दिखते हैं कि पढ़ने-लिखने का यह भी अच्छा माध्यम है। और एक संदेश यह भी कि अखबार की जरूरत अब भी है। हिंदी और क्षेत्रीय अखबारों की प्रसार संध्या जिस हिसाब से बढ़ रही है, उससे साबित होता है कि लोग आज भी अखबार पढ़ना चाहते हैं।
अगला स्टेशन कश्मीरी गेट है, उद्घोषणा हो रही है। मेट्रो के रुकते ही एक बुजुर्ग सज्जन कोच में सवार हुए हैं। शरीर से मजबूत और मन में आत्मविश्वास। हाथ में झोला। जिसमें कुछ अखबारों के बंडल हैं। मुझे आश्चर्य हुआ। सुबह का अखबार अब कहां लेकर जा रहे हैं ये महोदय? आखिर पूछ ही लिया मैंने। उनका जवाब था कि बचे हुए अखबार को वे पुरानी दिल्ली की लाइब्रेरी में दे देंगे। जहां वरिष्ठ नागरिक इन्हें पढ़ेंगे। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्र इसमें अपने मतलब की चीजें नोट करेंगे। पुस्तकालयों में इन अखबारों की आज भी फाइल बनती है। इससे शोधार्थियों को सहूलियत रहती है। यानी इंटरनेट पर बेतरतीब फैली सामग्री तलाशने से बेहतर है कि आप नियमित अखबार पढ़ें।
...... सुबह अखबार बेचने वाले सज्जन बता रहे हैं कि पांच दशक पहले वे अकेले साइकिल से अखबार बांटा करते थे। अब उन्होंने पांच-छह नौजवानों को इस काम में लगा दिया है। वजह साफ है। लोग पढ़ने के लिए अखबार मांग रहे हैं। किशोर बेशक अपने स्मार्टफोन पर न्यूज देख-पढ़ लेते हों, मगर स्कूल में उन्हें कोई एक न्यूजपेपर पढ़ने के लिए जरूर कहा जाता है। उन्हें अखबार का स्कूल संस्करण पढ़ने के लिए भी प्रेरित किया जाता है।
तो इन सज्जन के थैले में अखबारों के बंडल देख कर नहीं लग रहा कि समाचारपत्रों के पाठक नहीं हैं या इसका भविष्य धुंधला है। संकट का दौर कभी आया भी, तो वह अपना स्वरूप बदल लेगा। जैसे हम उसे आॅनलाइन संस्करण के रूप में आज देख रहे हैं। तब हो सकता है कि अखबार एकतरफा संवाद का माध्यम न रहें। यानी फिर भी अखबार खत्म नहीं होगा। बस पीढ़ी बदलेगी। विचार बदलेंगे। खबरिया चैनलों के बीच अखबार एक सच्चे दोस्त की तरह रोज आएगा आपके घर। और सर्दियों में रजाई में दुबके हुए या गर्मियों
में बालकनी या लॉन में बैठे हुए आप अपनी हमसफर के साथ चाय की चुस्कियां लेते हुए न्यूज की हैंडलाइन पढ़ रहे होंगे। या फिर कोई दिलचस्प समाचार सुनाते हुए उसे हंसा रहे होंगे।
अगला स्टेशन चांदनी चौक है, मेट्रो की उद्घोषणा हो रही है। अखबार वाले सज्जन मुस्कुरा रहे हैं। उनकी मुस्कुराहटों में पचास साल का इश्क है, उस काम से जो वह किशोर अवस्था से कर रहे हैं। ......... बारिश हो या तूफान, सर्दी हो या गर्मी, सुबह से शाम तक यह हॉकर अपने काम में जुटा रहा है निरंतर। इसका अनुशासन बेमिसाल है। ...... प्लेटफार्म पर मेट्रो रुक गई है। झोला लिए बुजुर्ग सज्जन कोच से निकल कर जा रहे हैं। मैं उन्हें जाते हुए देख रहा हूं। वह आपका हॉकर है। जो खुद में अखबार है। वह उम्मीदों से भरा पुलिंदा है। जी हां, वह आपका हॉकर ही है जो आपके मन में उमंग घोल कर जाता है और सूरज चढ़ते ही गुम हो जाता है अपनी दुनिया में।
अखबार जिसकी हर खबर आप चाय की घूंट के साथ पी जाना चाहते हैं, उन खबरों में आप खुद भी जीते हैं और कई बार मरते भी हैं। उम्मीदें बंधाती खबरें, नाउम्मीद करती खबरें। लहूलुहान करती खबरें, फिर भी आप पढ़ते हैं अखबार। वह सीधा-साधा दोस्त है आपका। आपके साथ कहीं भी चल देता है। वह गांव-देस से लेकर दुनिया की सैर कराता है। खेत-खलिहान लेकर कस्बों तक पहुंच रहे मॉल में घुमाता है। सर्राफा बाजार से लेकर शेयर बाजार तक का हाल बताता है। यहां तक कि वह आपको अपने विचार बनाने और चार लोगों के बीच बौद्धिक बहस के लिए भी तैयार करता है। कुल जमा ये कि वह कभी नहीं रहने देता आपको बेखबर।
इसलिए जब मैं कहता हूं कि मुझे अपने अखबार से मोहब्बत है तो साथी मुस्कुरा देते हैं। चार अखबार आपके सामने हो, तो सबसे पहले आप अपना प्रिय अखबार ही उठाते हैं। जानते हैं क्यों। क्योंकि आप उसको सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। मेरी नजरों में यह प्यार है। सच मानिए तो यह इश्क कभी खत्म नहीं होने वाला। कागजों के संकट के बावजूद, वह आपके पास आएगा। मेरे मित्र गणेशनंदन अक्सर कहते हैं कि अखबार की जिद ही है निकलना। वह हार हाल में निकलता है। इस जिद में उसकी मोहब्बत छिपी है। कभी समझ सकेंगे आप?
अगला स्टेशन राजीव चौक है। उद्घोषणा हो रही है। मेरे सोचने का क्रम भंग हो गया है। मैं सीट से उठ रहा हूं। आज मैंने रॉयल ब्लू कलर की कोट पहन रखी है। बदन पर सफेद कमीज और नीली पैंट। कोच के शीशे में खुद को निहार रहा हूं। लग रहा है जैसे मैं खुद में अखबार हूं। सफेद कागज पर नीली-काली स्याही में छपा अखबार। वह अखबार जो आप तक पहुंचने से पहले मेरे पास आता है। जब मैं इसे अपने हाथों में लेता हूं, तो सच कहूं तब वह मेरा लिबास बन जाता है। स्याही की महक और कागज की खुशबू अपने सीने में उतार लेता हूं हर रात। वही अखबार जो रोज सुबह पहुंचता है आपके पास। जिससे मुझे ही नहीं आपको भी इश्क है। मैं तो बरसों से कर रहा हूं। आप भी निभाएंगे न?
गुजरते हुए साल 2017 के आखिरी सप्ताह खुद से मुलाकात की एक शुरुआत
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और जनसत्ता में कार्यरत हैं। फेसबुक पर ये है दिल्ली मेरी जान से नियमित कॉलम चलाते हैं।
Comments